आज का श्लोक,
’शीतोष्णसुखदुःखदाः’ / ’śītoṣṇasukhaduḥkhadāḥ’
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’शीतोष्णसुखदुःखदाः’ / ’śītoṣṇasukhaduḥkhadāḥ’
अध्याय 2, श्लोक 14,
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥
--
(मात्रास्पर्शाः तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनः अनित्याः तान् तितिक्षस्व भारत ॥)
--
भावार्थ : विषयों से इन्द्रियों के स्पर्शमात्र जो शीत और ऊष्णता, सुख अथवा दुख (की प्रतीति) देनेवाले होते हैं, आने और चले जानेवाले और (इसलिए) अनित्य होते हैं । हे भारत (अर्जुन), उनके प्रति तितिक्षा का व्यवहार करो ।
--
टिप्पणी :
1. तितिक्षा क्या है?
’सहनं सर्वदुःखानामप्रतीकारपूर्वकम् ।
चिन्ताविलापरहितं सा तितिक्षा निगद्यते ।"
(विवेकचूडामणि, 24)
अर्थात् अनायास प्राप्त होनेवाले समस्त दुःखों का प्रतिरोध न करते हुए, उनकी चिन्ता या शोक न करते हुए उन्हें शान्तिपूर्वक सह लेना, इसे ही तितिक्षा कहा जाता है ।
2. तितिक्षा के अभ्यास से शीत-ऊष्णता, सुख-दुःख आदि ये द्वन्द्व चित्त को व्यथित नहीं करते, इस अध्याय 2 के अगले ही श्लोक 15 कहा गया है कि जिसे ये व्यथित नहीं करते वह धीर अमृतत्व को प्राप्त होता है ।
अध्याय 2, श्लोक 15,
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
--
(यम् हि न व्यथयन्ति एते पुरुषम् पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखम् धीरम् सः अमृतत्वाय कल्पते ॥)
--
भावार्थ :
और जिस पुरुष को ये द्वन्द्व व्यथित नहीं कर पाते, हे पुरुषश्रेष्ठ (अर्जुन)! दुःख अथवा सुख के प्रति समभाव रखनेवाला ऐसा धैर्यशील पुरुष अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है ।
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’शीतोष्णसुखदुःखदाः’ / ’śītoṣṇasukhaduḥkhadāḥ’ - feelings of opposites like heat and cold, pleasure and pain,
Chapter 2, śloka 14,
mātrāsparśāstu kaunteya
śītoṣṇasukhaduḥkhadāḥ |
āgamāpāyino:'nityās-
tāṃstitikṣasva bhārata ||
--
(mātrāsparśāḥ tu kaunteya
śītoṣṇasukhaduḥkhadāḥ |
āgamāpāyinaḥ anityāḥ
tān titikṣasva bhārata ||)
--
Meaning :
The perceptions of heat and cold, pleasure and pain, caused by the contacts of the senses with their respective objects are appearances and transient. O bhārata (arjuna)! Bear with them (tān titikṣasva) with due patience (dhairyam) .
--
Note :
1 titikṣā (endurance) is the attitude towards the conflicts like heat and cold, pleasure and pain. One who is strong enough to face with them with calm and is no more perturbed by them attains the immortality / the deathless (amṛtatva). The same has been elaborated in the very next śloka 15 of this chapter 2 of śrīmadbhagvadgītā.
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Chapter 2, śloka 15,
yaṃ hi na vyathayantyete
puruṣaṃ puruṣarṣabha |
samaduḥkhasukhaṃ dhīraṃ
so:'mṛtatvāya kalpate ||
--
(yam hi na vyathayanti ete
puruṣam puruṣarṣabha |
samaduḥkhasukham dhīram
saḥ amṛtatvāya kalpate ||)
--
Meaning : O noble among the men, One who is not tormented by these two (the contact of the senses with their specific objects), who is unmoved when coming across pleasures and pains caused by them, sure wins the state of immortality / liberation.
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’शीतोष्णसुखदुःखदाः’ / ’śītoṣṇasukhaduḥkhadāḥ’
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’शीतोष्णसुखदुःखदाः’ / ’śītoṣṇasukhaduḥkhadāḥ’
अध्याय 2, श्लोक 14,
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥
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(मात्रास्पर्शाः तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनः अनित्याः तान् तितिक्षस्व भारत ॥)
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भावार्थ : विषयों से इन्द्रियों के स्पर्शमात्र जो शीत और ऊष्णता, सुख अथवा दुख (की प्रतीति) देनेवाले होते हैं, आने और चले जानेवाले और (इसलिए) अनित्य होते हैं । हे भारत (अर्जुन), उनके प्रति तितिक्षा का व्यवहार करो ।
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टिप्पणी :
1. तितिक्षा क्या है?
’सहनं सर्वदुःखानामप्रतीकारपूर्वकम् ।
चिन्ताविलापरहितं सा तितिक्षा निगद्यते ।"
(विवेकचूडामणि, 24)
अर्थात् अनायास प्राप्त होनेवाले समस्त दुःखों का प्रतिरोध न करते हुए, उनकी चिन्ता या शोक न करते हुए उन्हें शान्तिपूर्वक सह लेना, इसे ही तितिक्षा कहा जाता है ।
2. तितिक्षा के अभ्यास से शीत-ऊष्णता, सुख-दुःख आदि ये द्वन्द्व चित्त को व्यथित नहीं करते, इस अध्याय 2 के अगले ही श्लोक 15 कहा गया है कि जिसे ये व्यथित नहीं करते वह धीर अमृतत्व को प्राप्त होता है ।
अध्याय 2, श्लोक 15,
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
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(यम् हि न व्यथयन्ति एते पुरुषम् पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखम् धीरम् सः अमृतत्वाय कल्पते ॥)
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भावार्थ :
और जिस पुरुष को ये द्वन्द्व व्यथित नहीं कर पाते, हे पुरुषश्रेष्ठ (अर्जुन)! दुःख अथवा सुख के प्रति समभाव रखनेवाला ऐसा धैर्यशील पुरुष अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है ।
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’शीतोष्णसुखदुःखदाः’ / ’śītoṣṇasukhaduḥkhadāḥ’ - feelings of opposites like heat and cold, pleasure and pain,
Chapter 2, śloka 14,
mātrāsparśāstu kaunteya
śītoṣṇasukhaduḥkhadāḥ |
āgamāpāyino:'nityās-
tāṃstitikṣasva bhārata ||
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(mātrāsparśāḥ tu kaunteya
śītoṣṇasukhaduḥkhadāḥ |
āgamāpāyinaḥ anityāḥ
tān titikṣasva bhārata ||)
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Meaning :
The perceptions of heat and cold, pleasure and pain, caused by the contacts of the senses with their respective objects are appearances and transient. O bhārata (arjuna)! Bear with them (tān titikṣasva) with due patience (dhairyam) .
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Note :
1 titikṣā (endurance) is the attitude towards the conflicts like heat and cold, pleasure and pain. One who is strong enough to face with them with calm and is no more perturbed by them attains the immortality / the deathless (amṛtatva). The same has been elaborated in the very next śloka 15 of this chapter 2 of śrīmadbhagvadgītā.
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Chapter 2, śloka 15,
yaṃ hi na vyathayantyete
puruṣaṃ puruṣarṣabha |
samaduḥkhasukhaṃ dhīraṃ
so:'mṛtatvāya kalpate ||
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(yam hi na vyathayanti ete
puruṣam puruṣarṣabha |
samaduḥkhasukham dhīram
saḥ amṛtatvāya kalpate ||)
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Meaning : O noble among the men, One who is not tormented by these two (the contact of the senses with their specific objects), who is unmoved when coming across pleasures and pains caused by them, sure wins the state of immortality / liberation.
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