आज का श्लोक, ’शुचीनाम्’ / ’śucīnām’
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’शुचीनाम्’ / ’śucīnām’ - शुद्ध मन-अन्तःकरणवाले,
अध्याय 6, श्लोक 41,
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥
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(प्राप्य पुण्यकृताम् लोकान् उषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनाम् श्रीमताम् गेहे योगभ्रष्टः अभिजायते ॥)
--
भावार्थ :
(जैसा कि पूर्वश्लोक क्रमांक 40 में कहा, श्रद्धावान् किन्तु चञ्चल मनवाले, योग में अस्थिरतापूर्वक संलग्न योगाभ्यासी का न तो इस लोक में और न मरणोत्तर प्राप्त होनेवाले लोक में विनाश होता है, हाँ वह कुछ समय के लिए मार्गच्युत हो सकता है किन्तु, फिर...)
उत्तम लोकों को प्राप्त होकर, वहाँ बहुत काल तक निवास करने के बाद, शुद्ध आचरणवाले गृहस्थ के कुल में जन्म लेता है ।
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’शुचीनाम्’ / ’śucīnām’ - of serene attitude,
Chapter 6, śloka 41,
prāpya puṇyakṛtāṃ lokān-
uṣitvā śāśvatīḥ samāḥ |
śucīnāṃ śrīmatāṃ gehe
yogabhraṣṭo:'bhijāyate ||
--
(prāpya puṇyakṛtām lokān
uṣitvā śāśvatīḥ samāḥ |
śucīnām śrīmatām gehe
yogabhraṣṭaḥ abhijāyate ||)
--
Meaning :
In the preceding śloka-s 37, 38, 39 and 40, arjuna raised a doubt about the state of one practicing yoga with due trust, but because of the unsteady mind fails to attain the goal, because of the unsteady mind. To which bhagavān śrīkṛṣṇa replies :
Such a man after living for many years (according to his good deeds before death in the previous life) in the worlds of higher realms (loka-s - like those of heavens), gets the next birth in the family of men of pure and chaste minds.
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’शुचीनाम्’ / ’śucīnām’ - शुद्ध मन-अन्तःकरणवाले,
अध्याय 6, श्लोक 41,
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥
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(प्राप्य पुण्यकृताम् लोकान् उषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनाम् श्रीमताम् गेहे योगभ्रष्टः अभिजायते ॥)
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भावार्थ :
(जैसा कि पूर्वश्लोक क्रमांक 40 में कहा, श्रद्धावान् किन्तु चञ्चल मनवाले, योग में अस्थिरतापूर्वक संलग्न योगाभ्यासी का न तो इस लोक में और न मरणोत्तर प्राप्त होनेवाले लोक में विनाश होता है, हाँ वह कुछ समय के लिए मार्गच्युत हो सकता है किन्तु, फिर...)
उत्तम लोकों को प्राप्त होकर, वहाँ बहुत काल तक निवास करने के बाद, शुद्ध आचरणवाले गृहस्थ के कुल में जन्म लेता है ।
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’शुचीनाम्’ / ’śucīnām’ - of serene attitude,
Chapter 6, śloka 41,
prāpya puṇyakṛtāṃ lokān-
uṣitvā śāśvatīḥ samāḥ |
śucīnāṃ śrīmatāṃ gehe
yogabhraṣṭo:'bhijāyate ||
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(prāpya puṇyakṛtām lokān
uṣitvā śāśvatīḥ samāḥ |
śucīnām śrīmatām gehe
yogabhraṣṭaḥ abhijāyate ||)
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Meaning :
In the preceding śloka-s 37, 38, 39 and 40, arjuna raised a doubt about the state of one practicing yoga with due trust, but because of the unsteady mind fails to attain the goal, because of the unsteady mind. To which bhagavān śrīkṛṣṇa replies :
Such a man after living for many years (according to his good deeds before death in the previous life) in the worlds of higher realms (loka-s - like those of heavens), gets the next birth in the family of men of pure and chaste minds.
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