~~गीता : श्रीकृष्णार्जुन संवाद ~~
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गीता को उपनिषदों का सार कहा जाता है । उपनिषद् वेदान्त के अंतर्गत हैं, और गीता, अर्थात श्रीकृष्ण-अर्जुन केबीच का पारस्परिक संवाद, जो महाभारत के युद्ध के समय हुआ था, महाभारत नामक ग्रन्थ में पाया जाता है ।ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार करनेवाले, या अस्वीकार करनेवाले, या बुद्धिजीवियों, विचारकों, भक्तों, संतों, साधकों,योगियों, दार्शनिकों, अनगिनत विद्वानों आदि ने गंभीरतापूर्वक इसका अध्ययन किया और अपने-अपने निष्कर्षनिकाले । कौन किस निष्कर्ष पर पहुंचा, और क्या वह अपने निष्कर्ष से पूर्ण संतुष्ट तथा सुनिश्चित हो सका है, यह तो वही ठीक-ठीक जान-समझ सकता है । दूसरे शब्दों में, क्या उसे गीता से जो पाने की अभिलाषा थी, वह उसे 'संशयरहित' रूप में प्राप्त हुआ ? क्या वह 'गतसंशय' हुआ ? और यह भी वह मनुष्य स्वयं ही जान सकता है ।
प्रस्तुत 'blog' मैं इस उद्देश्य से लिख रहा हूँ कि गीता के तात्पर्य को समझ सकूँ। इसका उद्देश्य न तो किसी से बहसया वाद-विवाद करना है, न यह किसी को संबोधित कर लिखा जा रहा है । सिर्फ 'सौजन्यतावश' ही मैं इस 'blog' कोलोगों के लिए उपलब्ध होने दे रहा हूँ । मेरा कोई ऐसा उद्देश्य कदापि नहीं है कि मैं गीता की व्याख्या, विवेचना, उपदेश आदि करूँ । और जिन अनगिनत लोगों ने गीता की व्याख्या, विवेचना, प्रवचन आदि किये हैं, उनसे मेराकोई विरोध मतभेद आदि हो, ऐसा भी नहीं है । मेरा एकमात्र अभीप्सित ध्येय यही है कि गीता को समझने काप्रयास करूँ ।
अभी मैं अनुमान नहीं लगा पा रहा कि मैं इस दिशा में कैसे आगे बढूँगा ।
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