Sunday, January 24, 2010

धृति

~~ गीताप्रवेश से पूर्व -2. ~~~
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अब तक गीता के असंख्य जिज्ञासुओं ने गीता-तत्त्व-चिंतन में अपना मन-प्राण और चित्त लगाया है इसे मुमुक्षाकहिये, भक्ति कहिये, आत्म-ज्ञान की तीव्र उत्कंठा कहिये, तप, स्वाध्याय, योग कहिये, पुण्यकर्म, यज्ञ या साधना, ध्यान, उपासना, जो कुछ भी नाम दें, उन्हें गीता ने कभी खाली हाथ नहीं लौटाया है लेकिन बात कोरे बुद्धिजीवियोंकी करें, तो हम देखते हैं कि भले ही वे कितने ही तर्क-कुशल और पुस्तकीय जानकारी से भरी विद्वत्ता से भरे हों, भले ही उन्होंने इस माध्यम से समाज में कोई हैसियत भी पा ली हो, उन्हें देखकर कुछ
ऐसा लगता है कि उन्हें गीतासे कुछ क्यों मिल सका ! वे गीता के अनेक तत्त्वों की मनमोहक व्याख्या भी कर सकते हैं, लेकिन उनके भीतरका संशय विदा क्यों नहीं हुआ ? वे किसी सुनिश्चित (बौद्धिक ही सही) निष्कर्ष तक क्यों नहीं पहुँच सके ?उनकाहृदय कोरा, खाली, रिक्त क्यों है ?
लेकिन हम किसी दूसरे के बारे में प्रामाणिक रूप से कुछ कैसे कह सकते हैं ? बेहतर तो यही होगा कि हम पहले इसबिंदु पर ध्यान दें कि क्या हममें गीता के तत्त्व को, मर्म को समझने और धारण करने की योग्यता है भी ?
गीता में 'धृति' शब्द का प्रयोग निम्न स्थानों पर किया गया है -
*. , श्लोक २५;
शनै: शनै: उप-रमेत् - बुद्ध्या धृति-गृहीतया
आत्म-सं
स्थं मन: कृत्वा किंचिदपि चिन्तयेत् ॥

*.११, श्लोक २४;
नभ: स्पृ
शं दीप्तं अनेक वर्णं व्यात्ताननं दीप्त विशालनेत्रं
दृष्ट्वा हि त्वां पर व्यथितान्त
रात्मा धृतिं विन्दामि शमं विष्णो

*.१०, श्लोक ३४;
मृत्यु: सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यतां
कीर्ति: श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृति: मेधा धृति: क्षमा
*.१३,श्लोक ;
इच्छा द्वेष:
सुखं दु:खं संघातश्चेतना धृति:
एत
त् क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतं
*.१६,श्लोक ;
तेज: क्षमा धृति: शौचं -अद्रोहो नातिमानिता
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत
*.१८,श्लोक २६,२९,३३,३४,३५,४३,५१ ;
मुक्त-संगो-नहंवादी धृति-उत्साह-समन्वित:
... ... ... (२६)
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणत: त्रिविधं शृणु
... ... ... (२९)
धृत्या यया धारयते मन:प्राणेन्द्रिय क्रिया:
योगेना व्यभिचारिण्या धृति: सा पार्थ सात्त्विकी (३३)
यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयते-र्जुन
प्रसंगेन फलाकांक्षी धृति: सा पार्थ राजसी (३४)
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव
विमुन्चति दुर्मेधा धृति: सा पार्थ तामसी (३५)
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनं
दानमीश्वरभावश्च ... ... ... ... (४३)
तथा,
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य
शब्दादीन्विषयान्स्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य (५१)
उपरोक्त श्लोकों से यह निष्कर्ष सरलतापूर्वक निकाला जा सकता है कि गीता में 'धृति' शब्द से क्या आशय ग्रहणकिया जा सकता है क्या इसका निकटतम तात्पर्य 'पात्रता', चित्त की स्वाभाविक शांत, जागरूक, वृत्ति-विशेष सेअलिप्त प्रसन्न दशा, 'धारणा-शक्ति', 'धैर्य', 'धीरज', 'एकाग्रता', 'बुद्धिग्राहिता', 'समझ' 'संकल्प-शक्ति', 'ग्रहण करनेकी योग्यता', आदि नहीं होगा ? इसे पातंजलि-प्रणीत 'योग-दर्शन' में प्रयुक्त 'धारणा' के अर्थ में भी देखा जानाअवश्य ही बहुत उपयोगी होगा
अंग्रेज़ी में इसे हम 'understanding', 'gestalt' 'sensibility', 'awareness', 'perception', 'perceptibility', 'mental power', intelligence', 'retentivity','intention', 'potential', 'maturity', consistency, आदि शब्दोंके समकक्ष रख सकेंगे वास्तव में इसमें इन सभी का तात्पर्य समाहित है
दूसरी ओर एक शब्द है 'अधिकारिता', जिसे अंग्रेज़ी में हम 'deserving' कह सकते हैं इसका दूसरा अर्थकिया जाता है, लेकिन गीता में 'धृति' शब्द का अनुवाद 'authority' नहीं किया जा सकता
क्योंकि 'अधिकारी' शब्द उपदेश देनेवाले तथा ग्रहण करनेवाले दोनों की 'योग्यता' के लिए भी प्रयोग किया जाता है। 'अधिकारी' होने के लिए 'पात्रता' होना ज़रूरी होता है
अत: जब तक हम 'पात्रता' क्या है, इसे नहीं जान लेते तब तक गीता के तात्पर्य को ठीक से समझना संभव नहीं यही वह बिंदु है, जहाँ बड़े-बड़े विद्वान् भी प्रमादवश गीता की व्याख्या करते समय मर्म को समझे बिना हीयेन-केन-प्रकारेण अपना आग्रह आरोपित कर देते हैं
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Wednesday, January 20, 2010

गीता-प्रवेश- 1..

~~गीता-प्रवेश -1.~~~
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वेदान्त-ग्रंथों के पठन-पाठन की विधि क्या हो, इस बारे में भी शास्त्रों में पर्याप्त दिशा-निर्देश दिए गए हैं
वेदों में ही इस बारे में बहुत कुछ लिखा / कहा गया है वेदों की परम्परा मुख्यत: 'मौखिक'-रूप से शिक्षा दिए जानेपर बल देती है इसके पीछे प्रमुख कारण यही जान पड़ता है कि प्रत्यक्षत: जो ज्ञान शिक्षक से शिष्य को प्राप्त होताहै, वह संशयरहित होता है, उसे शिष्य 'करामलकवत'ग्रहण करता है दूसरा प्रमुख कारण है 'पात्रता' होने का प्रश्न
'पात्रता' और 'अधिकारिता' इन दो सन्दर्भों से ही यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि किसे शिक्षा दी जाना उचितहै, और जो शिक्षा दे रहा है, उसकी अपनी क्या स्थिति है
संक्षेप में, 'अपात्र' को शिक्षा दिया जाना, उसके लिए, और दूसरों के लिए भी हानिकारक सिद्ध हो सकता है औरऐसी शिक्षा जगत को भी क्षति पहुँचा सकती है शिक्षा का ध्येय तो यही होना चाहिए किए वह अपना और जगतका कल्याण ही करे
इस बारे में एक सूत्र है, :
"अधिकारी-विषय-संबंध-प्रयोजन"
इन चार स्तंभों पर शिक्षा का भवन खड़ा होता है
यदि किसी भी ग्रन्थ का अध्ययन करना है, तो इनमें से सर्वप्रथम तो अपनी पात्रता की परीक्षा कर लेना जरूरी है यदि हम यह दुराग्रह रखें कि पढ़कर हम तय कर लेंगे कि ग्रन्थ में क्या कहा गया है, तो हम ग्रन्थ के मर्म सेअनभिज्ञ ही रहेंगे ' हो सकता है कि 'भौतिक-ज्ञान' हमारा
' अत्यधिक हो, लेकिन वह संशयरहित कहाँ होता है ?
क्या उस ज्ञान से हम किसी संशयरहित निष्कर्ष पर पहुँच पाते हैं ? या तो हमें उस दिशा में और खोज-बीन करनीपड़ती है, या पुन: किसी 'मान्यता' को स्वीकार कर संतोष मानना पड़ता है फिर भी भौतिक ज्ञान किसी सीमा तकतो सुनिश्चित होता ही है ! इसका सीधा कारण यह है कि वह 'विषयपरक' होता है अस्तित्व
के, और खासकरअपने-अस्तित्व' के मर्म से जुड़े प्रश्नों के बारे में तो वह ज्ञान अपर्याप्त ही सिद्ध होता है जब हम 'अपने-अस्तित्व' पर विचार करते हैं, (और फिलहाल तो हमें विचार ही वह एकमात्र 'माध्यम प्रतीत होता है, जिसे हम प्रयोग कर पारहे हैं !) तो हमारा ध्यान निस्संदेह 'अपने-आप' पर केन्द्रित होता है हम विचार करें या करें, हमारा 'अस्तित्व' तो अकाट्य-रूप से स्वयंसिद्ध ही है भले ही हम उसे अलग-अलग रूपों में स्वीकार करें, भले ही हम उसेपरिभाषित कर पाएँ, उस पर संदेह तक नहीं किया जा सकता क्योंकि तब 'संदेहकर्ता' का अस्तित्व ही संदिग्धहो जाता है !
पुनश्च, हमारा 'जानना' भी इसी प्रकार एक अकाट्य सत्य है। भले ही वह इन्द्रियज्ञान हो, वैचारिक, 'जानकारीपरकज्ञान हो, 'स्मृतिगत' ज्ञान हो, या इन्द्रियानुभवपरक ज्ञान हो इस प्रकार के किसी भी 'ज्ञान' में 'जानना' तोआधारभूत रूप से निहित होता है, जबकि 'ज्ञान' के ये 'प्रकार-विशेष', - ग्रहण किये जानेवाले 'विषयों' के अनुसारसतत परिवर्तित होते रहते हैं
इस प्रकार गीता के अध्ययन में निम्न प्रश्नों का सामना किसी भी गंभीर अध्येता को करना पड़ता है
.भाषा का प्रश्न : संस्कृत से अनभिज्ञ या अल्प-परिचित अध्येता की प्रमुख समस्या
.गीता के केन्द्रीय तत्त्व का निर्धारण
.उस तत्त्व को सही परिप्रेक्ष्य में ग्रहण करने हेतु सुयोग्य / अधिकारी मार्गदर्शन हेतु प्रयास
.अपनी बुद्धि की स्पष्टता तथा परिपक्वता
.पारंपरिक रीति से किसी अधिकारी, सक्षम व्यक्ति के मार्गदर्शन में अध्ययन करना या स्वयं ही अपने प्रयासों सेगीता के तत्त्व और शिक्षाओं को समझने का प्रयास करना
उपरोक्त प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य यह आवश्यक प्रतीत होता है कि सबसे पहले हम इस 'सत्य' को (फिलहाल बौद्धिक रूप सेही सही,) ठीक से समझकर हृदयंगम कर लें कि गीता में जिन दो बिन्दुओं को केन्द्रीय तत्त्व का स्थान दिया गया है, वे हैं 'सत्' एवं 'चित्' प्रथम का अर्थ है, : 'जो है' द्वितीय का अर्थ है, : 'जानना'
इन दोनों के बारे में स्वयं गीता में भी पर्याप्त स्पष्टता से विवेचना की गयी है
सामान्यत: इन दोनों तत्त्वों के बारे में गीता में जो कुछ कहा गया है, वह वेदान्त की स्थापित सैद्धांतिक परिपाटी परही आधारित है, इसलिए गीता का इस दृष्टि से यदि अध्ययन करें कि उसमें इन तत्त्वों के बारे में क्या कहा गया है, तो वेदान्त के विस्तृत अध्ययन का फल भी अनायास ही आनुषांगिक रूप से अध्येता को मिल जाता है
जब 'सत्' के अर्थ का चिंतन किया जाता है तो उसे ही 'ब्रह्म', 'आत्मा', आदि के पर्याय की तरह समझ लिया जाता है
इसी प्रकार जब 'चित्' के अर्थ का चिंतन किया जाता है, तो वह 'ज्ञान', 'चेतना', और 'चैतन्य' का ही पर्याय है यहस्पष्ट हो जाता है
बाद में कुछ अन्य पदों के प्रयोग के बारे में समझ लेना जरूरी है
जैसा कि हम बौद्धिक दृष्टि से भी निर्विवाद और अकाट्यत: समझ सकते हैं, यह 'सत्' और यह 'चित्' जिन्हें हमक्रमश: शुद्ध 'अस्तित्व-मात्र' और शुद्ध 'जानना' या 'बोध-मात्र' के रूप में भी पहचानते हैं, व्यक्त तथा अव्यक्त दोनों हीतालों पर हमसे अनन्य हैं जब हम जगत के व्यवहार को देखते हैं तो मूढ़ से मूढ़ व्यक्ति को भी यह समझने मेंथोड़ी भी कठिनाई नहीं होगी कि यह सब बहुत कुशलतापूर्वक, अत्यंत प्रज्ञासंपन्न किसी 'सत्ता' (Agent) के द्वारास्थापित विधान के अंतर्गत विशिष्ट नियमों से संचालित है यह तो स्पष्ट ही है कि वैज्ञानिक सिर्फ 'पुनरावृत्ति' औरकार्य-कारण' को सुनिश्चित मानकर उन नियमों का 'आविष्कार' भर करता है वह भी नहीं जानता कि क्या येनियम अंतिम और परम सत्य हैं या नहीं ! किन्तु इन नियमों के 'नियामक' के अस्तित्त्व को नकारा नहीं जा सकता एक चेतन सत्ता, जो कि इस प्रज्ञा की स्वामिनी है, और चूँकि 'सत्' तथा 'चित्' से अभिन्न भी है, (क्योंकि यदिभिन्न होती तो इन नियमों, विधानों को लागू नहीं कर सकती थी ) अवश्य अस्तित्त्वमान है , जिसे 'समष्टि-अस्तित्त्व' और 'समष्टि-ज्ञान' कह सकते हैं और यदि जगत के अस्तित्त्व को ही नकार दें तो भी अपने अस्तित्त्वतथा अपने अस्तित्त्वमान होने के सहप्राप्त बोध को कैसे असिद्ध किया जा सकता है ? यदि कहें कि वह (अस्तित्त्वएवं बोध) रासायनिक-द्रव्यों के पारस्परिक संघात का परिणाम है, तो भी उन द्रव्यों का बोध 'जिसे' भी है, वह तोसदैव उन द्रव्यों से पहले ही होता है इसका विपरीत किसी भी रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता। लेकिनहमारी तथाकथित वैज्ञानिक बुद्धि इस बारे में संशयग्रस्त अवश्य हो सकती है
इस प्रकार हमारा परिचय एक ऐसी 'सत्ता' से होता है, जो 'है', तथा जो 'चेतन' भी है, और इस समूचे अस्तित्त्व कोसंचालित करती है शुद्धत: वैज्ञानिक नियम ही उसके अद्भुत प्रज्ञावान होने के पर्याप्त प्रमाण हैं। चूँकि वह सबमेंव्याप्त है, और 'सब' उसमें ही 'प्रतिष्ठित' भी है, अत: उसे हम 'ईश्वर' कह सकते हैं हाँ हमारे पास अभी इस बारे मेंपर्याप्त जानकारी नहीं है कि उस 'सत्ता' का यथार्थ स्वरूप क्या है !
चूँकि वह 'सत्ता' एक ही साथ शुद्धत: 'आत्मपरक' (Subjective), 'वस्तुपरक' (Objective), 'अस्तित्त्वपरक' (Existential) तथा 'ज्ञानपरक'(Consciousness) भी है, इसलिए भी उसे अपने से पृथक की तरह जान पाना भीअसंभव है
इसीलिये गीता में 'उस तत्त्व' के लिए कहीं 'सर्व', कहीं 'ब्रह्म', कहीं 'सत्' कहीं 'चित्', कहीं 'ज्ञान', और कहीं 'तत्' आदिशब्दों का प्रयोग किया गया है फिर उसे ही 'अहम्' 'इदं' 'त्वम्' तथा ':', 'एतत्' और 'अयं' आदि संकेतवाचीसर्वनामों (demonstrative pronouns) से भी व्यक्त किया गया है यह भी देखना रोचक होगा कि उसे ही 'सत्य' एवं 'धर्म', 'तप' एवं 'योग', 'कर्म' तथा 'नैष्कर्म्य', 'भक्ति' तथा 'ज्ञान', 'निर्वाण' 'मुक्ति' आदि शब्दों से भी स्पष्ट कियागया है
यह तो गीता को समझने के लिए एक पर्याप्त उपयोगी बौद्धिक आधार हो सकता है
किन्तु 'पात्रता' का प्रश्न सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, और गीता की उदारता देखिये कि अत्यंत दुराचारी भी यदिअनन्यभाव से उस 'ईश्वर' की दिशा में अग्रसर है, तो वह उस तत्त्व में स्वीकार कर लिया जाता है
(अपि चेत् सुदुराचारी, भजतो मामन्यभाक्साधुरेव मन्तव्यो सम्यग्व्यवसितो हि : ..... )
तो पात्रता कैसे आती है, इस पर हम आगे विचार करेंगे


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Tuesday, January 19, 2010

गीता-प्रवेश से पूर्व

~~गीता : श्रीकृष्णार्जुन संवाद ~~
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गीता को उपनिषदों का सार कहा जाता है उपनिषद् वेदान्त के अंतर्गत हैं, और गीता, अर्थात श्रीकृष्ण-अर्जुन केबीच का पारस्परिक संवाद, जो महाभारत के युद्ध के समय हुआ था, महाभारत नामक ग्रन्थ में पाया जाता है ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार करनेवाले, या अस्वीकार करनेवाले, या बुद्धिजीवियों, विचारकों, भक्तों, संतों, साधकों,योगियों, दार्शनिकों, अनगिनत विद्वानों आदि ने गंभीरतापूर्वक इसका अध्ययन किया और अपने-अपने निष्कर्षनिकाले कौन किस निष्कर्ष पर पहुंचा, और क्या वह अपने निष्कर्ष से पूर्ण संतुष्ट तथा सुनिश्चित हो सका है, यह तो वही ठीक-ठीक जान-समझ सकता है दूसरे शब्दों में, क्या उसे गीता से जो पाने की अभिलाषा थी, वह उसे 'संशयरहित' रूप में प्राप्त हुआ ? क्या वह 'गतसंशय' हुआ ? और यह भी वह मनुष्य स्वयं ही जान सकता है
प्रस्तुत 'blog' मैं इस उद्देश्य से लिख रहा हूँ कि गीता के तात्पर्य को समझ सकूँ। इसका उद्देश्य तो किसी से बहसया वाद-विवाद करना है, यह किसी को संबोधित कर लिखा जा रहा है सिर्फ 'सौजन्यतावश' ही मैं इस 'blog' कोलोगों के लिए उपलब्ध होने दे रहा हूँ मेरा कोई ऐसा उद्देश्य कदापि नहीं है कि मैं गीता की व्याख्या, विवेचना, उपदेश आदि करूँ और जिन अनगिनत लोगों ने गीता की व्याख्या, विवेचना, प्रवचन आदि किये हैं, उनसे मेराकोई विरोध मतभेद आदि हो, ऐसा भी नहीं है मेरा एकमात्र अभीप्सित ध्येय यही है
कि गीता को समझने काप्रयास करूँ
अभी मैं अनुमान नहीं लगा पा रहा कि मैं इस दिशा में कैसे आगे बढूँगा

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