आज का श्लोक, ’श्रेयान्’ / ’śreyān’
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’श्रेयान्’ / ’śreyān’ - श्रेष्ठतर,
अध्याय 3, श्लोक 35,
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
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(श्रेयान्-स्वधर्मः विगुणः परधर्मात्-स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
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भावार्थ :
अच्छी प्रकार से आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से अपने अल्प या विपरीत गुणवाले धर्म का आचरण उत्तम है, क्योंकि जहाँ एक ओर अपने धर्म का आचरण करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाना भी कल्याणप्रद होता है, वहीं दूसरे के धर्म का आचरण भय का ही कारण होता है ।
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अध्याय 4, श्लोक 33,
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥
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(श्रेयान् द्रव्यमयात् यज्ञात् ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वम् कर्म अखिलम् पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥)
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भावार्थ :
हे परन्तप अर्जुन! द्रव्यों की आहुति देकर किए जानेवाले यज्ञों की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अधिक श्रेयस्कर है, और सम्पूर्ण कर्म (कर्म-समष्टि ही) ज्ञान में विलीन हो जाते हैं ।
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अध्याय 18, श्लोक 47,
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥
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(श्रेयान् स्वधर्मः विगुणः परधर्मात् सु-अनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतम् कर्म कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम् ॥)
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भावार्थ :
अच्छी प्रकार से आचरण किए गए दूसरे के धर्म की तुलना में अपना स्वाभाविक धर्म, अल्पगुणयुक्त होने पर भी श्रेष्ठ है, क्योंकि अपने स्वधर्मरूप कर्म का भली प्रकार से आचरण करते हुए मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता ।
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’श्रेयान्’ / ’śreyān’ - better, of superior kind,
Chapter 3, śloka 35,
śreyānsvadharmo viguṇaḥ
paradharmātsvanuṣṭhitāt |
svadharme nidhanaṃ śreyaḥ
paradharmo bhayāvahaḥ ||
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(śreyān-svadharmaḥ viguṇaḥ
paradharmāt-svanuṣṭhitāt |
svadharme nidhanaṃ śreyaḥ
paradharmo bhayāvahaḥ ||
--
Meaning :
Though has not merits, it is far better to follow one's own way of 'dharma', than to follow and act upon the duties of another's 'dharma'. Even the death while pursuing own 'dharma', results in the ultimate good, where-as practicing another's 'dharma' is just horrific.
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Chapter 4, śloka 33,
śreyāndravyamayādya-
jñājjñānayajñaḥ parantapa |
sarvaṃ karmākhilaṃ pārtha
jñāne parisamāpyate ||
--
(śreyān dravyamayāt yajñāt
jñānayajñaḥ parantapa |
sarvam karma akhilam pārtha
jñāne parisamāpyate ||)
--
Meaning :
O (parantapa) arjun ! The sacrifice (yajña), where-in the offerings of the intellect is made in the Fire of wisdom (jñānayajña), where-in mind is offered into the Fire of Self, is superior to the sacrifices (yajña-s) where the offerings of materials are made into fire (dravyamaya yajña).
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Chapter 18, śloka 47,
śreyānsvadharmo viguṇaḥ
paradharmātsvanuṣṭhitāt |
svabhāvaniyataṃ karma
kurvannāpnoti kilbiṣam ||
--
(śreyān svadharmaḥ viguṇaḥ
paradharmāt su-anuṣṭhitāt |
svabhāvaniyatam karma
kurvan na āpnoti kilbiṣam ||)
--
Meaning :
Though inferior, one should observe and follow the way of action / activity as is fit with his natural tendencies and is supposed to carry out according to scriptural injunctions. Because one is already fit for that kind of Action and such a man never incurs sin if he truthfully performs the same.
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’श्रेयान्’ / ’śreyān’ - श्रेष्ठतर,
अध्याय 3, श्लोक 35,
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
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(श्रेयान्-स्वधर्मः विगुणः परधर्मात्-स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
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भावार्थ :
अच्छी प्रकार से आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से अपने अल्प या विपरीत गुणवाले धर्म का आचरण उत्तम है, क्योंकि जहाँ एक ओर अपने धर्म का आचरण करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाना भी कल्याणप्रद होता है, वहीं दूसरे के धर्म का आचरण भय का ही कारण होता है ।
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अध्याय 4, श्लोक 33,
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥
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(श्रेयान् द्रव्यमयात् यज्ञात् ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वम् कर्म अखिलम् पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥)
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भावार्थ :
हे परन्तप अर्जुन! द्रव्यों की आहुति देकर किए जानेवाले यज्ञों की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अधिक श्रेयस्कर है, और सम्पूर्ण कर्म (कर्म-समष्टि ही) ज्ञान में विलीन हो जाते हैं ।
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अध्याय 18, श्लोक 47,
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥
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(श्रेयान् स्वधर्मः विगुणः परधर्मात् सु-अनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतम् कर्म कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम् ॥)
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भावार्थ :
अच्छी प्रकार से आचरण किए गए दूसरे के धर्म की तुलना में अपना स्वाभाविक धर्म, अल्पगुणयुक्त होने पर भी श्रेष्ठ है, क्योंकि अपने स्वधर्मरूप कर्म का भली प्रकार से आचरण करते हुए मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता ।
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’श्रेयान्’ / ’śreyān’ - better, of superior kind,
Chapter 3, śloka 35,
śreyānsvadharmo viguṇaḥ
paradharmātsvanuṣṭhitāt |
svadharme nidhanaṃ śreyaḥ
paradharmo bhayāvahaḥ ||
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(śreyān-svadharmaḥ viguṇaḥ
paradharmāt-svanuṣṭhitāt |
svadharme nidhanaṃ śreyaḥ
paradharmo bhayāvahaḥ ||
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Meaning :
Though has not merits, it is far better to follow one's own way of 'dharma', than to follow and act upon the duties of another's 'dharma'. Even the death while pursuing own 'dharma', results in the ultimate good, where-as practicing another's 'dharma' is just horrific.
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Chapter 4, śloka 33,
śreyāndravyamayādya-
jñājjñānayajñaḥ parantapa |
sarvaṃ karmākhilaṃ pārtha
jñāne parisamāpyate ||
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(śreyān dravyamayāt yajñāt
jñānayajñaḥ parantapa |
sarvam karma akhilam pārtha
jñāne parisamāpyate ||)
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Meaning :
O (parantapa) arjun ! The sacrifice (yajña), where-in the offerings of the intellect is made in the Fire of wisdom (jñānayajña), where-in mind is offered into the Fire of Self, is superior to the sacrifices (yajña-s) where the offerings of materials are made into fire (dravyamaya yajña).
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Chapter 18, śloka 47,
śreyānsvadharmo viguṇaḥ
paradharmātsvanuṣṭhitāt |
svabhāvaniyataṃ karma
kurvannāpnoti kilbiṣam ||
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(śreyān svadharmaḥ viguṇaḥ
paradharmāt su-anuṣṭhitāt |
svabhāvaniyatam karma
kurvan na āpnoti kilbiṣam ||)
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Meaning :
Though inferior, one should observe and follow the way of action / activity as is fit with his natural tendencies and is supposed to carry out according to scriptural injunctions. Because one is already fit for that kind of Action and such a man never incurs sin if he truthfully performs the same.
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