~~ गीताप्रवेश से पूर्व -2. ~~~
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अब तक गीता के असंख्य जिज्ञासुओं ने गीता-तत्त्व-चिंतन में अपना मन-प्राण और चित्त लगाया है । इसे मुमुक्षाकहिये, भक्ति कहिये, आत्म-ज्ञान की तीव्र उत्कंठा कहिये, तप, स्वाध्याय, योग कहिये, पुण्यकर्म, यज्ञ या साधना, ध्यान, उपासना, जो कुछ भी नाम दें, उन्हें गीता ने कभी खाली हाथ नहीं लौटाया है । लेकिन बात कोरे बुद्धिजीवियोंकी करें, तो हम देखते हैं कि भले ही वे कितने ही तर्क-कुशल और पुस्तकीय जानकारी से भरी विद्वत्ता से भरे हों, भले ही उन्होंने इस माध्यम से समाज में कोई हैसियत भी पा ली हो, उन्हें देखकर कुछ ऐसा लगता है कि उन्हें गीतासे कुछ क्यों न मिल सका ! वे गीता के अनेक तत्त्वों की मनमोहक व्याख्या भी कर सकते हैं, लेकिन उनके भीतरका संशय विदा क्यों नहीं हुआ ? वे किसी सुनिश्चित (बौद्धिक ही सही) निष्कर्ष तक क्यों नहीं पहुँच सके ?उनकाहृदय कोरा, खाली, रिक्त क्यों है ?
लेकिन हम किसी दूसरे के बारे में प्रामाणिक रूप से कुछ कैसे कह सकते हैं ? बेहतर तो यही होगा कि हम पहले इसबिंदु पर ध्यान दें कि क्या हममें गीता के तत्त्व को, मर्म को समझने और धारण करने की योग्यता है भी ?
गीता में 'धृति' शब्द का प्रयोग निम्न स्थानों पर किया गया है -
*अ.६ , श्लोक २५;
शनै: शनै: उप-रमेत् - बुद्ध्या धृति-गृहीतया ।
आत्म-सं स्थं मन: कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥
*अ.११, श्लोक २४;
नभ: स्पृशं दीप्तं अनेक वर्णं व्यात्ताननं दीप्त विशालनेत्रं ।
दृष्ट्वा हि त्वां पर व्यथितान्त रात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥
*अ.१०, श्लोक ३४;
मृत्यु: सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यतां ।
कीर्ति: श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृति: मेधा धृति: क्षमा ॥
*अ.१३,श्लोक ६;
इच्छा द्वेष: सुखं दु:खं संघातश्चेतना धृति: ।
एत त् क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतं ॥
*अ.१६,श्लोक ३;
तेज: क्षमा धृति: शौचं -अद्रोहो नातिमानिता ।
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥
*अ.१८,श्लोक २६,२९,३३,३४,३५,४३,५१ ;
मुक्त-संगो-नहंवादी धृति-उत्साह-समन्वित: ।
... ... ... (२६)
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणत: त्रिविधं शृणु ।
... ... ... (२९)
धृत्या यया धारयते मन:प्राणेन्द्रिय क्रिया: ।
योगेना व्यभिचारिण्या धृति: सा पार्थ सात्त्विकी ॥ (३३)
यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयते-र्जुन ।
प्रसंगेन फलाकांक्षी धृति: सा पार्थ राजसी ॥ (३४)
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च ।
न विमुन्चति दुर्मेधा धृति: सा पार्थ तामसी ॥ (३५)
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनं ।
दानमीश्वरभावश्च ... ... ... ... (४३)
तथा,
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च ।
शब्दादीन्विषयान्स्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ॥ (५१)
उपरोक्त श्लोकों से यह निष्कर्ष सरलतापूर्वक निकाला जा सकता है कि गीता में 'धृति' शब्द से क्या आशय ग्रहणकिया जा सकता है । क्या इसका निकटतम तात्पर्य 'पात्रता', चित्त की स्वाभाविक शांत, जागरूक, वृत्ति-विशेष सेअलिप्त प्रसन्न दशा, 'धारणा-शक्ति', 'धैर्य', 'धीरज', 'एकाग्रता', 'बुद्धिग्राहिता', 'समझ' 'संकल्प-शक्ति', 'ग्रहण करनेकी योग्यता', आदि नहीं होगा ? इसे पातंजलि-प्रणीत 'योग-दर्शन' में प्रयुक्त 'धारणा' के अर्थ में भी देखा जानाअवश्य ही बहुत उपयोगी होगा ।
अंग्रेज़ी में इसे हम 'understanding', 'gestalt' 'sensibility', 'awareness', 'perception', 'perceptibility', 'mental power', intelligence', 'retentivity','intention', 'potential', 'maturity', consistency, आदि शब्दोंके समकक्ष रख सकेंगे । वास्तव में इसमें इन सभी का तात्पर्य समाहित है ।
दूसरी ओर एक शब्द है 'अधिकारिता', जिसे अंग्रेज़ी में हम 'deserving' कह सकते हैं । इसका दूसरा अर्थकिया जाता है, लेकिन गीता में 'धृति' शब्द का अनुवाद 'authority' नहीं किया जा सकता ।
क्योंकि 'अधिकारी' शब्द उपदेश देनेवाले तथा ग्रहण करनेवाले दोनों की 'योग्यता' के लिए भी प्रयोग किया जाता है। 'अधिकारी' होने के लिए 'पात्रता' होना ज़रूरी होता है ।
अत: जब तक हम 'पात्रता' क्या है, इसे नहीं जान लेते तब तक गीता के तात्पर्य को ठीक से समझना संभव नहीं ।यही वह बिंदु है, जहाँ बड़े-बड़े विद्वान् भी प्रमादवश गीता की व्याख्या करते समय मर्म को समझे बिना हीयेन-केन-प्रकारेण अपना आग्रह आरोपित कर देते हैं ।
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