आज का श्लोक, ’श्रीः’ / ’śrīḥ’
________________________________
’श्रीः’ / ’śrīḥ’ - समृद्धि, पूर्णता,
अध्याय 10, श्लोक 34,
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥
--
(मृत्युः सर्वहरः च अहम् उद्भवः च भविष्यताम् ।
कीर्तिः श्रीः वाक् च नारीणाम् स्मृतिः मेधा धृतिः क्षमा ॥)
--
भावार्थ :
मैं मृत्यु हूँ जो सब-कुछ अर्थात् प्राणों और जीवन को भी हर लेती है, तथा मैं उद्भव हूँ जो उत्पन्न होनेवालों की उत्पत्ति का हेतु हूँ । तथा कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति धृति, तथा क्षमा अदि के स्त्रीवाचक रूपों में जिसे जाना जाता है, वह भी मैं हूँ ।
--
अध्याय 18, श्लोक 78,
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥
--
(यत्र योगेश्वरः कृष्णः यत्र पार्थः धनुर्धरः ।
तत्र श्रीः विजयः भूतिः ध्रुवा नीतिः मतिः मम ॥)
--
भावार्थ :
(ग्रन्थ के अन्तिम अध्याय के अन्तिम श्लोक में सञ्जय कहते हैं ...,)
जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं तथा जहाँ पार्थ धनुर्धारी (अर्जुन) हैं वहाँ श्री (समृद्धि), विजय (सफलता) तथा विभूति (सार्थकता) तथा अचल नीति है, ऐसा मेरा मत है ।
--
टिप्पणी : ’श्रीः’ का अर्थ कितना गूढ है इसका कुछ अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि ऋग्वेद में श्री-सूक्त तथा ब्रह्म-विद्याओं में श्रीविद्या को अत्यन्त उच्च स्थान प्राप्त है ।
’श्रीः’ / ’śrīḥ’ - prosperity, perfection,
Chapter 10, śloka 34,
mṛtyuḥ sarvaharaścāham-
udbhavaśca bhaviṣyatām |
kīrtiḥ śrīrvākca nārīṇāṃ
smṛtirmedhā dhṛtiḥ kṣamā ||
--
(mṛtyuḥ sarvaharaḥ ca aham
udbhavaḥ ca bhaviṣyatām |
kīrtiḥ śrīḥ vāk ca nārīṇāṃ
smṛtiḥ medhā dhṛtiḥ kṣamā ||)
--
Meaning :
I am the Death that takes away every-thing, and I am the cause of all that would manifest. Glory, Opulence and affluence, the sound primordial, the memory, the Intelligence, the stamina and the potential, -all these feminine aspects (of the Brahman).
--
Chapter 18, śloka 78,
yatra yogeśvaraḥ kṛṣṇo
yatra pārtho dhanurdharaḥ |
tatra śrīrvijayo bhūtir-
dhruvā nītirmatirmama ||
--
(yatra yogeśvaraḥ kṛṣṇaḥ
yatra pārthaḥ dhanurdharaḥ |
tatra śrīḥ vijayaḥ bhūtiḥ
dhruvā nītiḥ matiḥ mama ||)
--
Meaning :
(In the concluding śloka of this text, sañjaya says... :)
Where there is Lord of yoga, yogeśvaraḥ bhagavān kṛṣṇa, Where there is pārtha dhanurdhara (the great archer arjuna wielding the mighty bow), there is prosperity, victory, fulfillment and glory, this is my firm conviction.
--
Note :
The importance of ’श्रीः’ / ’śrīḥ’ could be understood if we see that in ṛgveda, śrī-sūkta and in brahma-vidyā (Supreme Spiritual Wisdom), śrīvidyā are treated as of prime value.
________________________________
’श्रीः’ / ’śrīḥ’ - समृद्धि, पूर्णता,
अध्याय 10, श्लोक 34,
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥
--
(मृत्युः सर्वहरः च अहम् उद्भवः च भविष्यताम् ।
कीर्तिः श्रीः वाक् च नारीणाम् स्मृतिः मेधा धृतिः क्षमा ॥)
--
भावार्थ :
मैं मृत्यु हूँ जो सब-कुछ अर्थात् प्राणों और जीवन को भी हर लेती है, तथा मैं उद्भव हूँ जो उत्पन्न होनेवालों की उत्पत्ति का हेतु हूँ । तथा कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति धृति, तथा क्षमा अदि के स्त्रीवाचक रूपों में जिसे जाना जाता है, वह भी मैं हूँ ।
--
अध्याय 18, श्लोक 78,
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥
--
(यत्र योगेश्वरः कृष्णः यत्र पार्थः धनुर्धरः ।
तत्र श्रीः विजयः भूतिः ध्रुवा नीतिः मतिः मम ॥)
--
भावार्थ :
(ग्रन्थ के अन्तिम अध्याय के अन्तिम श्लोक में सञ्जय कहते हैं ...,)
जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं तथा जहाँ पार्थ धनुर्धारी (अर्जुन) हैं वहाँ श्री (समृद्धि), विजय (सफलता) तथा विभूति (सार्थकता) तथा अचल नीति है, ऐसा मेरा मत है ।
--
टिप्पणी : ’श्रीः’ का अर्थ कितना गूढ है इसका कुछ अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि ऋग्वेद में श्री-सूक्त तथा ब्रह्म-विद्याओं में श्रीविद्या को अत्यन्त उच्च स्थान प्राप्त है ।
’श्रीः’ / ’śrīḥ’ - prosperity, perfection,
Chapter 10, śloka 34,
mṛtyuḥ sarvaharaścāham-
udbhavaśca bhaviṣyatām |
kīrtiḥ śrīrvākca nārīṇāṃ
smṛtirmedhā dhṛtiḥ kṣamā ||
--
(mṛtyuḥ sarvaharaḥ ca aham
udbhavaḥ ca bhaviṣyatām |
kīrtiḥ śrīḥ vāk ca nārīṇāṃ
smṛtiḥ medhā dhṛtiḥ kṣamā ||)
--
Meaning :
I am the Death that takes away every-thing, and I am the cause of all that would manifest. Glory, Opulence and affluence, the sound primordial, the memory, the Intelligence, the stamina and the potential, -all these feminine aspects (of the Brahman).
--
Chapter 18, śloka 78,
yatra yogeśvaraḥ kṛṣṇo
yatra pārtho dhanurdharaḥ |
tatra śrīrvijayo bhūtir-
dhruvā nītirmatirmama ||
--
(yatra yogeśvaraḥ kṛṣṇaḥ
yatra pārthaḥ dhanurdharaḥ |
tatra śrīḥ vijayaḥ bhūtiḥ
dhruvā nītiḥ matiḥ mama ||)
--
Meaning :
(In the concluding śloka of this text, sañjaya says... :)
Where there is Lord of yoga, yogeśvaraḥ bhagavān kṛṣṇa, Where there is pārtha dhanurdhara (the great archer arjuna wielding the mighty bow), there is prosperity, victory, fulfillment and glory, this is my firm conviction.
--
Note :
The importance of ’श्रीः’ / ’śrīḥ’ could be understood if we see that in ṛgveda, śrī-sūkta and in brahma-vidyā (Supreme Spiritual Wisdom), śrīvidyā are treated as of prime value.
No comments:
Post a Comment