Thursday, July 24, 2014

आज का श्लोक, ’श्रद्धया’ / ’śraddhayā’

आज का श्लोक,  ’श्रद्धया’ / ’śraddhayā’
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’श्रद्धया’ / ’śraddhayā’ -  श्रद्धा से युक्त, (श्रद्धा, तृतीया विभक्ति, एकवचन)

अध्याय 6, श्लोक 37,

अर्जुन उवाच :
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥
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(अयतिः श्रद्धया उपेतः योगात्-चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिम् काम् गतिम् कृष्ण गच्छति ॥)
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भावार्थ :
अर्जुन बोले :
जिस मनुष्य की योग में स्वाभाविक निष्ठा है, किन्तु मन तथा इन्द्रियों आदि पर जिसका यथेष्ट संयम न होने से जो योग की पूर्णता को नहीं प्राप्त कर सका है,  हे कृष्ण! ऐसा मनुष्य (जीवन के अन्त में) किस गति को प्राप्त होता है?
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अध्याय 7, श्लोक 21,

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥
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(यः यः याम् याम् तनुम् भक्तः श्रद्धया अर्चितुम् इच्छति ।
तस्य तस्य अचलाम् श्रद्धाम् ताम् एव विदधामि अहम् ॥)
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भावार्थ : जो जो भक्त श्रद्धापूर्वक मेरी उपासना मेरे जिस जिस स्वरूप में करने की इच्छा करता है, उस उस भक्त की उसी श्रद्धा को मैं अपने उसी उसी स्वरूप के प्रति सुदृढ और सुस्थिर करता हूँ ।
टिप्पणी :
यदि इस श्लोक (21) का तात्पर्य पिछले श्लोक (20) के सन्दर्भ के आधार पर करें, तो यहाँ ’तनु’ / ’स्वरूप’ का अर्थ होगा ; देवता-विशेष ।  
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अध्याय 7, श्लोक 22,

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥
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(सः तया श्रद्धया युक्तः तस्य आराधनम् ईहते ।
लभते च ततः कामान् मया एव विहितान् हि तान् ॥)
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भावार्थ :
(जो भक्त कामनाओं से मोहित बुद्धि के कारण अन्य देवताओं की शरण में जाता है ... - श्लोक 20, 21,) वह उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता की आराधना करता है तथा उस देवता से मेरे ही द्वारा किए गए विधान से, वह उन इच्छित भोगों को अवश्य ही प्राप्त कर लेता है ॥
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अध्याय 9, श्लोक 23,

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ।
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(ये अपि अन्यदेवताः भक्ताः यजन्ते श्रद्धया अन्विताः ।
ते अपि मामेव कौन्तेय यजन्ति अविधिपूर्वकम् ॥)
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भावार्थ :
जो भी भक्त (मुझे न जानते हुए) अन्य देवताओं का पूजन श्रद्धा-भक्तिपूर्वक करते हैं, यद्यपि इसे नहीं जानते, किन्तु फिर भी जाने-अनजाने भी वे मेरा ही पूजन करते हैं ।
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अध्याय 12, श्लोक 2,

श्रीभगवानुवाच :
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥
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(मयि आवेश्य मनो ये माम् नित्ययुक्ताः उपासते ।
श्रद्धया परया उपेताः ते मे युक्ततमा मताः ॥)
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भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
जो अपने चित्त को मुझमें समाहित कर नित्य मुझसे युक्त हुए परम श्रद्धा सहित मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे मत में अपेक्षाकृत उच्चतर योगवेत्ता कहे जा सकते हैं ।
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अध्याय 17, श्लोक 1,

अर्जुन उवाच :
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥
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(ये शास्त्रविधिम् उत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेषाम् निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वम् आहो रजः तमः ॥)
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भावार्थ :
अर्जुन ने प्रश्न किया -
जो लोग शास्त्र द्वारा निर्दिष्ट विधि का, (उनसे अनभिज्ञ होने से, या परिस्थितियों के कारण) निर्वाह नहीं कर पाते, किन्तु श्रद्धा से युक्त होते हैं, उनकी निष्ठा को हे कृष्ण! सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक में से किस श्रेणी में रखा जा सकता है?
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टिप्पणी :
कुछ लोगों की परम सत्ता में श्रद्धा तो होती है, किन्तु स्पष्टता न होने से उसकी उपासना कैसे करें इस बारे में उन्हें ठीक से निश्चय नहीं होता । दूसरी ओर ऐसे भी लोग हैं जो ऐसी किसी सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार तक नहीं करते, किन्तु वे भी अपने आप के एक चेतन-सत्ता होने के सहजतः प्रकट तथ्य को न तो अस्वीकार कर सकते हैं न असिद्ध कर सकते हैं । ऐसे लोगों की गति उनकी प्रकृति के अनुसार तय होती है । किन्तु जो लोग किसी ऐसी परम सत्ता पर सम्यक् चिन्तन से प्राप्त निश्चयपूर्वक या अन्तःप्रज्ञा से ही श्रद्धा रखते हैं और उन्हें लगता है कि वे उस परम सत्ता को ठीक से नहीं जानते, इसलिए उसको जानने या प्राप्त करने के लिए उसकी येन केन प्रकारेण उपासना करते हैं, वे भी अपनी प्रकृति के अनुसार उसकी कृपा के भागी होते हैं । आनेवाले श्लोक 2 में यही स्पष्ट किया गया है कि यह यह श्रद्धा भी पुनः प्रकृति के ही तीन गुणों के अनुसार सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक होती है । इन तीन गुणों या प्रकृतियों वाले मनुष्यों की उपासना विधि भी तीन प्रकार की होती है । किन्तु जो पूरी तरह अपनी प्रकृति से ही परिचालित होते हैं, जिन्हें न तो परम सत्ता और न ही अपने-आपके बारे में जानने समझने की कोई रुचि होती है, वे किसी इष्ट की उपासना क्यों करेंगे?
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अध्याय 17, श्लोक 17,

श्रद्धया परया तप्तं तपस्त्रिविधं नरैः ।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ॥
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(श्रद्धया परया तप्तम् तपस्त्रिविधम् नरैः ।
अफलाकाङ्क्षिभिः युक्तैः सात्त्विकम् परिचक्षते ॥)
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भावार्थ :
श्लोक 16 में वर्णित तीन प्रकार के तप को, जिन्हें मनुष्यों द्वारा तप को फल की आकाङ्क्षा न करते हुए, पूर्ण श्रद्धा सहित किया जाता है, सात्त्विक तप कहा जाता है ।
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’श्रद्धया’ / ’śraddhayā’ -  with trust, through trust,

Chapter 6, śloka 37,

arjuna uvāca :

ayatiḥ śraddhayopeto
yogāccalitamānasaḥ |
aprāpya yogasaṃsiddhiṃ
kāṃgatiṃ kṛṣṇa gacchati||
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(ayatiḥ śraddhayā upetaḥ
yogāt-calitamānasaḥ |
aprāpya yogasaṃsiddhim
kām gatim kṛṣṇa gacchati ||)
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Meaning :
arjuna said:
One who has enough trust in yoga, but because of lack of control over the senses and mind, could not attain perfection in this endeavor, O kṛṣṇa! what fate he comes across (at the end of his life)?
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Chapter 7, śloka 21,

yo yo yāṃ yāṃ tanuṃ bhaktaḥ
śraddhayārcitumicchati |
tasya tasyācalāṃ śraddhāṃ
tāmeva vidadhāmyaham ||
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(yaḥ yaḥ yām yām tanum bhaktaḥ
śraddhayā arcitum icchati |
tasya tasya acalām śraddhām
tām eva vidadhāmi aham ||)
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Meaning :
Who-so-ever is devoted to Me, and in accordance to his trust, inherent spontaneous inspirations, perceptions and feelings about Me, wishes to worship Me in My what-so-ever form of his, I strengthen his feeling, give it firm foundation and make it steady.  
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Note :
the word 'trust' could be traced to its root in saṃskṛta to ’śrita’-meaning dependent upon. Trust is genuine, authentic in the first instance, while faith, belief, idea, and other words convey something acquired, learned and accepted just because of social, religious or traditional conditions and could be replaced by any another set of those values.
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Chapter 7, śloka 22,

sa tayā śraddhayā yuktas-
tasyārādhanamīhate |
labhate ca tataḥ kāmān-
mayaiva vihitānhi tān ||
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(saḥ tayā śraddhayā yuktaḥ
tasya ārādhanam īhate |
labhate ca tataḥ kāmān
mayā eva vihitān hi tān ||)
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Meaning :
(Those who desire their wishes granted, ...See shloka 20, 21,) though people worship other deities through them, I alone fulfill them and they seem to have acquired those gifts from them.
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Chapter 9, śloka 23,

ye:'pyanyadevatā bhaktā
yajante śraddhayānvitāḥ |
te:'pi māmeva kaunteya
yajantyavidhipūrvakam |
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(ye api anyadevatāḥ bhaktāḥ
yajante śraddhayā anvitāḥ |
te api māmeva kaunteya
yajanti avidhipūrvakam ||)
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Meaning :
Devotees though worship other deities with due respect and deep trust, (they are however not aware of ) that in this way they worship Me only, without knowing, indirectly though.
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Chapter 12, śloka 2,

śrībhagavānuvāca :

mayyāveśya mano ye māṃ
nityayuktā upāsate |
śraddhayā parayopetā-
ste me yuktatamā matāḥ ||
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(mayi āveśya mano ye mām
nityayuktāḥ upāsate |
śraddhayā parayā upetāḥ
te me yuktatamā matāḥ ||)
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Meaning :
bhagavān śrīkṛṣṇa said :
In my view, those who dedicate their heart and mind to me in great devotion and extreme surrender every moment, have no doubt higher attainment (than the rest).
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Chapter 17, śloka 1,

arjuna uvāca :
ye śāstravidhimutsṛjya
yajante śraddhayānvitāḥ |
teṣāṃ niṣṭhā tu kā kṛṣṇa
sattvamāho rajastamaḥ ||
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(ye śāstravidhim utsṛjya
yajante śraddhayānvitāḥ |
teṣām niṣṭhā tu kā kṛṣṇa
sattvam āho rajaḥ tamaḥ ||)
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Meaning :
arjuna :
What kind of the conviction ( niṣṭhā) is of those, who are devoted (śraddhayānvitāḥ) to the Supreme principle (that maintains this whole existence), but don't quite follow the specific injunctions as are laid down in the scriptures (just because of the circumstances).
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Chapter 17, śloka 17,

śraddhayā parayā taptaṃ
tapastrividhaṃ naraiḥ |
aphalākāṅkṣibhiryuktaiḥ
sāttvikaṃ paricakṣate ||
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(śraddhayā parayā taptam
tapastrividham naraiḥ |
aphalākāṅkṣibhiḥ yuktaiḥ
sāttvikam paricakṣate ||)
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Meaning :
The three kinds of austerities (as described in the earlier śloka 16 of this chapter,) practiced by men without expectation of a favor in return, and with full trust are called the austerities of the sāttvika kind.
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