आज का श्लोक, ’सक्तम्’ / ’saktam’
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’सक्तम्’ / ’saktam’ - आसक्त, लिप्त,
अध्याय 18, श्लोक 22,
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् ।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् ॥
--
(यत् तु कृत्स्नवत् एकस्मिन् कार्ये सक्तम् अहैतुकम् ।
अतत्त्वार्थवत् अल्पम् तत् तामसम् उदाहृतम् ॥)
--
भावार्थ :
जो ज्ञान अविवेकपूर्वक और अकारण एक ही कार्य में पूर्णतः आसक्त कर देता है, जिसका कोई सुनिश्चित लक्ष्य भी ज्ञात नहीं होता, और जो निरर्थक या अत्यन्त क्षुद्र प्रयोजनवाला होता है, उस ज्ञान को तामस की संज्ञा दी जाती है ।
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टिप्पणी :
1.पूर्व के श्लोकों 20 तथा 21 में क्रमशः सात्त्विक एवं राजसिक ज्ञान के लक्षण बतलाए गए । इसी क्रम में आगे प्रस्तुत श्लोक 22 में ’यत्’ का प्रयोग ’ज्ञान’ के लिए किया गया है ।
2.ग्रन्थ के शाङ्कर-भाष्य में ’कार्य’ का अर्थ देह या प्रतिमा कहा गया है ।
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’सक्तम्’ / ’saktam’ - attached to,
Chapter 18, śloka 22,
yattu kṛtsnavadekasmin-
kārye saktamahaitukam |
atattvārthavadalpaṃ ca
tattāmasamudāhṛtam ||
--
(yat tu kṛtsnavat ekasmin
kārye saktam ahaitukam |
atattvārthavat alpam tat
tāmasam udāhṛtam ||)
--
Meaning :
The knowledge (jñāna) that is completely centered about a single object only, which has no sound reason or a clear purpose, or has an insignificant one only, which lacks a deeper meaning, is termed as 'tāmasam'.
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’सक्तम्’ / ’saktam’ - आसक्त, लिप्त,
अध्याय 18, श्लोक 22,
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् ।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् ॥
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(यत् तु कृत्स्नवत् एकस्मिन् कार्ये सक्तम् अहैतुकम् ।
अतत्त्वार्थवत् अल्पम् तत् तामसम् उदाहृतम् ॥)
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भावार्थ :
जो ज्ञान अविवेकपूर्वक और अकारण एक ही कार्य में पूर्णतः आसक्त कर देता है, जिसका कोई सुनिश्चित लक्ष्य भी ज्ञात नहीं होता, और जो निरर्थक या अत्यन्त क्षुद्र प्रयोजनवाला होता है, उस ज्ञान को तामस की संज्ञा दी जाती है ।
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टिप्पणी :
1.पूर्व के श्लोकों 20 तथा 21 में क्रमशः सात्त्विक एवं राजसिक ज्ञान के लक्षण बतलाए गए । इसी क्रम में आगे प्रस्तुत श्लोक 22 में ’यत्’ का प्रयोग ’ज्ञान’ के लिए किया गया है ।
2.ग्रन्थ के शाङ्कर-भाष्य में ’कार्य’ का अर्थ देह या प्रतिमा कहा गया है ।
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’सक्तम्’ / ’saktam’ - attached to,
Chapter 18, śloka 22,
yattu kṛtsnavadekasmin-
kārye saktamahaitukam |
atattvārthavadalpaṃ ca
tattāmasamudāhṛtam ||
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(yat tu kṛtsnavat ekasmin
kārye saktam ahaitukam |
atattvārthavat alpam tat
tāmasam udāhṛtam ||)
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Meaning :
The knowledge (jñāna) that is completely centered about a single object only, which has no sound reason or a clear purpose, or has an insignificant one only, which lacks a deeper meaning, is termed as 'tāmasam'.
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