Thursday, December 12, 2013

~~ गीता जयंती पर ~~

 'कर्म' का अर्थ है अस्तित्व / संसार की गतिविधि । 
संक्षेप में 'कर्म' के होने में 'प्रेरक' तीन तत्व हैं 'ज्ञान', 'ज्ञेय' तथा ज्ञाता' ।
दूसरी ओर, कर्म का अधिष्ठान, जिसमें कर्म अवस्थित होता है वह करण भी तीन रूपों में होता है । 
अर्थात साधन / यन्त्र, 'कर्म' / उद्देश्य, और उसे 'करनेवाला' - कर्ता । 
गीता अध्याय १८/ श्लोक १८ के अनुसार :

"ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना । 

करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ॥" 

कर्म वास्तव में किसी घटना का मन के द्वारा किया गया शब्दीकरण भर होता है । उस घटना के होने में ये छः तत्व 'कारक' होते हैं । गीता अध्याय १८ श्लोक १४ के अनुसार,

 "अधिष्ठानं च कर्ता करणं च पृथग्विधं । 

विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमं॥" 
में इन्हीं कारकों के बारे में स्पष्ट किया गया है । मन में विचार उठता है कि किसी कार्य को करनेवाला कोई स्वतन्त्र तत्व है, और उस स्वतन्त्र तत्व 'कर्ता' के रूप में कर्तृत्व-भावना को स्वयं से जोडकर अपने को कर्ता मान लिया जाता है । इसे ही 'संकल्प' कहते हैं । जब मनुष्य जान लेता है कि ऐसा कोई 'मैं' कहीं नहीं है, जो कर्मों को करता हो, तो भी कर्म की गतिविधि समाप्त नहीं हो जाती, देह और मन, बुद्धि और प्राण तब भी गतिशील रहते हैं, लेकिन तब उनमें अपनी न तो रुचि होती है, न अरुचि, इसलिए वे अपने 'धर्म' के अनुसार जारी रहते हैं । या, बस सिर्फ़ रुक जाते हैं । जैसे सायकिल का पैडल चलाना बन्द कर देने पर भी सायकल कुछ दूरी तक चलती रह सकती है, फ़िर रुक जाती है । इसलिए समस्त कर्मों में 'कर्ता' की क्या स्थिति / वास्तविकता है, इसे जान लेना ही कर्म मात्र से मुक्ति है ।
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Thursday, November 7, 2013

गीता १४ / २२ gitA 14 / 22

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव । 
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥
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   हे अर्जुन, विवेकवान मनुष्य को चाहिए कि वह मन 
के सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से प्रभावित होने 
की स्थिति में न तो उसे रोके, और न ही उन गुणों के 
प्रभाव के समाप्त हो जाने पर पुनः उनकी पुनरावृत्ति 
की कामना करे ।
(भगवद्गीता१४/२२)
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prakAshaM cha pravRtiM cha 
mohameva cha pANDava |
na dveShTi saMpravRttAni 

na nivRttAni kAMkShati ||
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(gitA 14 / 22).
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  A man of discrimination of right and wrong 
should neither condemn the modes of mind, 
when his mind under the influence of sattva, 
rajas, and tamas, becomes calm and clear, 
engaged in activity, or lost in idleness, neithe
should desire their repetition, once the mode 
is no more.
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   This is because all things happen to body and
mind according to destiny. One's attitude towards 
destiny should be of detachment with their actions.
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गीता १४ / २२ gitA 14 / 22 

Monday, August 26, 2013

कर्म या ज्ञान ?

कर्म  या ज्ञान ? 
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लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञनयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥
(श्रीमद्भग्वद्गीता, ३/३)
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हे अर्जुन! जिस निष्ठा से मनुष्य सर्वोत्तम गति को प्राप्त करता है, उसके बारे में मैं बहुत प्राचीन काल में ही बता चुका हूँ कि अपने-अपने स्वभाव से मनुष्य में दो प्रकार की निष्ठा होती है, कोई तो कर्म को ही श्रेष्ठ मानते हैं और कोई अन्य ज्ञान को । किन्तु चूँकि किसी भी एक के माध्यम से दूसरे की प्राप्ति होती है, इसलिए उनमें वस्तुतः विरोध नहीं है ।
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O Arjuna! As I had said in the earliest times,  To reach the Supreme state, there are two approches. There are those who seek this through action (karma), and others through understanding (jnAna). 
(And there is no contradiction because one becomes the other.)
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Wednesday, July 3, 2013

’श्री रमण महर्षि से बातचीत’ पुस्तक से उद्धृत अंश -२.

’श्री रमण महर्षि से बातचीत’ पुस्तक से उद्धृत अंश -२.
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24 जनवरी,1935.
§17.

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ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के एक अंग्रेज रिसर्च स्कॉलर श्री एम.वाई. इवांस-वैंज श्री ब्रंटन का परिचय-पत्र लेकर दर्शनार्थ आये । यात्रा की थकान होने के कारण उन्हें विश्राम की आवश्यकता थी । अनेक बार भारत आने के कारण वे भारत के रहन-सहन से भलीभाँति परिचित हैं । वे तिब्बती भाषा सीख चुके हैं तथा तिब्बत के सबसे महान योगी ’मिलरेपा की जीवनी’ तथा ’मृतकों की पुस्तक’ तथा एक अन्य पुस्तक ’तिब्बत के गुप्त सिद्धान्त’ का अनुवाद उनकी सहायता से हुआ ।
दोपहर में उन्होंने कुछ प्रश्न पूछने प्रारंभ किये । प्रश्न योग से सम्बन्धित थे । वे जानना चाहते थे कि योग-आसन करने के लिए बाघ, हरिण आदि को उनके चर्म के लिए मारना क्या उचित है ?
महर्षि : मन ही बाघ अथवा हरिण है ।
भक्त : यदि सब कुछ माया हो तो जीवन ले सकते हैं ?
महर्षि : भ्रम किसको है? उसकी खोज करो! वास्तव में अपने जीवन में प्रति क्षण, प्रत्येक व्यक्ति ’आत्मा का हनन’ कर रहा है ।
भक्त : आसनों में कौन-सा श्रेष्ठ है ?
महर्षि : आसन कोई भी हो, जैसे सुखासन; कोई भी सरल आसन (अथवा अर्द्ध-बुद्धासन) अच्छा है । परन्तु ज्ञान मार्ग के लिए इन सबका कोई महत्त्व नहीं ।
भक्त : क्या आसन से व्यक्ति के स्वभाव का अभास होता है ?
महर्षि : हाँ ।
भक्त : व्याघ्र चर्म, नमदा तथा हरिण चर्म के क्या-क्या गुण व प्रभाव हैं ?
महर्षि : कुछ व्यक्तियों ने उनका अध्ययन कर उनका योग के ग्रन्थों में वर्णन किया है । चुम्बकीयता के संचालन-प्रसंचालन से इनका संबंध है, पर ज्ञान-मार्ग का इन चीजों से कोई सम्बन्ध नहीं । वास्तव में आसन का उद्देश्य आत्मा की अनुभूति तथा उसमें दृढ़तापूर्वक स्थिर होना है । यह आन्तरिक है । अन्य आसन बाह्य स्थितियों के वर्णन हैं ।
भक्त : ध्यान करने के लिए कौन-सा समय सबसे उपयुक्त है?
महर्षि : समय क्या वस्तु है ?
भक्त : आप ही बताइए वह क्या है ?
महर्षि : समय एक विचार मात्र है । अस्तित्व केवल सत्य का है । जो कुछ भी संकल्प आप करते हैं कि वह है, वह वैसा ही दीखता है । यदि आप इसे समय कहे तो यह समय है; यदि इसे आप अस्तित्त्व कहें तो यह अस्तित्त्व है और इसी प्रकार इसे समय मानकर आप दिवस तथा रात्रियों में विभाजित कर लेते हैं तथा मास वर्ष, घण्टे एवं मिनट आदि में भी । ज्ञान मार्ग का समय से कोई संबंध नहीं । किन्तु प्रारंभ में साधक के लिए इस प्रकार के कुछ अनुशासन एवं नियमादि सहायक हो सकते हैं ।
भक्त : ज्ञानमार्ग क्या है ?
महर्षि : मन की एकाग्रता तथा योग दोनों साधनों में समान रूप से आवश्यक है । योग का लक्ष्य जीव का ब्रह्म - परम सत्य - से एकीकरण है । यह कोई नवीन वस्तु नहीं हो सकती । यह तो अभी भी विद्यमान होनी चाहिए और यह है भी । इसलिए ज्ञानमार्ग यह शोध करता है कि हमारा सत्य से वियोग क्यों कर हुआ । वियोग केवल सत्य से ही हुआ है ।
भक्त : माया क्या है ?
महर्षि : माया किसको है ? उसे खोज लो तो माया का लोप हो जाएगा ।
प्रायः लोग माया के संबंध में जिज्ञासा  करते हैं, किन्तु माया किसको प्रभावित कर रही है इसकी परीक्षा नहीं करते । यह मूर्खता है । माया बाहर है तथा अज्ञात है । किन्तु जिज्ञासा करनेवाला ज्ञात है तथा अन्तर में है । जो दूर है तथा अज्ञात है उसकी अपेक्षा जो अति समीप तथा अपने अन्दर है उसकी खोज करो । 
भक्त : क्या महर्षि यूरोपवासियों के लिए किसी विशेष आसन की सलाह देंगे ?
महर्षि : आसन निर्दिष्ट किए जा सकते हैं किन्तु यह जान लीजिए कि आसन, निर्धारित समय, तथा इस प्रकार की अन्य सामग्री के अभाव में ध्यान वर्जित नहीं है ।
भक्त : क्या महर्षि विशेषतया यूरोपवासियों के लिए किसी विशेष पद्धति का निर्देशन करेंगे ?
महर्षि : यह साधक के मानसिक विकास के अनुसार ही होता है । वास्तव में कोई निर्धारित एवं निश्चित नियम नहीं है ।
श्री इवांस-वैंज अधिकतर योग की प्रारम्भिक साधना से संबंधित प्रश्न करते रहे जिन्हें महर्षि ने योग के साधन मात्र कहा तथा योग को भी आत्म-साक्षात्कार का साधन ही बताया जो सबका लक्ष्य है ।
भक्त : क्या सांसारिक कार्य आत्म-साक्षात्कार में बाधक हैं ?
महर्षि : नहीं । ज्ञानी की दृष्टि में केवल आत्मा ही एकमात्र सत्य है, कर्म तो आभास मात्र हैं, वे आत्मा को प्रभावित नहीं करते । ज्ञानी कार्य करते हुए भी स्व्अयं को कर्त्ता नहीं मानता । उसके कार्य भी अपने आप होने जैसे होते हैं तथा वह पूर्णतया निर्लेप रहकर उन कार्यों का केवल साक्षी मात्र रहता है ।
इस प्रकार के कार्य का कोई लक्ष्य नहीं होता । ज्ञानमार्ग का साधक कार्यरत रहता हुआ भी साधना कर सकता है । प्रारंभिक अवस्था में साधक को कुछ कठिनाई हो सकती है, किन्तु कुछ अभ्यास के बाद शीघ्र ही इसका प्रभाव होगा फिर कर्मों से उसके ध्यान में कोई बाधा नहीं होगी ।
भक्त : अभ्यास क्या है ?
महर्षि : ’मैं की निरन्तर खोज, जो अहम् भाव का मूल स्रोत है । यह खोज करो कि ’मैं’ कौन हूँ ?’ शुद्ध ’मैं’ ही सत्य है, वही परब्रह्म सच्चिदानन्द है । उसको भूलने से ही सारे कष्ट एवं क्लेशों का जन्म होता है । जब इसको दृढ़ कर लिया जाय तो व्यक्ति दुःखों से छुटकारा पा जाता है ।
भक्त : क्या आत्म-साक्षात्कार के लिए ब्रह्मचर्य आवश्यक नहीं ?
महर्षि : ’ब्रह्म में रहना’ ही ब्रह्मचर्य है । सामान्य धारणा में जिसे ब्रह्मचर्य समझा जाता है, उससे इसका कोई संबंध नहीं । वास्तविक ब्रह्मचारी अर्थात् ब्रह्म में ही स्थित रहनेवाला तो ब्रह्म में ही सर्वानन्द की प्राप्ति कर लेता है, वह ब्रह्म आत्मा से भिन्न नहीं । फिर आनन्द के अन्य स्रोतों की खोज क्यों ? वास्तव में आत्मा से बाहर होना ही सारे क्लेशों का मूल है ।
भक्त : क्या ब्रह्मचर्य पालन योग के लिए आवश्यक है? 
महर्षि : यह सही है । साक्षात्कार के अनेक साधनों में  ब्रह्मचर्य भी एक साधन है ।
भक्त : फिर क्या यह अत्यन्त आवश्यक नहीं ? क्या विवाहित पुरुष आत्म-साक्षात्कार कर सकता है ?
महर्षि : निश्चयपूर्वक । यह तो मन की योग्यता का विषय है । विवाहित हो अथवा अविवाहित, मनुष्य आत्म-साक्षात्कार कर सकता है क्योंकि आत्मा यहीं है, तथा अभी है । यदि ऐसा नहीं होता तथा इसकी उपलब्धि कभी आगे होती एवं यह कोई नवीन वस्तु होती जिसे प्राप्त करना होता तो ऐसा प्रयास वृथा ही होता । क्योंकि जो स्वाभाविक नहीं है वह स्थायी भी नहीं हो सकता । पर मैं यह कहता हूँ - आत्मा यहाँ है, अभी है तथा केवल उसी की सत्ता है ।
भक्त : ईश्वर सब में व्यापक है, अतः किसी जीव का जीवन नहीं लेना चाहिए । क्या हत्यारे का जीवन लेने का समाज का अधिकार उचित है ? क्या राज्य भी औसा कर सकता है ? ईसाई देश इस प्रकार का विचार करने लगे हैं कि ऐसा करना उचित नहीं ।
महर्षि : हत्यारे को हत्या करने के लिए किसने प्रेरित किया ? वही शक्ति उसे दण्ड देती है । समाज या राज्य तो उस शक्ति के हाथ में यन्त्र मात्र हैं । तुम एक व्यक्ति के प्राण लेने की बात करते हो युद्धों में असंख्य प्राणियों के जीवन जाते हैं, उसको क्या कहोगे ?
भक्त : ऐसा ही है । जीवन की हानि किसी भी प्रकार हो अनुचित ही है । क्या युद्ध उचित हैं ?
महर्षि : आत्मज्ञानी पुरुष के लिए जो सदैव आत्मा में ही स्थित है, इस लोक में अथवा तीनों लोकों में एक जीव की अथवा सब जीवों की हानि से कोई अन्तर नहीं पड़ता । यदि वह सब को नष्ट कर दे तो भी ऐसी शुद्धात्मा को कोई पाप स्पर्श नहीं कर सकता । महर्षि ने गीता के अठारहवें अध्याय का सत्रहवाँ श्लोक उद्धृत किया -
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥
"जो  अहम् के भाव से सर्वथा शून्य है जिसकी बुद्धि संसार में लिपायमान नहीं है, यदि वह सब लोकों का भी संहार कर दे तो भी वह किसी को नहीं मारता और न वह अपने कर्मों के फल से ही बंधायमान होता है ।"
भक्त : व्यक्ति के कर्म क्या उसके बाद के जन्मों पर प्रभाव नहीं डालते ?
महर्षि : क्या तुम अभी जन्मे हो ? तुम दूसरे जन्मों की चिन्ता क्यों करते हो ? यथार्थ में न तो जन्म है न मृत्यु है । जो जन्मा हो उसे मृत्यु तथा शान्ति देनेवाले साधनों पर विचार करने दो ।
भक्त : महर्षि को आत्म-साक्षात्कार में कितना समय लगा ?
महर्षि : यह प्रश्न इसलिए पूछा गया है कि नाम एवं रूप की प्रतीति हो रही है । यह प्रतीति अहम् के स्थूल शरीर से तादात्म्य कर लेने से उत्पन्न हुई है ।
यदि अहम्  स्वयं को सूक्ष्म मन से मिला लेता है, जैसे कि स्वप्नावस्था में तो प्रतीति भी सूक्ष्म हो जाती है; परन्तु सुषुप्ति में कोई प्रतीति नहीं होती । क्या उस समय भी अहम् का अस्तित्व नहीं रहता ? यदि नहीं रहता तो सुषुप्ति की स्मृति भी नहीं रहती । जो सोया था वह कौन था ? अपनी सुषुप्ति में तुम नहीं कह रहे थे कि तुम सो रहे थे । यह तो तुम अब जागने पर कह रहे हो । इससे यह सिद्ध हुआ कि ’अहम्’ का भाव जाग्रत्, स्वप्न व सुषुप्ति में यथावत रहता है । इन अवस्थाओं की तह में जो सत्य (आत्मा) है उसे जानो । वही सत्य इन सब अवस्थाओं की तह में है । उस अवस्था में केवल अस्तित्व अथवा सत्ता है । वहाँ तू, मैं या वह नहीं है; न वर्तमान, भूत या भविष्य है । वह देश अथवा काल से परे है तथा अनिर्वचनीय है । वह तो सदैव है ।
जिस प्रकार केले का वृक्ष फल देकर समाप्त होने से पहले मूल की शाखाएँ बढ़ाता है एवं अन्यत्र रोपे जाने पर ये शाखाएँ पुनः फलवती होकर यही कार्य पुनः करती हैं; इसी प्रकार प्रारम्भिक युग के एवं अत्यन्त प्राचीन समय के गुरु (दक्षिणामूर्ति) जिन्होंने अपने ऋषि शिष्यों के सन्देह मौन से निवारण किये थे, ऐसी शाखाएँ छोड़ गये हैं जो निरन्तर बढ़ रही हैं । गुरु उसी दक्षिणामूर्ति की शाखा है । यह प्रश्न ही नहीं उठता जबकि आत्मा का साक्षात्कार हो चुका है ।
भक्त : क्या महर्षि को निर्विकल्प समाधि होती है ?
महर्षि : यदि नेत्र बन्द हों तो वह निर्विकल्प है; यदि नेत्र खुले हों तो वह सविकल्प् है (यद्यपि इसमें कुछ अन्तर है फिर भी पूर्ण शान्ति रहती है) सर्वथा विद्यमान स्वाभाविक अवस्था सहज समाधि की है ।
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Sunday, June 30, 2013

’श्री रमण महर्षि से बातचीत’ पुस्तक से उद्धृत अंश -१

’श्री रमण महर्षि से बातचीत’ पुस्तक से उद्धृत अंश -१
§ 58.  श्री रंगनाथन, आई.सी.एस. :
श्रीमद्भग्वद्गीता में एक जगह कहा है : व्यक्ति का स्वयं का धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है; दूसरे का धर्म भय देनेवाला है । स्वधर्म का क्या महत्त्व है?
महर्षि : सामान्यतया स्वधर्म  से तात्पर्य विशिष्ट कोटि तथा जातिगत कर्त्तव्यों  से है । भौतिक वातावरण भी ध्यान में रखना चाहिए ।
भक्त : यदि वर्णाश्रम धर्म से आशय है तो इस प्रकार के धर्म का प्रचलन तो भारत में ही है । जबकि गीता का उपयोग तो अखिल जगत् के हेतु होना चाहिए ।
महर्षि : हर देश में किसी न किसी रूप में वर्णाश्रम विद्यमान है । महत्त्व इस बात है कि एकमात्र आत्मा में स्थित रहो, वहाँ से बाहर न भटको इसका वास्तविक भाव यही है ।
 स्व = स्वयं का अर्थात् आत्मा का ।
पर = दूसरे का अर्थात् अनात्मा का ।
आत्मधर्म का प्रतिष्ठान आत्मा में है । वहाँ क्लेश अथवा भय नहीं होंगे । जब कोई अन्य होता है तभी दुःख उत्पन्न होता है । यदि यह अनुभूति हो कि केवल एकमात्र आत्मा ही है, दूसरा कोई नहीं है, तब भय नहीं होगा । आज मानव भ्रमवश अनात्म-धर्म को आत्म-धर्म समझकर दुःख उठाता है ।  उसे (आत्मा को) जानकर उसी में स्थित रहना चाहिए । तब भय का अन्त हो जाता है और संशय भी नहीं रहते । यदि इसका अर्थ वर्णाश्रम धर्म लें तो भी यही आशय निकलेगा । ऐसा धर्म तभी फलदायक होगा जब निःस्वार्थ भाव से किया जाये । अर्थात् यह मान लिया जाय कि कर्त्ता नहीं है परन्तु किसी उच्चतर सत्ता का यन्त्र मात्र है । उच्चतर सत्ता अवश्यम्भावी को होने दे और मैं केवल उसके आदेशों का ही पालन करूँ । कर्म मेरे नहीं हैं । इसलिए कर्मों के परिणाम भी मेरे नहीं हो सकते । यदि इसके अनुरूप विचार तथा कर्म हों तो कष्ट है कहाँ?  चाहे वर्णाश्रम धर्म हो अथवा लौकिक धर्म यह महत्व का नहीं है । अन्ततोगत्वा निष्कर्ष यह निकला :
 स्व = आत्मनः
पर = अनात्मनः
ऐसे संशय स्वाभाविक हैं । शास्त्रानुसार व्याख्या का आधुनिक जीवन से सामञ्जस्य नहीं हो सकता, जिसे जीवनयापन हेतु अनेक प्रकार से कार्य करना होता है ।
पोंडी से आये एक व्यक्ति ने बीच में टोका :
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । सब कर्त्तव्यों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आओ । 
श्रीभगवान : सर्व अनात्मनः ही है; महत्त्व ’एक’ का है । जिस मनुष्य की दृढ़ स्थिति ’एक’ पर है, उसके लिए धर्म कहाँ है ? तात्पर्य यह है कि "आत्मा में निमग्न हो जाओ ।"
भक्त : गीता का उपदेश तो कार्य करने के लिए किया गया था ।
महर्षि : गीता क्या कहती है ? अर्जुन ने युद्ध करने से इन्कार कर दिया । कृष्ण ने कहा, " जब तक तुम लड़ने से इन्कार करते रहोगे; तुम में कर्त्तापन का भाव रहेगा । युद्ध  करने अथवा न करने वाले तुम हो कौन् ? कर्त्ता भाव को त्यागो । जब तक उस भाव का निवारण नहीं करोगे तुम्हें कर्म तो करना ही होगा । उच्चतर सत्ता तुम्हारा उपयोग कर रही है । उसके आदेश के पालन की अवहेलना कर तुम स्वयं उसी सत्ता को स्वीकार कर रहे हो । इसकी अपेक्षा उस सत्ता को अंगीकार कर उसके आदेशों का यन्त्रवत् पालन करो । (अन्य प्रकार से कहें तो) यदि तुम इन्कार करोगे तो तुम्हें बलपूर्वक युद्ध में खींच लिया जायेगा । अनिच्छुक कर्त्ता की अपेक्षा इच्छापूर्वक कार्य करना श्रेयस्कर है ।"
 "अथवा आत्मा में स्थित हो कर्त्तापन के भाव से रहित होकर स्वभावानुसार कर्म करो । तब कर्म का फल तुम्हें प्रभावित नहीं करेगा । यही पुरुषार्थ एवं वीरता है ।"
’आत्मा में संस्थिति’ ही गीता के उपदेश का सार है । अन्त में महर्षि ने स्वयं फिर कहा, "यदि मनुष्य आत्मा में स्थित है, ये संशय उदय नहीं होंगे । वे तभी तक उदय होते हैं जब तक वह वहाँ स्थित नहीं होता ।"
भक्त : जिज्ञासु का ऐसे उत्तर से क्या हित होगा ?
महर्षि : फिर भी शब्दों में शक्ति होती है जो यथासमय निश्चय ही फल लाएगी ।
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Monday, June 17, 2013

~~ राजनीति और धर्म ~~1.

~~ राजनीति और धर्म ~~ 1.
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गीता (अध्याय २) में कहा गया है;
ध्यायतो विषयान्पुन्सः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्संजायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥६२॥
क्रोधात्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद्-बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥६३॥
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥६४॥
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ध्यायतो  > ध्यायतः > जिसका ध्यान उन, विषयान् > विषयों पर होता है, पुन्सः > उस मनुष्य की, सङ्गः तेषु -उपजायते > उन विषयों के साथ चित्त की संलग्नता हो जाती है । इस प्रकार चाहते या न चाहते हुए भी, अन - वधानतावश  मनुष्य उन विभिन्न विषयों में प्रवृत्त हो जाता है । स्पष्ट है कि सारे ही विषय चित्त से अन्य हैं, अर्थात् ’जड’ हैं, क्योंकि चित्त ’चेतन-सत्ता’ की रश्मि मात्र ही तो है । उनसे चित्त का संग होने पर चित्त में उनकी सत्यता होने का बुद्धि-भ्रम उपजता है । उनकी सत्यता की बुद्धि होने पर, सङ्गात्-संजायते कामः > इस प्रकार के संग से उन्हें प्राप्त करने की उत्कण्ठा अर्थात् कामना उत्पन्न हो जाती है ।  कामात् क्रोधः अभिजायते >  और कामना दुष्पूर होती है, क्योंकि विषय अनंत, तथा इन्द्रियों की भोग-क्षमता अत्यन्त अल्प है. इसलिए क्रोध का आगमन होता है । क्रोधात् भवति > क्रोध से उत्पन्न होता है, संमोहः > मोह की भावना का अतिरेक, संमोहात्-स्मृति-विभ्रमः > और मोह के इस अतिरेक से स्मृति का सामञ्जस्य खो जाता है । स्मृति-भ्रंशात्-बुद्धिनाशः > स्मृति के असामञ्जस्य अव्यवस्थित हो जाने से सहज स्वाभाविक विवेक-बुद्धि नष्ट हो जाती है । बुद्धि-नाशात्-प्रणश्यति > इस प्रकार से विवेक-बुद्धि के नष्ट होने पर चित्त की सरलता, स्पष्टता,  समझने की स्वाभाविक क्षमता नष्ट हो जाती है । दूसरी ओर, राग-द्वेषवियुक्तैः > राग-द्वेष से शून्य, तु > किन्तु, विषयान् इन्द्रियः चरन् > जो हैं, जिसकी इन्द्रियाँ विषयों के संसर्ग में रहते हुए भी, आत्म-वश्यैःविधेय-आत्मा > जिसका चित्त संपूर्णतः आत्मा में स्थिर और समाहित है , ऐसा मनुष्य, प्रसादम् अधिगच्छति > आत्मा की शान्ति के प्रसाद का उपभोग करता है ।
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विवेकचूडामणि (श्लोक३२५) में कहा गया है;
लक्ष्यच्युतं चेद्यदि चित्तमीषद् बहिर्मुखं सन्निपतेत्तस्ततः ।
प्रमादतः प्रच्युतकेलिकन्दुकः सोपानपङ्क्तौ पतितो यथा तथा ॥
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Friday, May 31, 2013

Chess / शतरंज

~~ Chess / शतरंज ~~
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http://vinaykvaidya.blogspot.in/2012_06_01_archive.html
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http://ashwatthah.blogspot.in/search/label/रणभूमि%20%2F%20क्रीड़ाभूमि
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Sunday, May 26, 2013

'धर्म' और 'Religion'


'धर्म' और 'Religion' 

'shreyAnswadharmo viguNaH 
paradharmAtswanuShThitAt,
swadharme nidhanaM shreyaH
paradharme bhayAwahaH ' (GitA : 3/35).
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्  |
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मे भयावहः || ( गीता ३ / ३५ ).
says GitA.
-
The dharma here means 'dhRti', the natural tendencies, temperament and orientation of the mind. Taking use of them in their best possible way according to one's wisdom and understanding is what is meant by dharma. Taking into consideration this, Arjuna, who is a kShatriya (warrior) is adviced to engage in war, because he is not a brahmin and can't go begging for alms. His 'dharma' is quite different. And It is right, natural and so meritorious for him, if he does not run away from the war that has been imposed upon him by the circumstances.
So 'dharma' is not the same as 'religion', while 'religion' is but traditions of different 'social groups'. Unfortunately all our political-understanding (?) does not takes into consideration of this fact, and there are differences and rivalries of all kinds in society.
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Monday, April 8, 2013

श्लोक अध्याय २, क्रमांक ५८. Shloka 2, #58


श्लोक अध्याय २, क्रमांक ५८. 

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यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
(गीता २/५८)
यदा = जब, संहरते = समेट लेता है, च अयं कूर्मः = और यह जीव, जैसे = कछुवा, अङ्गानि-इव = अपने अंगों को, सर्वशः = हर ओर से, इन्द्रियाणि = इन्द्रियों को, इन्द्रियार्थेभ्यः = उनके अपने अपने विषयों से, तस्य = उसकी, प्रज्ञा = सत्य को ग्रहण कर सकनेवाली क्षमता, प्रतिष्ठिता = भली भाँति सुस्थिर हो जाती है ।
अर्थ - जैसे कछुवा अपने अंगों को भीतर खींच लेता है, मनुष्य भी उसी प्रकार से जब अपनी स्थूल एवं सूक्ष्म इन्द्रियों में संलग्न चित्त को उनसे पृथक् कर अपने भीतर अवस्थित अपने शुद्ध ’होनेमात्र’ के सहज बोध पर केन्द्रित कर लेता है, तब इन्द्रियों के उनके अपने-अपने विषयों से मुक्त रहने, और चित्त के इन्द्रियों से भी बँधे न होने पर अपने ही हृदय में नित्य अवस्थित नैसर्गिक आनन्द के बोध में निमग्न  उसकी बुद्धि सुस्थिर हो जाती है ।  फ़िर उसका चित्त विषयों और विषयों में सुख-बुद्धि की भावना नहीं रखता । इस प्रकार की मति में स्थित वह स्थितप्रज्ञ हो जाता है ।   

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Shloka ch.2, #58
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yadA sanharate chAyaM kUrmo'ngAnIva sarvashaH |
indriyANIndriyArthebhyastasya prajnA pratiShThitA || (gitA 2/58). 
Just as a tortoise withdraws its organs within itself, A seeker who withdraws attention from the objects, and then from the senses also, then from the mind dissociated from objects and senses, he goes deeper into the pure sense of 'just pure being' only without a thought (including I-thought) stirring, and even more, stays there for such a long time that his mind gets totally absorbed in that sense of 'just pure being' only, attains the intelligence that becomes an understanding of the Self. Firmly established in that understanding of the Self, he is free for ever from all sorrow, and enjoys the spontaneous bliss of the Self, the brahman.
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