आज का श्लोक, ’श्रेयः’ / ’śreyaḥ’
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’श्रेयः’ / ’śreyaḥ’ - अच्छाई, भलाई, शुभ,
अध्याय 1, श्लोक 31 ,
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निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥
--
(निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयः अनुपश्यामि हत्वा स्वजनम् आहवे ॥)
--
भावार्थ:
हे केशव! वैसे भी मुझे सब लक्षण विपरीत ही दिखाई दे रहे हैं, युद्ध में अपने स्वजनों को मारकर मुझे किसी श्रेयस् की प्राप्ति नहीं होगी ।
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अध्याय 2, श्लोक 5,
--
गुरूनहत्वा हि महानुभावाञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥
--
(गुरून् अहत्वा हि महानुभावान् श्रेयः भोक्तुम् भैक्ष्यम् अपि इह लोके ।
हत्वा अर्थकामान् तु गुरून् इह एव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥)
--
भावार्थ :
धन वैभव और कामनाओं की प्राप्ति के लिए इन श्रेष्ठ गुरुजनों की हत्या करना और फिर इनके रक्त से सने उन भोगों को भोगने की अपेक्षा यही बहुत श्रेयस्कर होगा कि इस लोक में भिक्षा माँगकर अन्न खाया जाए ।
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अध्याय 2, श्लोक 7,
--
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥७
--
(कार्पण्य-दोष-उपहत-स्वभावः
पृच्छामि त्वाम् धर्मसम्मूढचेताः ।
यत्-श्रेयः स्यात्-निश्चितम् ब्रूहि तत्-मे
शिष्यः ते-अहम् शाधि माम् त्वाम् प्रपन्नम् ॥)
--
भावार्थ :
भावनात्मक दुर्बलता की प्रवृत्ति से अभिभूत हुआ मैं, मेरा धर्म क्या है इस बारे में संशयग्रस्त हो रहा हूँ । इसलिए आपसे पूछता हूँ कि मेरे लिए जो भी निश्चित ही श्रेयस्कर है उसे मुझसे कहें । मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण हूँ, मुझे शिक्षा दें ।
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अध्याय 2, श्लोक 31,
--
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥
--
(स्वधर्मम्-अपि च-अवेक्ष्य न विकम्पितुम्-अर्हसि ।
धर्म्यात्-हि युद्धात्-श्रेयः अन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ॥)
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भावार्थ : तुम्हारे अपने निज क्षत्रिय-धर्म की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए भी, तुम्हें भय से व्याकुल नहीं होना चाहिए । क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मानुकूल प्राप्त हुए युद्ध से बढ़कर अधिक श्रेयस्कर दूसरा कोई अवसर नहीं हो सकता ।
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अध्याय 3, श्लोक 2,
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ।
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(व्यामिश्रेण-इव वाक्येन बुद्धिम् मोहयसि-इव मे ।
तत्-एकम् वद निश्चित्य येन श्रेयः अहम् आप्नुयाम् ॥)
--
भावार्थ :
(अर्जुन बोले): मिले-जुले तात्पर्यवाले जैसे मिश्रित वाक्यों से मुझे ऐसा लगता है कि जैसे आप मेरी बुद्धि को मानों भ्रमित कर रहे हों । इसलिए ऐसा कुछ एक सुनिश्चित कर कहें कि जिससे मुझे श्रेयस्कर की प्राप्ति हो ।
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अध्याय 3, श्लोक 11,
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥
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(देवान् भावयत अनेन ते देवाः भावयन्तु वः ।
परस्परम् भावयन्तः श्रेयः परम् अवाप्स्यथ ॥)
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भावार्थ :
इस (यज्ञ) के द्वारा देवताओं की जागृति करो, और वे देवता तुम्हें वैभव और समृद्धि प्रदान करें, इस प्रकार परस्पर हित करते हुए तुम (सब) श्रेयस्कर की प्राप्ति करोगे ।
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अध्याय 3, श्लोक 35,
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
--
(श्रेयान्-स्वधर्मः विगुणः परधर्मात्-स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनम् श्रेयः परधर्मः भयावहः ॥
--
भावार्थ :
अच्छी प्रकार से आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से अपने अल्प या विपरीत गुणवाले धर्म का आचरण उत्तम है, क्योंकि जहाँ एक ओर अपने धर्म का आचरण करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाना भी कल्याणप्रद होता है, वहीं दूसरे के धर्म का आचरण भय का ही कारण होता है ।
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अध्याय 5, श्लोक 1,
अर्जुन उवाच -
सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥
--
(सन्न्यासम् कर्मणाम् कृष्ण पुनः योगम् च शंससि ।
यत्-श्रेयः एतयोः एकम् तत् मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन ने कहा :
हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्न्यास (त्याग) की बात करते हैं, किन्तु फिर साथ ही योग की भी प्रशंसा कर रहे हैं । इन दोनों में से कौन सा एक दूसरे की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर है, इस बारे में मुझसे सुनिश्चित रूप से कहें ।
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अध्याय 12, श्लोक 12,
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
--
(श्रेयः हि ज्ञानम् अभ्यासात् ज्ञानात् ध्यानम् विशिष्यते ।
ध्यानात् कर्मफल-त्यागः त्यागात् शान्तिः अनन्तरम् ॥)
--
भावार्थ :
किसी विषय का ज्ञान होने पर उसका अभ्यास करना, उसके ज्ञान से रहित अभ्यास किए जाने से श्रेष्ठ है, पुनः केवल (बौद्धिक या सैद्धान्तिक) ज्ञान की अपेक्षा ध्यान (ध्यानपूर्वक चित्त को विषय पर लगाना), अधिक श्रेष्ठ है । किन्तु ध्यान की भी अपेक्षा कर्मफल (से आसक्ति) का त्याग सर्वाधिक श्रेष्ठ है, उस त्याग से तत्काल ही वास्तविक शान्ति प्राप्त होती है ।
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अध्याय 16, श्लोक 22,
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः ।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ॥
--
(एतैः विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैः त्रिभिः नरः ।
आचरति आत्मनः श्रेयः ततः याति पराम् गतिम् ॥)
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भावार्थ :
(गत श्लोक 21, में काम, क्रोध तथा लोभ को नरक के तीन द्वार कहा गया, इसी क्रम में आगे, ...)
हे कौन्तेय (अर्जुन)! नरक की ओर जानेवाले इन तीन द्वारों से मुक्त और अपनी आत्मा के कल्याण की दिशा में अग्रसर करनेवाला आचरण जिसका होता है, वह अवश्य ही परम गति को प्राप्त होता है ।
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’श्रेयः’ / ’śreyaḥ’ - good, prospective,
Chapter 1, śloka 31,
nimittāni ca paśyāmi
viparītāni keśava |
na ca śreyo:'nupaśyāmi
hatvā svajanamāhave ||
--
(nimittāni ca paśyāmi
viparītāni keśava |
na ca śreyaḥ anupaśyāmi
hatvā svajanam āhave ||)
--
Meaning :
I see all the indications contrary to the good, and I can't see how having killed our kith and kin in the war, can we hope for the victory, the ownership of state and the happiness consequent to them.
--
Chapter 2, śloka 5,
gurūnahatvā hi mahānubhāvāñchreyo
bhoktuṃ bhaikṣyamapīha loke |
hatvārthakāmāṃstu gurūnihaiva
bhuñjīya bhogān rudhirapradigdhān ||
--
(gurūn ahatvā hi mahānubhāvān śreyaḥ
bhoktuṃ bhaikṣyam api iha loke |
hatvā arthakāmān tu gurūn iha eva
bhuñjīya bhogān rudhirapradigdhān ||)
--
Meaning :
Living in this world on alms, is no doubt far better than to kill those reverred elders, and to enjoy all the riches and wealth, stained with their blood, so acquired.
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Chapter 2, śloka 7,
kārpaṇyadoṣopahatasvabhāvaḥ
pṛcchāmi tvāṃ dharmasammūḍhacetāḥ |
yacchreyaḥ syānniścitaṃ brūhi tanme
śiṣyaste:'haṃ śādhi māṃ tvāṃ prapannam ||7
--
(kārpaṇya-doṣa-upahata-svabhāvaḥ
pṛcchāmi tvām dharmasammūḍhacetāḥ |
yat-śreyaḥ syāt-niścitam brūhi tat-me
śiṣyaḥ te-aham śādhi mām tvām prapannam ||)
--
Meaning :
Overcome by pity and faint-heartedness, puzzled in the heart about what is the right path of 'dharma' for me, I am asking for your guidance, Please instruct and teach me, I am your disciple, seeking refuge in you.
--
Chapter 2, śloka 31,
svadharmamapi cāvekṣya
na vikampitumarhasi |
dharmyāddhi yuddhācchreyo
:'nyatkṣatriyasya na vidyate ||
--
(svadharmam-api ca-avekṣya
na vikampitum-arhasi |
dharmyāt-hi yuddhāt-śreyaḥ
anyat kṣatriyasya na vidyate ||)
--
Meaning :
Even if you look from the perspective of your own way of 'dharma', you need not get perturbed. Because, such a war for a noble cause, (that has been imposed upon you) is in perfect harmony with your own path of 'dharma'.
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Chapter 3, śloka 2,
vyāmiśreṇeva vākyena
buddhiṃ mohayasīva me |
tadekaṃ vada niścitya
yena śreyo:'hamāpnuyām |
--
(vyāmiśreṇa-iva vākyena
buddhim mohayasi-iva me |
tat-ekam vada niścitya
yena śreyaḥ aham āpnuyām ||)
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Meaning :
(arjuna said) : Your words seem to conflict and confuse my intellect, therefore please advise me in the appropriate words the exact way so that I may achieve what is the highest good for me.
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Chapter 3, śloka 11,
devānbhāvayatānena
te devā bhāvayantu vaḥ |
parasparaṃ bhāvayantaḥ
śreyaḥ paramavāpsyatha ||
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(devān bhāvayata anena
te devāḥ bhāvayantu vaḥ |
parasparam bhāvayantaḥ
śreyaḥ param avāpsyatha ||)
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Meaning :
With the means of this (yajña), propitiate and enrich the Gods and in turn they will give you prosperity, wealth and happiness. In this way helping one-another all you may have the supreme good.
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Chapter 3, śloka 35,
śreyānsvadharmo viguṇaḥ
paradharmātsvanuṣṭhitāt |
svadharme nidhanaṃ śreyaḥ
paradharmo bhayāvahaḥ ||
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(śreyān-svadharmaḥ viguṇaḥ
paradharmāt-svanuṣṭhitāt |
svadharme nidhanaṃ śreyaḥ
paradharmo bhayāvahaḥ ||
--
Meaning :
Though has not merits, it is far better to follow one's own way of 'dharma', than to follow and act upon the duties of another's 'dharma'. Even the death while pursuing own 'dharma', results in the ultimate good, where-as practicing another's 'dharma' is just horrific.
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Chapter 5, śloka 1,
arjuna uvāca -
sannyāsaṃ karmaṇāṃ kṛṣṇa
punaryogaṃ ca śaṃsasi |
yacchreya etayorekaṃ
tanme brūhi suniścitam ||
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(sannyāsam karmaṇām kṛṣṇa
punaḥ yogam ca śaṃsasi |
yat-śreyaḥ etayoḥ ekam
tat me brūhi suniścitam ||)
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Meaning :
arjuna said : O kṛṣṇa! You speak of Renunciation (saṃnnyāsa) of action (karma) ), and at the same time You also praise yoga. Please tell me with certainty, which of the two is superior.
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Note :
In this and following śloka of this Chapter 5, the meaning and essence of Renunciation is explained. The Renunciation could be either at the formal level when one renounces the possession of things, but does not give up the idea that the action happens because of the three attributes (guṇa) of prakṛti and one is always free and unaffected from all action (karma) and the notion of "I do / I don't do" are but illusion only, Or at a deeper level of understanding this truth.
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Chapter 12, śloka 12,
śreyo hi jñānamabhyāsāj-
jñānāddhyānaṃ viśiṣyate |
dhyānātkarmaphalatyāgas-
tyāgācchāntiranantaram ||
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(śreyaḥ hi jñānam abhyāsāt
jñānāt dhyānam viśiṣyate |
dhyānāt karmaphala-tyāgaḥ
tyāgāt śāntiḥ anantaram ||)
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Meaning :
(Spiritual) Practice with knowledge is better than practice without knowledge, and attention (dhyāna) and consciousness, meditation and awareness of this consciousness / 'self ' / 'Self' is far better than that (practice). But the renunciation of the fruits of action (karmaphalatyāga) / desireless-ness is the best, through which the peace-supreme is attained in no time.
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Chapter 16, śloka 22,
etairvimuktaḥ kaunteya
tamodvāraistribhirnaraḥ |
ācaratyātmanaḥ śreyas
tato yāti parāṃ gatim ||
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(etaiḥ vimuktaḥ kaunteya
tamodvāraiḥ tribhiḥ naraḥ |
ācarati ātmanaḥ śreyaḥ
tataḥ yāti parām gatim ||)
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Meaning :
[In the preceding śloka 21, lust / kāma, anger / krodha and greed / lobha have been terned as the three gateways that lead to hell...]
O kaunteya (arjuna)! One who has freed himself from the clutches of these three gates that lead to hell, and makes effort for the ultimate good (śreyas) of the Self, follows the way to The Supreme.
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’श्रेयः’ / ’śreyaḥ’ - अच्छाई, भलाई, शुभ,
अध्याय 1, श्लोक 31 ,
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निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥
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(निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयः अनुपश्यामि हत्वा स्वजनम् आहवे ॥)
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भावार्थ:
हे केशव! वैसे भी मुझे सब लक्षण विपरीत ही दिखाई दे रहे हैं, युद्ध में अपने स्वजनों को मारकर मुझे किसी श्रेयस् की प्राप्ति नहीं होगी ।
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अध्याय 2, श्लोक 5,
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गुरूनहत्वा हि महानुभावाञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥
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(गुरून् अहत्वा हि महानुभावान् श्रेयः भोक्तुम् भैक्ष्यम् अपि इह लोके ।
हत्वा अर्थकामान् तु गुरून् इह एव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥)
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भावार्थ :
धन वैभव और कामनाओं की प्राप्ति के लिए इन श्रेष्ठ गुरुजनों की हत्या करना और फिर इनके रक्त से सने उन भोगों को भोगने की अपेक्षा यही बहुत श्रेयस्कर होगा कि इस लोक में भिक्षा माँगकर अन्न खाया जाए ।
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अध्याय 2, श्लोक 7,
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कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥७
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(कार्पण्य-दोष-उपहत-स्वभावः
पृच्छामि त्वाम् धर्मसम्मूढचेताः ।
यत्-श्रेयः स्यात्-निश्चितम् ब्रूहि तत्-मे
शिष्यः ते-अहम् शाधि माम् त्वाम् प्रपन्नम् ॥)
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भावार्थ :
भावनात्मक दुर्बलता की प्रवृत्ति से अभिभूत हुआ मैं, मेरा धर्म क्या है इस बारे में संशयग्रस्त हो रहा हूँ । इसलिए आपसे पूछता हूँ कि मेरे लिए जो भी निश्चित ही श्रेयस्कर है उसे मुझसे कहें । मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण हूँ, मुझे शिक्षा दें ।
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अध्याय 2, श्लोक 31,
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स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥
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(स्वधर्मम्-अपि च-अवेक्ष्य न विकम्पितुम्-अर्हसि ।
धर्म्यात्-हि युद्धात्-श्रेयः अन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ॥)
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भावार्थ : तुम्हारे अपने निज क्षत्रिय-धर्म की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए भी, तुम्हें भय से व्याकुल नहीं होना चाहिए । क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मानुकूल प्राप्त हुए युद्ध से बढ़कर अधिक श्रेयस्कर दूसरा कोई अवसर नहीं हो सकता ।
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अध्याय 3, श्लोक 2,
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ।
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(व्यामिश्रेण-इव वाक्येन बुद्धिम् मोहयसि-इव मे ।
तत्-एकम् वद निश्चित्य येन श्रेयः अहम् आप्नुयाम् ॥)
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भावार्थ :
(अर्जुन बोले): मिले-जुले तात्पर्यवाले जैसे मिश्रित वाक्यों से मुझे ऐसा लगता है कि जैसे आप मेरी बुद्धि को मानों भ्रमित कर रहे हों । इसलिए ऐसा कुछ एक सुनिश्चित कर कहें कि जिससे मुझे श्रेयस्कर की प्राप्ति हो ।
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अध्याय 3, श्लोक 11,
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥
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(देवान् भावयत अनेन ते देवाः भावयन्तु वः ।
परस्परम् भावयन्तः श्रेयः परम् अवाप्स्यथ ॥)
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भावार्थ :
इस (यज्ञ) के द्वारा देवताओं की जागृति करो, और वे देवता तुम्हें वैभव और समृद्धि प्रदान करें, इस प्रकार परस्पर हित करते हुए तुम (सब) श्रेयस्कर की प्राप्ति करोगे ।
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अध्याय 3, श्लोक 35,
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
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(श्रेयान्-स्वधर्मः विगुणः परधर्मात्-स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनम् श्रेयः परधर्मः भयावहः ॥
--
भावार्थ :
अच्छी प्रकार से आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से अपने अल्प या विपरीत गुणवाले धर्म का आचरण उत्तम है, क्योंकि जहाँ एक ओर अपने धर्म का आचरण करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाना भी कल्याणप्रद होता है, वहीं दूसरे के धर्म का आचरण भय का ही कारण होता है ।
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अध्याय 5, श्लोक 1,
अर्जुन उवाच -
सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥
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(सन्न्यासम् कर्मणाम् कृष्ण पुनः योगम् च शंससि ।
यत्-श्रेयः एतयोः एकम् तत् मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥)
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भावार्थ :
अर्जुन ने कहा :
हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्न्यास (त्याग) की बात करते हैं, किन्तु फिर साथ ही योग की भी प्रशंसा कर रहे हैं । इन दोनों में से कौन सा एक दूसरे की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर है, इस बारे में मुझसे सुनिश्चित रूप से कहें ।
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अध्याय 12, श्लोक 12,
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
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(श्रेयः हि ज्ञानम् अभ्यासात् ज्ञानात् ध्यानम् विशिष्यते ।
ध्यानात् कर्मफल-त्यागः त्यागात् शान्तिः अनन्तरम् ॥)
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भावार्थ :
किसी विषय का ज्ञान होने पर उसका अभ्यास करना, उसके ज्ञान से रहित अभ्यास किए जाने से श्रेष्ठ है, पुनः केवल (बौद्धिक या सैद्धान्तिक) ज्ञान की अपेक्षा ध्यान (ध्यानपूर्वक चित्त को विषय पर लगाना), अधिक श्रेष्ठ है । किन्तु ध्यान की भी अपेक्षा कर्मफल (से आसक्ति) का त्याग सर्वाधिक श्रेष्ठ है, उस त्याग से तत्काल ही वास्तविक शान्ति प्राप्त होती है ।
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अध्याय 16, श्लोक 22,
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः ।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ॥
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(एतैः विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैः त्रिभिः नरः ।
आचरति आत्मनः श्रेयः ततः याति पराम् गतिम् ॥)
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भावार्थ :
(गत श्लोक 21, में काम, क्रोध तथा लोभ को नरक के तीन द्वार कहा गया, इसी क्रम में आगे, ...)
हे कौन्तेय (अर्जुन)! नरक की ओर जानेवाले इन तीन द्वारों से मुक्त और अपनी आत्मा के कल्याण की दिशा में अग्रसर करनेवाला आचरण जिसका होता है, वह अवश्य ही परम गति को प्राप्त होता है ।
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’श्रेयः’ / ’śreyaḥ’ - good, prospective,
Chapter 1, śloka 31,
nimittāni ca paśyāmi
viparītāni keśava |
na ca śreyo:'nupaśyāmi
hatvā svajanamāhave ||
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(nimittāni ca paśyāmi
viparītāni keśava |
na ca śreyaḥ anupaśyāmi
hatvā svajanam āhave ||)
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Meaning :
I see all the indications contrary to the good, and I can't see how having killed our kith and kin in the war, can we hope for the victory, the ownership of state and the happiness consequent to them.
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Chapter 2, śloka 5,
gurūnahatvā hi mahānubhāvāñchreyo
bhoktuṃ bhaikṣyamapīha loke |
hatvārthakāmāṃstu gurūnihaiva
bhuñjīya bhogān rudhirapradigdhān ||
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(gurūn ahatvā hi mahānubhāvān śreyaḥ
bhoktuṃ bhaikṣyam api iha loke |
hatvā arthakāmān tu gurūn iha eva
bhuñjīya bhogān rudhirapradigdhān ||)
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Meaning :
Living in this world on alms, is no doubt far better than to kill those reverred elders, and to enjoy all the riches and wealth, stained with their blood, so acquired.
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Chapter 2, śloka 7,
kārpaṇyadoṣopahatasvabhāvaḥ
pṛcchāmi tvāṃ dharmasammūḍhacetāḥ |
yacchreyaḥ syānniścitaṃ brūhi tanme
śiṣyaste:'haṃ śādhi māṃ tvāṃ prapannam ||7
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(kārpaṇya-doṣa-upahata-svabhāvaḥ
pṛcchāmi tvām dharmasammūḍhacetāḥ |
yat-śreyaḥ syāt-niścitam brūhi tat-me
śiṣyaḥ te-aham śādhi mām tvām prapannam ||)
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Meaning :
Overcome by pity and faint-heartedness, puzzled in the heart about what is the right path of 'dharma' for me, I am asking for your guidance, Please instruct and teach me, I am your disciple, seeking refuge in you.
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Chapter 2, śloka 31,
svadharmamapi cāvekṣya
na vikampitumarhasi |
dharmyāddhi yuddhācchreyo
:'nyatkṣatriyasya na vidyate ||
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(svadharmam-api ca-avekṣya
na vikampitum-arhasi |
dharmyāt-hi yuddhāt-śreyaḥ
anyat kṣatriyasya na vidyate ||)
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Meaning :
Even if you look from the perspective of your own way of 'dharma', you need not get perturbed. Because, such a war for a noble cause, (that has been imposed upon you) is in perfect harmony with your own path of 'dharma'.
--
Chapter 3, śloka 2,
vyāmiśreṇeva vākyena
buddhiṃ mohayasīva me |
tadekaṃ vada niścitya
yena śreyo:'hamāpnuyām |
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(vyāmiśreṇa-iva vākyena
buddhim mohayasi-iva me |
tat-ekam vada niścitya
yena śreyaḥ aham āpnuyām ||)
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Meaning :
(arjuna said) : Your words seem to conflict and confuse my intellect, therefore please advise me in the appropriate words the exact way so that I may achieve what is the highest good for me.
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Chapter 3, śloka 11,
devānbhāvayatānena
te devā bhāvayantu vaḥ |
parasparaṃ bhāvayantaḥ
śreyaḥ paramavāpsyatha ||
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(devān bhāvayata anena
te devāḥ bhāvayantu vaḥ |
parasparam bhāvayantaḥ
śreyaḥ param avāpsyatha ||)
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Meaning :
With the means of this (yajña), propitiate and enrich the Gods and in turn they will give you prosperity, wealth and happiness. In this way helping one-another all you may have the supreme good.
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Chapter 3, śloka 35,
śreyānsvadharmo viguṇaḥ
paradharmātsvanuṣṭhitāt |
svadharme nidhanaṃ śreyaḥ
paradharmo bhayāvahaḥ ||
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(śreyān-svadharmaḥ viguṇaḥ
paradharmāt-svanuṣṭhitāt |
svadharme nidhanaṃ śreyaḥ
paradharmo bhayāvahaḥ ||
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Meaning :
Though has not merits, it is far better to follow one's own way of 'dharma', than to follow and act upon the duties of another's 'dharma'. Even the death while pursuing own 'dharma', results in the ultimate good, where-as practicing another's 'dharma' is just horrific.
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Chapter 5, śloka 1,
arjuna uvāca -
sannyāsaṃ karmaṇāṃ kṛṣṇa
punaryogaṃ ca śaṃsasi |
yacchreya etayorekaṃ
tanme brūhi suniścitam ||
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(sannyāsam karmaṇām kṛṣṇa
punaḥ yogam ca śaṃsasi |
yat-śreyaḥ etayoḥ ekam
tat me brūhi suniścitam ||)
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Meaning :
arjuna said : O kṛṣṇa! You speak of Renunciation (saṃnnyāsa) of action (karma) ), and at the same time You also praise yoga. Please tell me with certainty, which of the two is superior.
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Note :
In this and following śloka of this Chapter 5, the meaning and essence of Renunciation is explained. The Renunciation could be either at the formal level when one renounces the possession of things, but does not give up the idea that the action happens because of the three attributes (guṇa) of prakṛti and one is always free and unaffected from all action (karma) and the notion of "I do / I don't do" are but illusion only, Or at a deeper level of understanding this truth.
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Chapter 12, śloka 12,
śreyo hi jñānamabhyāsāj-
jñānāddhyānaṃ viśiṣyate |
dhyānātkarmaphalatyāgas-
tyāgācchāntiranantaram ||
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(śreyaḥ hi jñānam abhyāsāt
jñānāt dhyānam viśiṣyate |
dhyānāt karmaphala-tyāgaḥ
tyāgāt śāntiḥ anantaram ||)
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Meaning :
(Spiritual) Practice with knowledge is better than practice without knowledge, and attention (dhyāna) and consciousness, meditation and awareness of this consciousness / 'self ' / 'Self' is far better than that (practice). But the renunciation of the fruits of action (karmaphalatyāga) / desireless-ness is the best, through which the peace-supreme is attained in no time.
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Chapter 16, śloka 22,
etairvimuktaḥ kaunteya
tamodvāraistribhirnaraḥ |
ācaratyātmanaḥ śreyas
tato yāti parāṃ gatim ||
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(etaiḥ vimuktaḥ kaunteya
tamodvāraiḥ tribhiḥ naraḥ |
ācarati ātmanaḥ śreyaḥ
tataḥ yāti parām gatim ||)
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Meaning :
[In the preceding śloka 21, lust / kāma, anger / krodha and greed / lobha have been terned as the three gateways that lead to hell...]
O kaunteya (arjuna)! One who has freed himself from the clutches of these three gates that lead to hell, and makes effort for the ultimate good (śreyas) of the Self, follows the way to The Supreme.
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