कर्म या ज्ञान ?
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लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञनयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥
(श्रीमद्भग्वद्गीता, ३/३)
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हे अर्जुन! जिस निष्ठा से मनुष्य सर्वोत्तम गति को प्राप्त करता है, उसके बारे में मैं बहुत प्राचीन काल में ही बता चुका हूँ कि अपने-अपने स्वभाव से मनुष्य में दो प्रकार की निष्ठा होती है, कोई तो कर्म को ही श्रेष्ठ मानते हैं और कोई अन्य ज्ञान को । किन्तु चूँकि किसी भी एक के माध्यम से दूसरे की प्राप्ति होती है, इसलिए उनमें वस्तुतः विरोध नहीं है ।
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O Arjuna! As I had said in the earliest times, To reach the Supreme state, there are two approches. There are those who seek this through action (karma), and others through understanding (jnAna).
(And there is no contradiction because one becomes the other.)
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लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञनयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥
(श्रीमद्भग्वद्गीता, ३/३)
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हे अर्जुन! जिस निष्ठा से मनुष्य सर्वोत्तम गति को प्राप्त करता है, उसके बारे में मैं बहुत प्राचीन काल में ही बता चुका हूँ कि अपने-अपने स्वभाव से मनुष्य में दो प्रकार की निष्ठा होती है, कोई तो कर्म को ही श्रेष्ठ मानते हैं और कोई अन्य ज्ञान को । किन्तु चूँकि किसी भी एक के माध्यम से दूसरे की प्राप्ति होती है, इसलिए उनमें वस्तुतः विरोध नहीं है ।
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O Arjuna! As I had said in the earliest times, To reach the Supreme state, there are two approches. There are those who seek this through action (karma), and others through understanding (jnAna).
(And there is no contradiction because one becomes the other.)
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