आज का श्लोक, ’श्रुत्वा’ / ’śrutvā’
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’श्रुत्वा’ / ’śrutvā’ - सुनकर, श्रवण करने के बाद,
अध्याय 2, श्लोक 29,
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥
--
(आश्चर्वत्-पश्यति कश्चित्-एनम्
आश्चर्वत्-वदति तथा एव च अन्यः ।
आश्चर्यवत् च एनम् अन्यः शृणोति
श्रुत्वा अपि एनम् वेद न च एव कश्चित् ॥)
--
भावार्थ :
(अध्याय 2 के श्लोक 11 से इसकी भूमिका बनी और क्रमशः इसका उपोद्घात और संवर्धन करते हुए प्रस्तुत करते हुए अर्जुन का ध्यान श्लोक 13, 14, 15 के माध्यम से पहले ’देही’ तथा ’धीर’ पर फिर श्लोक 16 में दृष्टा पर, जिसकी अविनाशिता और देहों की नश्वरता को श्लोक 16, 17, 18 में स्पष्ट किया गया और बाद के श्लोकों में कुछ विस्तारपूर्वक किन्तु सारगर्भित रूप में इसका वर्णन किया गया जिस अद्भुत् ’अविनाशी’ तत्व के बारे में भगवान् श्रीकृष्ण प्रस्तुत श्लोक में कहते हैं,...)
इसे कोई तो आश्चर्य से देखता है, इसी तरह से कोई अन्य इसका वर्णन करते हुए आश्चर्य से अभिभूत होता है, और इस वर्णन को सुननेवालों में से कोई इसे उतने ही आश्चर्य के साथ सुनता है, तथापि सुनकर भी कोई इसे जान नहीं पाता ।
--
अध्याय 11, श्लोक 35,
सञ्जय उवाच :
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य
कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी ।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं
सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ॥
--
(एतत् श्रुत्वा वचनं केशवस्य
कृताञ्जलिः वेपमानः किरीटी ।
नमस्कृत्वा भूयः एव आह कृष्णम्
सगद्गदम् भीतभीतः प्रणम्य ॥)
--
भावार्थ :
केशव (विष्णु / हरि / श्रीकृष्ण) के इस वचन को सुनकर, काँपते हुए, किरीटधारी अर्जुन ने हाथ जोड़कर, नमस्कार करते हुए, उन्हें प्रणाम करते हुए, फिर भी अत्यन्त भयभीत होकर, भगवान् श्रीकृष्ण से गद्गद वाणी से ये वचन कहे :
--
अध्याय 13, श्लोक 25,
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः॥
--
(अन्ये तु एवम् अजानन्तः श्रुत्वा अन्येभ्यः उपासते ।
ते अपि च अतितरन्ति एव मृत्युम् श्रुतिपरायणाः ॥)
--
भावार्थ :
[पूर्वोक्त श्लोक 24 में कहा गया, ...
उस परमार्थ / परमात्म तत्त्व को कुछ लोग ध्यान के द्वारा देख पाते हैं, कुछ आत्मा में अर्थात् अपने ही भीतर आत्मा से ही, तथा अन्य साङ्ख्य-योग से (पुरुष-प्रकृति की विवेचना के द्वारा), जबकि अनेक कर्मयोग द्वारा, किन्तु दूसरे, ...]
इसे न जाननेवाले अन्य भी दूसरों से इस तत्त्व के बारे में सुनकर भी इसकी प्राप्ति के लिए प्रयास में संलग्न हो जाते हैं । और वे श्रुतिपरायण, श्रद्धा और ध्यानपूर्वक सुननेवाले भी अवश्य ही मृत्यु का अतिक्रमण कर जाते हैं अर्थात् भव-सागर से तर जाते हैं ।
--
’श्रुत्वा’ / ’śrutvā’ - having heard, listened to,
Chapter 2, śloka 29,
āścaryavatpaśyati kaścidena-
māścaryavadvadati tathaiva cānyaḥ |
āścaryavaccainamanyaḥ śṛṇoti
śrutvāpyenaṃ veda na caiva kaścit ||
--
(āścarvat-paśyati kaścit-enam
āścarvat-vadati tathā eva ca anyaḥ |
āścaryavat ca enam anyaḥ śṛṇoti
śrutvā api enam veda na ca eva kaścit ||)
--
Meaning :
( śloka 11, of this chapter 2 was the starting point that served as the introduction for bringing arjuna's attention to this core-principle. And the same was gradually unfolded, developed and elucidated beautifully through the śloka-s 13 to 29. The principle that is variously termed as ’īśvara’, ’ātman’ ’brahman’, according to those, who knew / realized this principle which defies kind of any description. Beginning with 'the physical body', then of the consciousness associated with the physical body, the attention is brought to the one witness that is even beyond the consciousness, because consciousness is ever in a flux. The witness though is the bridge where-from attention take a jump into Beyond and 'BE' 'THAT', or simply realize the fact that THAT BEYOND is the core-principle which has bean dealt with in many great scriptures, and one has never been other than THAT.)
--
Some (a few those, who have come across this) see This with great awe, few others speak of This with great wonder, few hear to the same in utter wonderment and though many hear about This, no one ever knows This.
--
Note :
As This principle is not a subject to senses, intellect, mind, or speech, sight or hearing. Though one earnest and sincere, has always a way to it (This).
--
Chapter 11, śloka 35,
sañjaya uvāca :
etacchrutvā vacanaṃ keśavasya
kṛtāñjalirvepamānaḥ kirīṭī |
namaskṛtvā bhūya evāha kṛṣṇaṃ
sagadgadaṃ bhītabhītaḥ praṇamya ||
--
(etat śrutvā vacanaṃ keśavasya
kṛtāñjaliḥ vepamānaḥ kirīṭī |
namaskṛtvā bhūyaḥ eva āha kṛṣṇam
sagadgadam bhītabhītaḥ praṇamya ||)
--
Meaning :
sañjaya said :
arjuna, (with his crown upon the head,) trembling with ecstasy and frightened, hearing these words from keśava / śrīkṛṣṇa, prostrated with joined palms before the Lord once again, spoke thus to Him in a choked voice, ...
--
Chapter 13, śloka 25,
anye tvevamajānantaḥ
śrutvānyebhya upāsate |
te:'pi cātitarantyeva
mṛtyuṃ śrutiparāyaṇāḥ||
--
(anye tu evam ajānantaḥ
śrutvā anyebhyaḥ upāsate |
te api ca atitaranti eva
mṛtyum śrutiparāyaṇāḥ ||)
--
Meaning :
(In the last śloka 24 of this chapter we read :
Some see This Reality by way of meditation (attention) to it, another try to find out the same by themselves as ever-present within their own Heart. While few others attain This by way of deduction of puruṣa and prakṛti as is shown in sāṅkhya, ..)
Yet, there are a few who reach This Reality by hearing only the words of the Realized either through scriptures or by oral teachings. And they to cross-over the ocean of death and attain the Being Immortal.
--
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’श्रुत्वा’ / ’śrutvā’ - सुनकर, श्रवण करने के बाद,
अध्याय 2, श्लोक 29,
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥
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(आश्चर्वत्-पश्यति कश्चित्-एनम्
आश्चर्वत्-वदति तथा एव च अन्यः ।
आश्चर्यवत् च एनम् अन्यः शृणोति
श्रुत्वा अपि एनम् वेद न च एव कश्चित् ॥)
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भावार्थ :
(अध्याय 2 के श्लोक 11 से इसकी भूमिका बनी और क्रमशः इसका उपोद्घात और संवर्धन करते हुए प्रस्तुत करते हुए अर्जुन का ध्यान श्लोक 13, 14, 15 के माध्यम से पहले ’देही’ तथा ’धीर’ पर फिर श्लोक 16 में दृष्टा पर, जिसकी अविनाशिता और देहों की नश्वरता को श्लोक 16, 17, 18 में स्पष्ट किया गया और बाद के श्लोकों में कुछ विस्तारपूर्वक किन्तु सारगर्भित रूप में इसका वर्णन किया गया जिस अद्भुत् ’अविनाशी’ तत्व के बारे में भगवान् श्रीकृष्ण प्रस्तुत श्लोक में कहते हैं,...)
इसे कोई तो आश्चर्य से देखता है, इसी तरह से कोई अन्य इसका वर्णन करते हुए आश्चर्य से अभिभूत होता है, और इस वर्णन को सुननेवालों में से कोई इसे उतने ही आश्चर्य के साथ सुनता है, तथापि सुनकर भी कोई इसे जान नहीं पाता ।
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अध्याय 11, श्लोक 35,
सञ्जय उवाच :
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य
कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी ।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं
सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ॥
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(एतत् श्रुत्वा वचनं केशवस्य
कृताञ्जलिः वेपमानः किरीटी ।
नमस्कृत्वा भूयः एव आह कृष्णम्
सगद्गदम् भीतभीतः प्रणम्य ॥)
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भावार्थ :
केशव (विष्णु / हरि / श्रीकृष्ण) के इस वचन को सुनकर, काँपते हुए, किरीटधारी अर्जुन ने हाथ जोड़कर, नमस्कार करते हुए, उन्हें प्रणाम करते हुए, फिर भी अत्यन्त भयभीत होकर, भगवान् श्रीकृष्ण से गद्गद वाणी से ये वचन कहे :
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अध्याय 13, श्लोक 25,
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः॥
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(अन्ये तु एवम् अजानन्तः श्रुत्वा अन्येभ्यः उपासते ।
ते अपि च अतितरन्ति एव मृत्युम् श्रुतिपरायणाः ॥)
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भावार्थ :
[पूर्वोक्त श्लोक 24 में कहा गया, ...
उस परमार्थ / परमात्म तत्त्व को कुछ लोग ध्यान के द्वारा देख पाते हैं, कुछ आत्मा में अर्थात् अपने ही भीतर आत्मा से ही, तथा अन्य साङ्ख्य-योग से (पुरुष-प्रकृति की विवेचना के द्वारा), जबकि अनेक कर्मयोग द्वारा, किन्तु दूसरे, ...]
इसे न जाननेवाले अन्य भी दूसरों से इस तत्त्व के बारे में सुनकर भी इसकी प्राप्ति के लिए प्रयास में संलग्न हो जाते हैं । और वे श्रुतिपरायण, श्रद्धा और ध्यानपूर्वक सुननेवाले भी अवश्य ही मृत्यु का अतिक्रमण कर जाते हैं अर्थात् भव-सागर से तर जाते हैं ।
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’श्रुत्वा’ / ’śrutvā’ - having heard, listened to,
Chapter 2, śloka 29,
āścaryavatpaśyati kaścidena-
māścaryavadvadati tathaiva cānyaḥ |
āścaryavaccainamanyaḥ śṛṇoti
śrutvāpyenaṃ veda na caiva kaścit ||
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(āścarvat-paśyati kaścit-enam
āścarvat-vadati tathā eva ca anyaḥ |
āścaryavat ca enam anyaḥ śṛṇoti
śrutvā api enam veda na ca eva kaścit ||)
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Meaning :
( śloka 11, of this chapter 2 was the starting point that served as the introduction for bringing arjuna's attention to this core-principle. And the same was gradually unfolded, developed and elucidated beautifully through the śloka-s 13 to 29. The principle that is variously termed as ’īśvara’, ’ātman’ ’brahman’, according to those, who knew / realized this principle which defies kind of any description. Beginning with 'the physical body', then of the consciousness associated with the physical body, the attention is brought to the one witness that is even beyond the consciousness, because consciousness is ever in a flux. The witness though is the bridge where-from attention take a jump into Beyond and 'BE' 'THAT', or simply realize the fact that THAT BEYOND is the core-principle which has bean dealt with in many great scriptures, and one has never been other than THAT.)
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Some (a few those, who have come across this) see This with great awe, few others speak of This with great wonder, few hear to the same in utter wonderment and though many hear about This, no one ever knows This.
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Note :
As This principle is not a subject to senses, intellect, mind, or speech, sight or hearing. Though one earnest and sincere, has always a way to it (This).
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Chapter 11, śloka 35,
sañjaya uvāca :
etacchrutvā vacanaṃ keśavasya
kṛtāñjalirvepamānaḥ kirīṭī |
namaskṛtvā bhūya evāha kṛṣṇaṃ
sagadgadaṃ bhītabhītaḥ praṇamya ||
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(etat śrutvā vacanaṃ keśavasya
kṛtāñjaliḥ vepamānaḥ kirīṭī |
namaskṛtvā bhūyaḥ eva āha kṛṣṇam
sagadgadam bhītabhītaḥ praṇamya ||)
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Meaning :
sañjaya said :
arjuna, (with his crown upon the head,) trembling with ecstasy and frightened, hearing these words from keśava / śrīkṛṣṇa, prostrated with joined palms before the Lord once again, spoke thus to Him in a choked voice, ...
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Chapter 13, śloka 25,
anye tvevamajānantaḥ
śrutvānyebhya upāsate |
te:'pi cātitarantyeva
mṛtyuṃ śrutiparāyaṇāḥ||
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(anye tu evam ajānantaḥ
śrutvā anyebhyaḥ upāsate |
te api ca atitaranti eva
mṛtyum śrutiparāyaṇāḥ ||)
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Meaning :
(In the last śloka 24 of this chapter we read :
Some see This Reality by way of meditation (attention) to it, another try to find out the same by themselves as ever-present within their own Heart. While few others attain This by way of deduction of puruṣa and prakṛti as is shown in sāṅkhya, ..)
Yet, there are a few who reach This Reality by hearing only the words of the Realized either through scriptures or by oral teachings. And they to cross-over the ocean of death and attain the Being Immortal.
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