Thursday, July 31, 2014

आज का श्लोक, ’शान्तिः’ / ’śāntiḥ’

आज का श्लोक, ’शान्तिः’ / ’śāntiḥ’
___________________________

’शान्तिः’ / ’śāntiḥ’ - शान्ति,

अध्याय 2, श्लोक 66,

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ।
-
( न अस्ति बुद्धिः अयुक्तस्य न च अयुक्तस्य भावना ।
न च अभावयतः शान्तिः अशान्तस्य कुतः सुखम् ॥)
--
भावार्थ :
योगरहित मनुष्य में (निश्चयात्मक) बुद्धि नहीं होती, उसकी बुद्धि चञ्चल और अस्थिर, होती है । योगरहित मनुष्य के अन्तःकरण में भावना अर्थात् किसी से भी स्नेह भी नहीं होता । भावना से रहित होने से उसके हृदय में शान्ति (आत्म-सन्तुष्टिरूपी भावना) भी नहीं होती, और अशान्त को भला सुख कैसे अनुभव हो सकता है?
--
अध्याय 12, श्लोक 12,

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
--
(श्रेयः हि ज्ञानम् अभ्यासात् ज्ञानात् ध्यानम् विशिष्यते ।
ध्यानात् कर्मफल-त्यागः त्यागात् शान्तिः अनन्तरम् ॥)
--
भावार्थ :
किसी विषय का ज्ञान होने पर उसका अभ्यास करना, उसके ज्ञान से रहित अभ्यास किए जाने से श्रेष्ठ है, पुनः केवल (बौद्धिक या सैद्धान्तिक) ज्ञान की अपेक्षा ध्यान (ध्यानपूर्वक चित्त को विषय पर लगाना), अधिक श्रेष्ठ है । किन्तु ध्यान की भी अपेक्षा कर्मफल (से आसक्ति) का त्याग सर्वाधिक श्रेष्ठ है, उस त्याग से तत्काल ही वास्तविक शान्ति प्राप्त होती है ।
--
अध्याय 16, श्लोक 2,

अहिंसासत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥
--
(अहिंसा सत्यम् अक्रोधः त्यागः शान्तिः अपैशुनम् ।
दया भूतेषु अलोलुप्त्वम् मार्दवम् ह्रीः अचापलम् ॥)
--
भावार्थ :
इस अध्याय के प्रथम श्लोक में दैवी सम्पदाओं का वर्णन किया गया, इसी क्रम में आगे और दूसरे श्लोक में कहा गया, ...
अहिंसा अर्थात् सब भूतों मे उसी एक परमेश्वर को जानकर किसी के प्रति मन वचन कर्म से हिंसा न करना ।
सत्य अर्थात् नित्य वस्तु की पहचान, अक्रोध अर्थात् रोष न होना, त्याग अर्थात् सब परमेश्वर का समझते हुए सांसारिक वस्तुओं पर आधिपत्य की भावना न रखना, शान्ति अर्थात् मन की अचंचलता और धैर्य, अपैशुनम् अर्थात् किसी के प्रति द्वेष / घृणा न रखना, दया अर्थात् करुणा, सबके प्रति संवेदनशीलता, अलोलुपता अर्थात् इन्द्रियों का विषयों से संयोग होने पर प्राप्त होने वाले सुख-दुख से प्रभावित न होना, मार्दवम्  - अर्थात् अर्थात् मृदुता, कठोरता या क्रूरता का विपरीत, ह्री अर्थात् अनैतिक कार्य करने में लज्जा होना, और अचापलम् अर्थात् व्यर्थ चेष्टाओं में संलग्न न होना,  
--

’शान्तिः’ / ’śāntiḥ’ - peace, tranquility,

Chapter 2, śloka 66,

nāsti buddhirayuktasya
na cāyuktasya bhāvanā |
na cābhāvayataḥ śāntir-
aśāntasya kutaḥ sukham |
-
( na asti buddhiḥ ayuktasya
na ca ayuktasya bhāvanā |
na ca abhāvayataḥ śāntiḥ 
aśāntasya kutaḥ sukham ||)
--
Meaning :
One who has no right understanding (yoga, contact / association with the goal) has no inspiration. One who has no inspiration has no peace, and how one with no peace may find happiness?
--
Chapter 12, śloka 12,

śreyo hi jñānamabhyāsāj-
jñānāddhyānaṃ viśiṣyate |
dhyānātkarmaphalatyāgas-
tyāgācchāntiranantaram ||
--
(śreyaḥ hi jñānam abhyāsāt
jñānāt dhyānam viśiṣyate |
dhyānāt karmaphala-tyāgaḥ
tyāgāt śāntiḥ anantaram ||)
--
Meaning :
(Spiritual) Practice with knowledge is better than practice without knowledge, and attention (dhyāna) and consciousness, meditation and awareness of this consciousness / 'self ' / 'Self' is far better than that (practice). But the renunciation of the fruits of action (karmaphalatyāga) / desireless-ness is the best, through which the peace-supreme is attained in no time.
--
Chapter 16, śloka 2,

ahiṃsāsatyamakrodhas-
tyāgaḥ śāntirapaiśunam |
dayā bhūteṣvaloluptvaṃ
mārdavaṃ hrīracāpalam ||
--
(ahiṃsā satyam akrodhaḥ
tyāgaḥ śāntiḥ apaiśunam |
dayā bhūteṣu aloluptvam
mārdavam hrīḥ acāpalam ||)
--
Meaning :
The divine assets / attributes / qualities (daivī sampadā)  that indicate one's progress on the spiritual path have been enumerated in the  śloka  1 of this Chapter 16. The next are as in this  śloka  2 as given below :
compassion   (ahiṃsā),  truth (satyam),  not being overcome by anger  (akrodhaḥ),  renunciation (tyāgaḥ), peaceful temperament  (śāntiḥ),  absence of vilification / hatred / envy (apaiśunam),  generosity, kindness towards all  (dayā  bhūteṣu),   absence of cravings (aloluptvam),  gentleness  (mārdavam),  modesty (hrīḥ),  absence of fickle mindedness (acāpalam)
--

No comments:

Post a Comment