आज का श्लोक, ’श्रोत्रादीनि’ / ’śrotrādīni’
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’श्रोत्रादीनि’ / ’śrotrādīni’ - श्रोत्र आदि (इन्द्रियाँ),
अध्याय 4, श्लोक 26,
श्रोत्रादीनिन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥
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(श्रोत्रादीनि-इन्द्रियाणि-अन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
शब्द-आदीन्-विषयान्-अन्ये इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥)
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भावार्थ :
यज्ञ और हवन का व्यापक अर्थ प्रस्तुत अध्याय 4 के श्लोक 24 में कहा गया है । और श्लोक 32, 33 में भी यज्ञ के तात्पर्य और महिमा का संक्षेप में पुनः वर्णन है । यज्ञ के ही दो रूप ये हैं जिसमें कुछ तो श्रोत्र आदि इन्द्रियों का हवन संयम रूपी अग्नि में करते हैं, जिसका तात्पर्य है इन्द्रियों को भोग की प्रवृत्ति से हटाकर त्याग की दिशा में प्रवृत्त रखना । जबकि कुछ दूसरे इसी प्रकार, शब्द, स्पर्श आदि पञ्च-तन्मात्राओं का हवन इन्द्रिय-रूपी अग्नि में करते हैं, जिसका तात्पर्य है इन्द्रियों को उन विषयों में न जाने देकर उन विषयों को ही इन्द्रियों में लीन कर देना ।
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’श्रोत्रादीनि’ / ’śrotrādīni’ - the ears and the other sense-organs,
Chapter 4, śloka 26,
śrotrādīnindriyāṇyanye
saṃyamāgniṣu juhvati |
śabdādīnviṣayānanya
indriyāgniṣu juhvati ||
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(śrotrādīni-indriyāṇi-anye
saṃyamāgniṣu juhvati |
śabda-ādīn-viṣayān-anye
indriyāgniṣu juhvati ||)
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Meaning :
The form nature, deeper meaning and significance of yajña / havana has been elaborated in the śloka 24 onward of this Chapter 4.
Few perform this yajña / havana through the sacrifice of sense-organs into the fire of restraint, while others through the sacrifice of the 5 kinds of sensory-perceptions (tanmātrā), into the fire of senses.
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’श्रोत्रादीनि’ / ’śrotrādīni’ - श्रोत्र आदि (इन्द्रियाँ),
अध्याय 4, श्लोक 26,
श्रोत्रादीनिन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥
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(श्रोत्रादीनि-इन्द्रियाणि-अन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
शब्द-आदीन्-विषयान्-अन्ये इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥)
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भावार्थ :
यज्ञ और हवन का व्यापक अर्थ प्रस्तुत अध्याय 4 के श्लोक 24 में कहा गया है । और श्लोक 32, 33 में भी यज्ञ के तात्पर्य और महिमा का संक्षेप में पुनः वर्णन है । यज्ञ के ही दो रूप ये हैं जिसमें कुछ तो श्रोत्र आदि इन्द्रियों का हवन संयम रूपी अग्नि में करते हैं, जिसका तात्पर्य है इन्द्रियों को भोग की प्रवृत्ति से हटाकर त्याग की दिशा में प्रवृत्त रखना । जबकि कुछ दूसरे इसी प्रकार, शब्द, स्पर्श आदि पञ्च-तन्मात्राओं का हवन इन्द्रिय-रूपी अग्नि में करते हैं, जिसका तात्पर्य है इन्द्रियों को उन विषयों में न जाने देकर उन विषयों को ही इन्द्रियों में लीन कर देना ।
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’श्रोत्रादीनि’ / ’śrotrādīni’ - the ears and the other sense-organs,
Chapter 4, śloka 26,
śrotrādīnindriyāṇyanye
saṃyamāgniṣu juhvati |
śabdādīnviṣayānanya
indriyāgniṣu juhvati ||
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(śrotrādīni-indriyāṇi-anye
saṃyamāgniṣu juhvati |
śabda-ādīn-viṣayān-anye
indriyāgniṣu juhvati ||)
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Meaning :
The form nature, deeper meaning and significance of yajña / havana has been elaborated in the śloka 24 onward of this Chapter 4.
Few perform this yajña / havana through the sacrifice of sense-organs into the fire of restraint, while others through the sacrifice of the 5 kinds of sensory-perceptions (tanmātrā), into the fire of senses.
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