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Friday, May 21, 2021

पुनः अभ्यासयोग

3.

इस प्रकरण के क्रमांक 2 में अभ्यासयोग का वर्णन किया गया था। उसे ही आगे बढ़ाते हुए पुनः क्रमशः अध्याय १२ के उसी श्लोक १२ पर यह क्रम निम्न तरीके से पूर्ण होता है :

भगवान् श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से आगे कहा :

युधिष्ठिर! अर्जुन को जिस प्रकार से मेरे स्वरूप (अर्थात् आत्मा) का दर्शन हुआ उसमें यद्यपि तत्वतः उसे अखिल विश्व का दर्शन हुआ, किन्तु उससे यह भी कहा गया कि वह जो कुछ और भी देखना चाहता है, उस सबको मुझमें देख सकता है।

चेतना के जिस तल पर अर्जुन को मेरे स्वरूप का दर्शन हुआ,  उसके विस्तार में जाना तुम्हारे लिए अनावश्यक है। अर्जुन ने मेरे उस स्वरूप का दर्शन किया क्योंकि यह उसकी अभिलाषा थी, किन्तु किसी भी मनुष्य का सामर्थ्य नहीं कि मेरे ऐसे दर्शन कर वह व्याकुल, व्यथित और भयभीत न हो। तब मैंने उसके भय को दूर करते हुए उससे कहा :

(अध्याय ११)

मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्।

व्यपेतभीः प्रीतमना पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ।। ४९

सञ्जय उवाच :

इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः।

आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ।। ५०

अर्जुन उवाच :

दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन। 

इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतौ।। ५१

तब मैंने अर्जुन से पुनः यह कहा :

सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम। 

देवाऽप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः।। ५२

क्यों? 

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन चेज्यया। 

शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।। ५३

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।

ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप।। ५४

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः। 

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।। ५५

--

अध्याय ११ यहाँ पूर्ण हुआ। 

इसी क्रम में, अगले अध्याय १२ के पहले श्लोक में अर्जुन ने जिज्ञासा प्रस्तुत की :

अर्जुन उवाच :

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।

ये चाप्यमक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः।। १

तब मैंने अर्जुन से कहा :

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।

श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।। २

ये त्वमक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते। 

सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ।।३

सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः। 

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।। ४

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।

अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।। ५

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि  सन्न्यस्य मत्पराः। 

अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।। ६

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।

भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।। ७

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिः निवेशय ।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।। ८

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरं ।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।। ९

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्म परमं भव।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।।१०

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः। 

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।। ११

क्यों? 

क्योंकि, 

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते। 

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।।१२

क्रमशः

***


 

 





 



 

Tuesday, August 20, 2019

अव्यक्तः, अव्यक्ता, अव्यक्तात्

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अव्यक्तः 2/25, 8/20, 8/21,
अव्यक्ता 12/5,
अव्यक्तात् 8/18, 8/20,
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Thursday, August 15, 2019

अवाप्नोति, अवाप्य, अवाप्यते

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
--
अवाप्नोति 15/8, 16/23, 18/56,
अवाप्य 2/8,
अवाप्यते 12/5,
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Friday, August 2, 2019

अधःशाखम्, अधिकतरः, अधिकम्

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अधःशाखम् 15/1,
अधिकतरः 12/5,
अधिकम् 6/22,
--  

Friday, September 26, 2014

12/5,

आज का श्लोक,
___________________

अध्याय 12, श्लोक 5,

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यतासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥
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(क्लेशः अधिकतरः तेषाम् अव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिः दुःखम् देहवद्भिः अवाप्यते ॥)
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भावार्थ :
(ईश्वर को उसके) अव्यक्त स्वरूप में ग्रहणकर, उस आधार पर उपासना करनेवाले अपेक्षाकृत अधिक क्लेश उठाते हैं, क्योंकि देहभाव में बद्ध के लिए उस निराकार अव्यक्त स्वरूप का बोध ग्रहण कर पाना कष्ट का ही कारण होता है ।
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टिप्पणी :
ईश्वर का चिन्तन दो प्रकार से किया जाता है । प्रथम यह कि ऐसी किसी चेतन सत्ता के अस्तित्व का भान होना, जो जीव की तुलना में अनन्त सामर्थ्यवान है, जो जीव को जानती है और जीव के सम्पूर्ण अस्तित्व का एकमात्र आश्रय है, किन्तु जीव उसे नहीं जान सकता, क्योंकि जीव की बुद्धि सीमित और अल्पप्राय है । यहाँ तक कि उस बुद्धि को कौन संचालित और प्रेरित करता है, इसका जीव स्वयं अनुमान या कल्पना तक नहीं कर सकता । फिर भी वह इस तथ्य पर ध्यान देकर उस परम सत्ता के अस्तित्व के प्रति जागरूक तो हो ही सकता है । किन्तु इसके बाद प्रश्न उठता है कि जीव उसके यथार्थ स्वरूप से कैसे परिचित हो? तब उसके बारे में उसे ’अव्यक्त’ कह देने से मात्र से तो उसके दर्शन नहीं हो जाते । इसलिए उसके अव्यक्त स्वरूप (को जानने) के प्रति आसक्त बुद्धि रखनेवाले प्रायः क्लेशों में पड़ जाते हैं । किन्तु यदि ईश्वर के संबंध में केवल बौद्धिक चर्चा को छोड़कर, उसके प्रति समर्पण की भावना रखे, तो वह परमेश्वर अवश्य ही भक्त का भार उठा लेता है, अर्थात् उसे क्लेशों से बचा लेता है । अन्यथा वह परमेश्वर तो वैसे भी सम्पूर्ण अस्तित्व का ही भार उठाता ही है । इसलिए उसका चिन्तन इन दो प्रकारों से किया जाता है ।  
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Chapter 12, śloka 5,

kleśo:'dhikatarasteṣā-
mavyatāsaktacetasām |
avyaktā hi gatirduḥkhaṃ
dehavadbhiravāpyate ||
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(kleśaḥ adhikataraḥ teṣām
avyaktāsaktacetasām |
avyaktā hi gatiḥ duḥkham
dehavadbhiḥ avāpyate ||)
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Meaning :
Those who contemplate and meditate upon The Supreme by thinking of Him in His Immanent form, tend to suffer much more, because it is very difficult for human beings to conceive and grasp His Truth in any such abstract form.
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Note : In comparison, those who realize the limitations of  the body, sense, intellect and the mind, soon discover that There IS an Intelligence Who looks after everything of this world and them too. And prompted by this simple conviction and wisdom dedicate all their worries and troubles to Him, and just keep quiet. They attain Him far more easily, even though if they see Him in any of the names and forms according to their inclination and temperament.
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