आज का श्लोक, ’शुचिः’ / ’śuciḥ’
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’शुचिः’ / ’śuciḥ’ - शुद्ध, स्वच्छ, निर्मल,
अध्याय 12, श्लोक 16,
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥
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(अनपेक्षः शुचिः दक्षः उदासीनः गतव्यथः ।
सर्व-आरम्भ-परित्यागी यः मद्भक्तः सः मे प्रियः ॥)
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भावार्थ :
जो किसी भी आकाङ्क्षा से रहित, बाहर-भीतर की शुद्धता के प्रति सजग, पक्षपात से रहित है, जिसकी व्यथाएँ विलीन हो चुकी हैं, जो कर्तृत्व ('मैं कर्ता हूँ' - इस) प्रकार की बुद्धि / आग्रह से ग्रस्त नहीं है, ऐसा मेरा भक्त, मुझे प्रिय है ।
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’शुचिः’ / ’śuciḥ’ -pure and clean,
Chapter 12, śloka 16,
anapekṣaḥ śucirdakṣa
udāsīno gatavyathaḥ |
sarvārambhaparityāgī
yo madbhaktaḥ sa me priyaḥ ||
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(anapekṣaḥ śuciḥ dakṣaḥ
udāsīnaḥ gatavyathaḥ |
sarva-ārambha-parityāgī
yaḥ madbhaktaḥ saḥ me priyaḥ ||)
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Meaning :
One who expects nothing, pure and clean in life, heart and mind, careful, unattached, has overcome misery, Takes no initiative in any enterprise (since has got rid of the sense, 'I do, and actions are done by me'.), such a devotee is beloved to Me.
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