आज का श्लोक, ’शृणु ’ / ’śṛṇu’
________________________
’शृणु ’ / ’śṛṇu’ - सुनो,
अध्याय 2, श्लोक 39,
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥
--
(एषा ते अभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिः योगे तु इमाम् शृणु ।
बुद्ध्या युक्तः यया पार्थ कर्मबन्धम् प्रहास्यसि ॥)
--
भावार्थ :
साँख्य-शास्त्र में इसकी ही शिक्षा दी गई है, इस बुद्धियोग (ज्ञानयोग) के बारे में सुनो । जिससे बुद्धि से युक्त होकर हे पार्थ! तुम कर्मबन्धन को भली-भाँति त्याग दोगे, अर्थात् नष्ट कर दोगे ।
--
अध्याय 7, श्लोक 1,
श्रीभगवानुवाच :
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥
--
(मयि आसक्तमनाः पार्थ योगम् युञ्जन् मदाश्रयः ।
असंशयम् समग्रम् माम् यथा ज्ञास्यसि तत्-शृणु ॥)
--
भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
हे पार्थ (हे अर्जुन)! मुझमें / मेरे प्रेम में निमज्जित-हृदय, मुझमें समर्पित-चित्त होकर मेरा आश्रय लेते हुए, जिस प्रकार से तुम मुझको समग्रतः जान लोगे, उसे सुनो ।
--
अध्याय 10, श्लोक 1,
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥
--
(भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः ।
यत्ते अहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥)
--
भावार्थ :
हे महाबाहु (अर्जुन!) पुनः तुम्हारे लिए प्रिय, मेरे ये श्रेष्ठ वचन सुनो जिन्हें मैं तुम्हारे कल्याण की कामना से तुमसे कहने जा रहा हूँ।
--
अध्याय 13, श्लोक 3,
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् ।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु ॥
--
(तत् क्षेत्रम् यत् च यादृक् च यत् विकारी यतः च यत् ।
सः च यः यत्-प्रभावः च तत् समासेन मे शृणु ॥)
--
भावार्थ :
वह क्षेत्र (जिसे इस अध्याय के प्रथम क्षेत्र में ’शरीर’ कहा गया है) जो कुछ है, और जैसा (उसका स्वरूप और वास्तविकता) है, वह जिसका विकार है, और जिसके, जिस (कारण) से इस विकाररूपी इस क्षेत्र (के रूप) में परिणत हुआ है, वह जो और जैसे प्रभाववाला है, उसका साररूप में वर्णन मुझसे सुनो ।
--
अध्याय 16, श्लोक 6,
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु ॥
--
(द्वौ भूतसर्गौ लोके अस्मिन् दैवः आसुरः एव च ।
दैवः विस्तरशः प्रोक्तः आसुरम् पार्थ मे शृणु ॥)
--
भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन)! इस लोक में दो प्रकार की भूतसृष्टि अर्थात् मनुष्य होते हैं । दैवी प्रवृत्तियुक्त एवं आसुरी प्रवृत्तियुक्त । इनमें से दैवी प्रवृत्तियुक्त लोगों के बारे में विस्तार से कहा, अब आसुरी प्रवृत्तिवाले लोगों के बारे में मुझसे सुनो ।
--
अध्याय 17, श्लोक 2,
--
श्रीभगवान् उवाच :
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥
--
(त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनाम् सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी च-एव तामसी च-इति ताम् शृणु ॥)
--
भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
सभी देहधारियों को स्वभाव से प्राप्त उनकी श्रद्धा, तीन प्रकार की होती है । वह (श्रद्धा) किस प्रकार से सात्त्विकी, राजसी अथवा तामसी होती है, उसे सुनो ।
--
अध्याय 17, श्लोक 7,
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः ।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु ॥
--
(आहारः तु अपि सर्वस्य त्रिविधः भवति प्रियः ।
यज्ञः तपः तथा दानम् तेषाम् भेदम् इमम् शृणु ॥)
--
भावार्थ :
भोजन भी सबको अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार (सात्विक, राजसिक अथवा तामसी) तीन प्रकार से प्रिय होता है । एवं इसी तरह से यज्ञ, तप एवं दान भी (जिन तीन प्रकारों से अपनी अपनी प्रकृति से) किया जाता है, उनके भेद क्या हैं, इसे सुनो ।
--
अध्याय 18, श्लोक 4,
निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ॥
--
(निश्चयम् शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागः हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ॥)
--
भावार्थ :
हे पुरुषश्रेष्ठ, भरतकुलोत्पन्न अर्जुन! (इस अध्याय 18 के प्रथम श्लोक में अर्जुन द्वारा संन्यास और त्याग की जिज्ञासा किए जाने पर) इस संबंध में अब जैसा मेरा सुनिश्चय है और जैसा कहा जाता है, उसे सुनो । त्याग तीन प्रकार का कहा गया है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 19,
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः ।
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ॥
--
(ज्ञानम् कर्म च कर्ता च त्रिधा एव गुणभेदतः ।
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावत् शृणु तानि अपि ॥)
--
भावार्थ :
गुणों की संख्या (तीन गुणों) के आधार पर, ज्ञान, कर्म तथा कर्ता (इनका स्वरूप) गुणों की भिन्नता से, जिस प्रकार से तीन प्रकार का होता है, उसे सुनो ।
--
टिप्पणी :
सत्त्व, रज तथा तम प्रकृति के इन तीन गुणों की भिन्नता के, ज्ञान, कर्म तथा कर्ता पर पड़नेवाले प्रभाव से ज्ञान, कर्म तथा कर्ता सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक हो सकते हैं ।
--
अध्याय 18, श्लोक 29,
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु ।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय ॥
--
(बुद्धेः भेदम् धृतेः च एव गुणतः त्रिविधम् शृणु ।
प्रोच्यमानम् अशेषेण पृथक्त्वेन धञ्जय ॥)
--
भावार्थ : सत्त्व, रज तथा तम इन तीनों गुणों के भेद से होनेवाले बुद्धि तथा धृति के भी उन तीन प्रकार से भेदों को अब क्रमशः सुनो, जिन्हें पृथक्-पृथक् और पूर्णरूपेण से कहा जायेगा ।
--
अध्याय 18, श्लोक 36,
सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ॥
--
(सुखम् तु इदानीम् त्रिविधम् शृणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासात् रमते यत्र दुःखान्तम् च निगच्छति ॥)
--
भावार्थ :
अब हे भरतर्षभ (अर्जुन)! अब तुम मुझसे यह सुनो कि सुख अर्थात् आनन्द (किस तरह से) तीन प्रकार का होता है । (पहला वह) जहाँ मनुष्य (का मन) अभ्यास करते करते ही रमने लगता है और दुःख के अन्त (निरोध) को प्राप्त हो जाता है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 45,
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छ्रुणु ॥
--
(स्वे स्वे कर्मणि अभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिम् यथा विन्दति तत् शृणु ॥)
--
भावार्थ :
कोई भी मनुष्य अपने विशिष्ट कर्मों में तत्परता से युक्त होकर ज्ञान-निष्ठा रूपी संसिद्धि का लाभ प्राप्त कर लेता है । अपने उस विशिष्ट कर्म में लगा रहते हुए उसे ऐसा लाभ कैसे प्राप्त होता है, उसे सुनो ।
--
अध्याय 18, श्लोक 64,
--
सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥
--
(सर्वगुह्यतमम् भूयः शृणु मे परमं वचः ।
इष्टः असि मे दृढम् इति ततः वक्ष्यामि ते हितम् ॥)
--
भावार्थ :
यद्यपि यह ज्ञान सर्वाधिक गूढ और गूढतम है, तथापि मैं पुनः एक बार तुमसे ये तुम्हारे लिए परम हितकारी वचन कह रहा हूँ। मेरे इन वचनों को सुनो ( हे अर्जुन!) क्योंकि तुम मेरे इष्ट हो, दृढ और परम भक्त हो।
--
’शृणु ’ / ’śṛṇu’ - listen to, hear,
Chapter 2, śloka 39,
eṣā te:'bhihitā sāṅkhye
buddhiryoge tvimāṃ śṛṇu |
buddhyā yukto yayā pārtha
karmabandhaṃ prahāsyasi ||
--
(eṣā te abhihitā sāṅkhye
buddhiḥ yoge tu imām śṛṇu |
buddhyā yuktaḥ yayā pārtha
karmabandham prahāsyasi ||)
--
Meaning :
Listen to this Yoga of Wisdom as is dealt with in sāṅkhya-śāstra. Which, having attained by you, you will be able to destroy the bodage of 'karma'.
(Because no one can escape 'karma' / 'action'. But one can sure learn how to perform the 'karma' with right knowledge / wisdom, in such a way so that the bondage may weaken and is ultimately cut asunder, and one is free.)
--
Captter 7, śloka 1,
śrībhagavānuvāca :
mayyāsaktamanāḥ pārtha
yogaṃ yuñjanmadāśrayaḥ |
asaṃśayaṃ samagraṃ māṃ
yathā jñāsyasi tacchṛṇu ||
--
(mayi āsaktamanāḥ pārtha
yogam yuñjan madāśrayaḥ |
asaṃśayam samagram mām
yathā jñāsyasi tat-śṛṇu ||)
--
Meaning :
Now listen to Me, O pārtha (arjuna) ! In earnest love for Me, Having dedicated to Me his whole heart and being, how one is most intimately linked to Me, how through this yoga, one attains and knows Me perfectly and thoroughly, in all My aspects, What I AM, without no trace of doubt.
--
Chapter 10, śloka 1,
bhūya eva mahābāho
śṛṇu me paramaṃ vacaḥ |
yatte:'haṃ prīyamāṇāya
vakṣyāmi hitakāmyayā ||
--
(bhūya eva mahābāho
śṛṇu me paramaṃ vacaḥ |
yatte ahaṃ prīyamāṇāya
vakṣyāmi hitakāmyayā ||)
--
Meaning :
Arjuna! Because you are very dear to me, Listen again to my these Supreme words, that I will say to you, and which will make you very happy, for your benefit.
--
Chapter 13, śloka 3,
tatkṣetraṃ yacca yādṛkca
yadvikāri yataśca yat |
sa ca yo yatprabhāvaśca
tatsamāsena me śṛṇu ||
--
(tat kṣetram yat ca yādṛk ca
yat vikārī yataḥ ca yat |
saḥ ca yaḥ yat-prabhāvaḥ ca
tat samāsena me śruṇu ||)
--
Meaning : Now listen from Me in short about; What is the form and nature of that dwelling place where the 'Self' lives / abides in, what kind is that place in essence and how, why and to what extent it transforms / mutates, and what affects and causes this transformation.
--
Chapter 16, śloka 6,
dvau bhūtasargau loke-
:'smindaiva āsura eva ca |
daivo vistaraśaḥ prokta
āsuraṃ pārtha me śṛṇu ||
--
(dvau bhūtasargau loke
asmin daivaḥ āsuraḥ eva ca |
daivaḥ vistaraśaḥ proktaḥ
āsuram pārtha me śṛṇu ||)
--
Meaning :
pārtha (arjuna)! On this earth, there are two kinds of people, those who have divine tendencies and those who have evil tendencies. So far, the qualities of those of the divine has been described in detail, now listen to the qualities of those who have evil tendencies.
--
Chapter 17, śloka 2,
śrībhagavān uvāca :
trividhā bhavati śraddhā
dehināṃ sā svabhāvajā |
sāttvikī rājasī caiva
tāmasī ceti tāṃ śṛṇu ||
--
(trividhā bhavati śraddhā
dehinām sā svabhāvajā |
sāttvikī rājasī ca-eva
tāmasī ca-iti tāṃ śṛṇu ||)
--
Meaning :
Lord śrīkṛṣṇa said, -
"According to the natural tendencies of the body-mind, the 'trust' associated with them is of three kinds - sāttvikī ( of harmony), rājasika ( of passion) or of tāmasī (of indolence)."
--
Chapter 17, śloka 7,
āhārastvapi sarvasya
trividho bhavati priyaḥ |
yajñastapastathā dānaṃ
teṣāṃ bhedamimaṃ śṛṇu ||
--
(āhāraḥ tu api sarvasya
trividhaḥ bhavati priyaḥ |
yajñaḥ tapaḥ tathā dānam
teṣām bhedam imam śṛṇu ||)
--
Meaning :
The food of all, they like according to their tendencies (prakṛti - sātvika, rājasika tāmasika) is also of three kinds as also the way of sacrifice (yajña), austerities (tapas) and charity (dānaṃ ) performed by them.
--
Chapter 18, śloka 4,
niścayaṃ śṛṇu me tatra
tyāge bharatasattama |
tyāgo hi puruṣavyāghra
trividhaḥ samprakīrtitaḥ ||
--
(niścayam śṛṇu me tatra
tyāge bharatasattama |
tyāgaḥ hi puruṣavyāghra
trividhaḥ samprakīrtitaḥ ||)
--
Meaning :
(To arjuna's question about the difference and between saṃnyāsa and tyāga, in shloka 1 of this chapter 18, śrīkṛṣṇa answers :)
Now listen to my opinion about (saṃnyāsa and tyāga. According to scriptures, tyāga is of three kinds.
--
Chapter 18, śloka 19,
jñānaṃ karma ca kartā ca
tridhaiva guṇabhedataḥ |
procyate guṇasaṅkhyāne
yathāvacchṛṇu tānyapi ||
--
(jñānam karma ca kartā ca
tridhā eva guṇabhedataḥ |
procyate guṇasaṅkhyāne
yathāvat śṛṇu tāni api ||)
--
Meaning :
According to the science of attributes (guṇasaṅkhyānam) i.e. (sāṅkhya-śāstra), in association with and under the influence of these three attributes; namely - 'knowledge' / 'information (jñāna), 'action' (karma) and the 'agent' (kartā) become of the sāttvika, rājasika, or tāmasika kind.
--
Chapter 18, śloka 29,
buddherbhedaṃ dhṛteścaiva
guṇatastrividhaṃ śṛṇu |
procyamānamaśeṣeṇa
pṛthaktvena dhanañjaya ||
--
(buddheḥ bhedam dhṛteḥ ca eva
guṇataḥ trividham śṛṇu |
procyamānam aśeṣeṇa
pṛthaktvena dhañjaya ||)
--
Meaning :
Listen to the three kinds of buddhi (intellect), and dhṛti (tendencies / perceptions of mind), through which the mind functions according to, and under the influence of the three attributes (guṇa), namely sattva, raja and tama.
--
Chapter 18, śloka 36,
sukhaṃ tvidānīṃ trividhaṃ
śruṇu me bharatarṣabha |
abhyāsādramate yatra
duḥkhāntaṃ ca nigacchati ||
--
(sukham tu idānīm trividham
śruṇu me bharatarṣabha |
abhyāsāt ramate yatra
duḥkhāntam ca nigacchati ||)
--
Meaning :
O bharatarṣabha (arjuna)! Now hear from Me about the Happiness that is of three kinds. (The first is: ) Which is achieved and enjoyed through long efforts and practice, where-by the sorrow comes to the final end. And, ...
--
Chapter 18, śloka 45,
sve sve karmaṇyabhirataḥ
saṃsiddhiṃ labhate naraḥ |
svakarmanirataḥ siddhiṃ
yathā vindati tacchruṇu ||
--
(sve sve karmaṇi abhirataḥ
saṃsiddhiṃ labhate naraḥ |
svakarmanirataḥ siddhim
yathā vindati tat śṛṇu ||)
--
Meaning :
When devoted to the ordained duties as advised / instructed by his own 'dharma', one attains the Supreme Goal , perfection. Now listen to, how one attains this, while performing his own duties in the right way,
--
Chapter 18, śloka 64,
sarvaguhyatamaṃ bhūyaḥ
śṛṇu me paramaṃ vacaḥ |
iṣṭo:'si me dṛḍhamiti
tato vakṣyāmi te hitam ||
--
( sarvaguhyatamaṃ bhūyaḥ
śṛṇu me paramaṃ vacaḥ |
iṣṭaḥ asi me dṛḍham iti
tataḥ vakṣyāmi te hitam ||)
--
Meaning :
O Arjuna! Now once again listen to my most secret wisdom that I am revealing before you, for your ultimate good and benefit only, because you are extremely dear to me.
--
________________________
’शृणु ’ / ’śṛṇu’ - सुनो,
अध्याय 2, श्लोक 39,
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥
--
(एषा ते अभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिः योगे तु इमाम् शृणु ।
बुद्ध्या युक्तः यया पार्थ कर्मबन्धम् प्रहास्यसि ॥)
--
भावार्थ :
साँख्य-शास्त्र में इसकी ही शिक्षा दी गई है, इस बुद्धियोग (ज्ञानयोग) के बारे में सुनो । जिससे बुद्धि से युक्त होकर हे पार्थ! तुम कर्मबन्धन को भली-भाँति त्याग दोगे, अर्थात् नष्ट कर दोगे ।
--
अध्याय 7, श्लोक 1,
श्रीभगवानुवाच :
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥
--
(मयि आसक्तमनाः पार्थ योगम् युञ्जन् मदाश्रयः ।
असंशयम् समग्रम् माम् यथा ज्ञास्यसि तत्-शृणु ॥)
--
भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
हे पार्थ (हे अर्जुन)! मुझमें / मेरे प्रेम में निमज्जित-हृदय, मुझमें समर्पित-चित्त होकर मेरा आश्रय लेते हुए, जिस प्रकार से तुम मुझको समग्रतः जान लोगे, उसे सुनो ।
--
अध्याय 10, श्लोक 1,
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥
--
(भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः ।
यत्ते अहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥)
--
भावार्थ :
हे महाबाहु (अर्जुन!) पुनः तुम्हारे लिए प्रिय, मेरे ये श्रेष्ठ वचन सुनो जिन्हें मैं तुम्हारे कल्याण की कामना से तुमसे कहने जा रहा हूँ।
--
अध्याय 13, श्लोक 3,
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् ।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु ॥
--
(तत् क्षेत्रम् यत् च यादृक् च यत् विकारी यतः च यत् ।
सः च यः यत्-प्रभावः च तत् समासेन मे शृणु ॥)
--
भावार्थ :
वह क्षेत्र (जिसे इस अध्याय के प्रथम क्षेत्र में ’शरीर’ कहा गया है) जो कुछ है, और जैसा (उसका स्वरूप और वास्तविकता) है, वह जिसका विकार है, और जिसके, जिस (कारण) से इस विकाररूपी इस क्षेत्र (के रूप) में परिणत हुआ है, वह जो और जैसे प्रभाववाला है, उसका साररूप में वर्णन मुझसे सुनो ।
--
अध्याय 16, श्लोक 6,
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु ॥
--
(द्वौ भूतसर्गौ लोके अस्मिन् दैवः आसुरः एव च ।
दैवः विस्तरशः प्रोक्तः आसुरम् पार्थ मे शृणु ॥)
--
भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन)! इस लोक में दो प्रकार की भूतसृष्टि अर्थात् मनुष्य होते हैं । दैवी प्रवृत्तियुक्त एवं आसुरी प्रवृत्तियुक्त । इनमें से दैवी प्रवृत्तियुक्त लोगों के बारे में विस्तार से कहा, अब आसुरी प्रवृत्तिवाले लोगों के बारे में मुझसे सुनो ।
--
अध्याय 17, श्लोक 2,
--
श्रीभगवान् उवाच :
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥
--
(त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनाम् सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी च-एव तामसी च-इति ताम् शृणु ॥)
--
भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
सभी देहधारियों को स्वभाव से प्राप्त उनकी श्रद्धा, तीन प्रकार की होती है । वह (श्रद्धा) किस प्रकार से सात्त्विकी, राजसी अथवा तामसी होती है, उसे सुनो ।
--
अध्याय 17, श्लोक 7,
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः ।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु ॥
--
(आहारः तु अपि सर्वस्य त्रिविधः भवति प्रियः ।
यज्ञः तपः तथा दानम् तेषाम् भेदम् इमम् शृणु ॥)
--
भावार्थ :
भोजन भी सबको अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार (सात्विक, राजसिक अथवा तामसी) तीन प्रकार से प्रिय होता है । एवं इसी तरह से यज्ञ, तप एवं दान भी (जिन तीन प्रकारों से अपनी अपनी प्रकृति से) किया जाता है, उनके भेद क्या हैं, इसे सुनो ।
--
अध्याय 18, श्लोक 4,
निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ॥
--
(निश्चयम् शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागः हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ॥)
--
भावार्थ :
हे पुरुषश्रेष्ठ, भरतकुलोत्पन्न अर्जुन! (इस अध्याय 18 के प्रथम श्लोक में अर्जुन द्वारा संन्यास और त्याग की जिज्ञासा किए जाने पर) इस संबंध में अब जैसा मेरा सुनिश्चय है और जैसा कहा जाता है, उसे सुनो । त्याग तीन प्रकार का कहा गया है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 19,
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः ।
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ॥
--
(ज्ञानम् कर्म च कर्ता च त्रिधा एव गुणभेदतः ।
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावत् शृणु तानि अपि ॥)
--
भावार्थ :
गुणों की संख्या (तीन गुणों) के आधार पर, ज्ञान, कर्म तथा कर्ता (इनका स्वरूप) गुणों की भिन्नता से, जिस प्रकार से तीन प्रकार का होता है, उसे सुनो ।
--
टिप्पणी :
सत्त्व, रज तथा तम प्रकृति के इन तीन गुणों की भिन्नता के, ज्ञान, कर्म तथा कर्ता पर पड़नेवाले प्रभाव से ज्ञान, कर्म तथा कर्ता सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक हो सकते हैं ।
--
अध्याय 18, श्लोक 29,
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु ।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय ॥
--
(बुद्धेः भेदम् धृतेः च एव गुणतः त्रिविधम् शृणु ।
प्रोच्यमानम् अशेषेण पृथक्त्वेन धञ्जय ॥)
--
भावार्थ : सत्त्व, रज तथा तम इन तीनों गुणों के भेद से होनेवाले बुद्धि तथा धृति के भी उन तीन प्रकार से भेदों को अब क्रमशः सुनो, जिन्हें पृथक्-पृथक् और पूर्णरूपेण से कहा जायेगा ।
--
अध्याय 18, श्लोक 36,
सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ॥
--
(सुखम् तु इदानीम् त्रिविधम् शृणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासात् रमते यत्र दुःखान्तम् च निगच्छति ॥)
--
भावार्थ :
अब हे भरतर्षभ (अर्जुन)! अब तुम मुझसे यह सुनो कि सुख अर्थात् आनन्द (किस तरह से) तीन प्रकार का होता है । (पहला वह) जहाँ मनुष्य (का मन) अभ्यास करते करते ही रमने लगता है और दुःख के अन्त (निरोध) को प्राप्त हो जाता है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 45,
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छ्रुणु ॥
--
(स्वे स्वे कर्मणि अभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिम् यथा विन्दति तत् शृणु ॥)
--
भावार्थ :
कोई भी मनुष्य अपने विशिष्ट कर्मों में तत्परता से युक्त होकर ज्ञान-निष्ठा रूपी संसिद्धि का लाभ प्राप्त कर लेता है । अपने उस विशिष्ट कर्म में लगा रहते हुए उसे ऐसा लाभ कैसे प्राप्त होता है, उसे सुनो ।
--
अध्याय 18, श्लोक 64,
--
सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥
--
(सर्वगुह्यतमम् भूयः शृणु मे परमं वचः ।
इष्टः असि मे दृढम् इति ततः वक्ष्यामि ते हितम् ॥)
--
भावार्थ :
यद्यपि यह ज्ञान सर्वाधिक गूढ और गूढतम है, तथापि मैं पुनः एक बार तुमसे ये तुम्हारे लिए परम हितकारी वचन कह रहा हूँ। मेरे इन वचनों को सुनो ( हे अर्जुन!) क्योंकि तुम मेरे इष्ट हो, दृढ और परम भक्त हो।
--
’शृणु ’ / ’śṛṇu’ - listen to, hear,
Chapter 2, śloka 39,
eṣā te:'bhihitā sāṅkhye
buddhiryoge tvimāṃ śṛṇu |
buddhyā yukto yayā pārtha
karmabandhaṃ prahāsyasi ||
--
(eṣā te abhihitā sāṅkhye
buddhiḥ yoge tu imām śṛṇu |
buddhyā yuktaḥ yayā pārtha
karmabandham prahāsyasi ||)
--
Meaning :
Listen to this Yoga of Wisdom as is dealt with in sāṅkhya-śāstra. Which, having attained by you, you will be able to destroy the bodage of 'karma'.
(Because no one can escape 'karma' / 'action'. But one can sure learn how to perform the 'karma' with right knowledge / wisdom, in such a way so that the bondage may weaken and is ultimately cut asunder, and one is free.)
--
Captter 7, śloka 1,
śrībhagavānuvāca :
mayyāsaktamanāḥ pārtha
yogaṃ yuñjanmadāśrayaḥ |
asaṃśayaṃ samagraṃ māṃ
yathā jñāsyasi tacchṛṇu ||
--
(mayi āsaktamanāḥ pārtha
yogam yuñjan madāśrayaḥ |
asaṃśayam samagram mām
yathā jñāsyasi tat-śṛṇu ||)
--
Meaning :
Now listen to Me, O pārtha (arjuna) ! In earnest love for Me, Having dedicated to Me his whole heart and being, how one is most intimately linked to Me, how through this yoga, one attains and knows Me perfectly and thoroughly, in all My aspects, What I AM, without no trace of doubt.
--
Chapter 10, śloka 1,
bhūya eva mahābāho
śṛṇu me paramaṃ vacaḥ |
yatte:'haṃ prīyamāṇāya
vakṣyāmi hitakāmyayā ||
--
(bhūya eva mahābāho
śṛṇu me paramaṃ vacaḥ |
yatte ahaṃ prīyamāṇāya
vakṣyāmi hitakāmyayā ||)
--
Meaning :
Arjuna! Because you are very dear to me, Listen again to my these Supreme words, that I will say to you, and which will make you very happy, for your benefit.
--
Chapter 13, śloka 3,
tatkṣetraṃ yacca yādṛkca
yadvikāri yataśca yat |
sa ca yo yatprabhāvaśca
tatsamāsena me śṛṇu ||
--
(tat kṣetram yat ca yādṛk ca
yat vikārī yataḥ ca yat |
saḥ ca yaḥ yat-prabhāvaḥ ca
tat samāsena me śruṇu ||)
--
Meaning : Now listen from Me in short about; What is the form and nature of that dwelling place where the 'Self' lives / abides in, what kind is that place in essence and how, why and to what extent it transforms / mutates, and what affects and causes this transformation.
--
Chapter 16, śloka 6,
dvau bhūtasargau loke-
:'smindaiva āsura eva ca |
daivo vistaraśaḥ prokta
āsuraṃ pārtha me śṛṇu ||
--
(dvau bhūtasargau loke
asmin daivaḥ āsuraḥ eva ca |
daivaḥ vistaraśaḥ proktaḥ
āsuram pārtha me śṛṇu ||)
--
Meaning :
pārtha (arjuna)! On this earth, there are two kinds of people, those who have divine tendencies and those who have evil tendencies. So far, the qualities of those of the divine has been described in detail, now listen to the qualities of those who have evil tendencies.
--
Chapter 17, śloka 2,
śrībhagavān uvāca :
trividhā bhavati śraddhā
dehināṃ sā svabhāvajā |
sāttvikī rājasī caiva
tāmasī ceti tāṃ śṛṇu ||
--
(trividhā bhavati śraddhā
dehinām sā svabhāvajā |
sāttvikī rājasī ca-eva
tāmasī ca-iti tāṃ śṛṇu ||)
--
Meaning :
Lord śrīkṛṣṇa said, -
"According to the natural tendencies of the body-mind, the 'trust' associated with them is of three kinds - sāttvikī ( of harmony), rājasika ( of passion) or of tāmasī (of indolence)."
--
Chapter 17, śloka 7,
āhārastvapi sarvasya
trividho bhavati priyaḥ |
yajñastapastathā dānaṃ
teṣāṃ bhedamimaṃ śṛṇu ||
--
(āhāraḥ tu api sarvasya
trividhaḥ bhavati priyaḥ |
yajñaḥ tapaḥ tathā dānam
teṣām bhedam imam śṛṇu ||)
--
Meaning :
The food of all, they like according to their tendencies (prakṛti - sātvika, rājasika tāmasika) is also of three kinds as also the way of sacrifice (yajña), austerities (tapas) and charity (dānaṃ ) performed by them.
--
Chapter 18, śloka 4,
niścayaṃ śṛṇu me tatra
tyāge bharatasattama |
tyāgo hi puruṣavyāghra
trividhaḥ samprakīrtitaḥ ||
--
(niścayam śṛṇu me tatra
tyāge bharatasattama |
tyāgaḥ hi puruṣavyāghra
trividhaḥ samprakīrtitaḥ ||)
--
Meaning :
(To arjuna's question about the difference and between saṃnyāsa and tyāga, in shloka 1 of this chapter 18, śrīkṛṣṇa answers :)
Now listen to my opinion about (saṃnyāsa and tyāga. According to scriptures, tyāga is of three kinds.
--
Chapter 18, śloka 19,
jñānaṃ karma ca kartā ca
tridhaiva guṇabhedataḥ |
procyate guṇasaṅkhyāne
yathāvacchṛṇu tānyapi ||
--
(jñānam karma ca kartā ca
tridhā eva guṇabhedataḥ |
procyate guṇasaṅkhyāne
yathāvat śṛṇu tāni api ||)
--
Meaning :
According to the science of attributes (guṇasaṅkhyānam) i.e. (sāṅkhya-śāstra), in association with and under the influence of these three attributes; namely - 'knowledge' / 'information (jñāna), 'action' (karma) and the 'agent' (kartā) become of the sāttvika, rājasika, or tāmasika kind.
--
Chapter 18, śloka 29,
buddherbhedaṃ dhṛteścaiva
guṇatastrividhaṃ śṛṇu |
procyamānamaśeṣeṇa
pṛthaktvena dhanañjaya ||
--
(buddheḥ bhedam dhṛteḥ ca eva
guṇataḥ trividham śṛṇu |
procyamānam aśeṣeṇa
pṛthaktvena dhañjaya ||)
--
Meaning :
Listen to the three kinds of buddhi (intellect), and dhṛti (tendencies / perceptions of mind), through which the mind functions according to, and under the influence of the three attributes (guṇa), namely sattva, raja and tama.
--
Chapter 18, śloka 36,
sukhaṃ tvidānīṃ trividhaṃ
śruṇu me bharatarṣabha |
abhyāsādramate yatra
duḥkhāntaṃ ca nigacchati ||
--
(sukham tu idānīm trividham
śruṇu me bharatarṣabha |
abhyāsāt ramate yatra
duḥkhāntam ca nigacchati ||)
--
Meaning :
O bharatarṣabha (arjuna)! Now hear from Me about the Happiness that is of three kinds. (The first is: ) Which is achieved and enjoyed through long efforts and practice, where-by the sorrow comes to the final end. And, ...
--
Chapter 18, śloka 45,
sve sve karmaṇyabhirataḥ
saṃsiddhiṃ labhate naraḥ |
svakarmanirataḥ siddhiṃ
yathā vindati tacchruṇu ||
--
(sve sve karmaṇi abhirataḥ
saṃsiddhiṃ labhate naraḥ |
svakarmanirataḥ siddhim
yathā vindati tat śṛṇu ||)
--
Meaning :
When devoted to the ordained duties as advised / instructed by his own 'dharma', one attains the Supreme Goal , perfection. Now listen to, how one attains this, while performing his own duties in the right way,
--
Chapter 18, śloka 64,
sarvaguhyatamaṃ bhūyaḥ
śṛṇu me paramaṃ vacaḥ |
iṣṭo:'si me dṛḍhamiti
tato vakṣyāmi te hitam ||
--
( sarvaguhyatamaṃ bhūyaḥ
śṛṇu me paramaṃ vacaḥ |
iṣṭaḥ asi me dṛḍham iti
tataḥ vakṣyāmi te hitam ||)
--
Meaning :
O Arjuna! Now once again listen to my most secret wisdom that I am revealing before you, for your ultimate good and benefit only, because you are extremely dear to me.
--
No comments:
Post a Comment