आज का श्लोक,
’समाधौ’ / ’samādhau’
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’समाधौ’ / ’samādhau’ - समाधि की ओर, समाधि में, परमात्मा में, परमार्थ में, योग की उपलब्धि में,
अध्याय 2, श्लोक 44,
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
--
(भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम् तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥)
--
भावार्थ :
जिनकी बुद्धि भोग और ऐश्वर्य से अत्यन्त लुब्ध और आसक्त है, और इसलिए उनकी ही प्राप्ति के लिए लालायित है, इस प्रकार के लोगों की परमात्मा में कदापि रुचि नहीं होती, और उनकी ध्येयपरक बुद्धि उस परमार्थ तत्व में संलग्न भी नहीं हो पाती ।
--
अध्याय 2, श्लोक 53,
--
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥
--
(श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधौ-अचला बुद्धिः तदा योगम् अवाप्स्यसि ॥)
--
भावार्थ :
विविध प्रकार के परस्पर भिन्न मतों को सुनने से विचलित और भ्रमित हुई तुम्हारी बुद्धि निश्चल होकर जब अचलरूप से समाधि में सुस्थिर हो जाएगी, तब तुम्हें योग की उपलब्धि हो जाएगी ।
--
’समाधौ’ / ’samādhau’ - towards merging in the meditation, towards peace, towards ultimate destiny of consciousness, in the yoga,
Chapter 2, śloka 44,
bhogaiśvaryaprasaktānāṃ
tayāpahṛtacetasām |
vyavasāyātmikā buddhiḥ
samādhau na vidhīyate ||
--
(bhogaiśvaryaprasaktānām
tayāpahṛtacetasām |
vyavasāyātmikā buddhiḥ
samādhau na vidhīyate ||)
--
Meaning :
Those whose minds are attracted towards the enjoyments of wealth and pleasures of the world, and so have a deep attachment towards them, their intellect of determination never tends to be drawn towards the ultimate destiny (paramārtha tatva) of consciousness.
--
Chapter 2, śloka 53,
--
śrutivipratipannā te
yadā sthāsyati niścalā |
samādhāvacalā buddhis-
tadā yogamavāpsyasi ||
--
(śrutivipratipannā te
yadā sthāsyati niścalā |
samādhau-acalā buddhiḥ
tadā yogam avāpsyasi ||)
--
Meaning :
When your mind becomes free from the many intellects of the varied and confusing kinds, and stays silent in the Self, then in that silence of the mind, you attain the yoga.
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’समाधौ’ / ’samādhau’
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’समाधौ’ / ’samādhau’ - समाधि की ओर, समाधि में, परमात्मा में, परमार्थ में, योग की उपलब्धि में,
अध्याय 2, श्लोक 44,
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
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(भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम् तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥)
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भावार्थ :
जिनकी बुद्धि भोग और ऐश्वर्य से अत्यन्त लुब्ध और आसक्त है, और इसलिए उनकी ही प्राप्ति के लिए लालायित है, इस प्रकार के लोगों की परमात्मा में कदापि रुचि नहीं होती, और उनकी ध्येयपरक बुद्धि उस परमार्थ तत्व में संलग्न भी नहीं हो पाती ।
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अध्याय 2, श्लोक 53,
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श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥
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(श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधौ-अचला बुद्धिः तदा योगम् अवाप्स्यसि ॥)
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भावार्थ :
विविध प्रकार के परस्पर भिन्न मतों को सुनने से विचलित और भ्रमित हुई तुम्हारी बुद्धि निश्चल होकर जब अचलरूप से समाधि में सुस्थिर हो जाएगी, तब तुम्हें योग की उपलब्धि हो जाएगी ।
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’समाधौ’ / ’samādhau’ - towards merging in the meditation, towards peace, towards ultimate destiny of consciousness, in the yoga,
Chapter 2, śloka 44,
bhogaiśvaryaprasaktānāṃ
tayāpahṛtacetasām |
vyavasāyātmikā buddhiḥ
samādhau na vidhīyate ||
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(bhogaiśvaryaprasaktānām
tayāpahṛtacetasām |
vyavasāyātmikā buddhiḥ
samādhau na vidhīyate ||)
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Meaning :
Those whose minds are attracted towards the enjoyments of wealth and pleasures of the world, and so have a deep attachment towards them, their intellect of determination never tends to be drawn towards the ultimate destiny (paramārtha tatva) of consciousness.
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Chapter 2, śloka 53,
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śrutivipratipannā te
yadā sthāsyati niścalā |
samādhāvacalā buddhis-
tadā yogamavāpsyasi ||
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(śrutivipratipannā te
yadā sthāsyati niścalā |
samādhau-acalā buddhiḥ
tadā yogam avāpsyasi ||)
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Meaning :
When your mind becomes free from the many intellects of the varied and confusing kinds, and stays silent in the Self, then in that silence of the mind, you attain the yoga.
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