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Friday, June 4, 2021

विभूति-योग

7.

(उत्तरगीता)

महाराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से प्रश्न किया :

हे कृष्ण! 

अध्याय १० :

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जय। 

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविं।। ३७

उक्त श्लोक का अभिप्राय क्या है, कृपया कहें !

युधिष्ठिर के द्वारा यह निवेदन किए जाने पर श्रीकृष्ण ने कहा :

युधिष्ठिर! 

ध्यानपूर्वक सुनो! इससे पूर्व अर्जुन ने मुझसे कहा था :

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव। 

न ही ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः।। १४

स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।

भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते।। १५

वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः। 

याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि।। १६

कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्। 

केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।। १७

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन। 

भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ।। १८

अर्जुन के द्वारा यह जिज्ञासा की जाने पर मैंने उससे कहा :

हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः। 

प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।। १९

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः। 

अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।। २०

युधिष्ठिर!  

तब मैंने अर्जुन से कहा :

अर्जुन!  वस्तुतः तो मैं 'अहं' - आत्मा की तरह समस्त भूत-मात्रों के हृदय में ही निवास करता हूँ, और इसलिए वही मेरा परमधाम है, किन्तु व्यक्त रूप में जिन विभूतियों के माध्यम से मैं भक्तों के समक्ष प्रस्तुत होता हूँ उन्हें तुम प्रधानतः इस प्रकार से जानो! 

.. .. .. 

आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्। 

मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी।। २१

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।

इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।। २२

रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्। 

वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ।।२३

पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्। 

सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः।। २४

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।

यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालय।। २५

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः। 

गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।। २६

उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम्। 

ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्।। २७

आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्। 

प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः।। २८

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्। 

पितृृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ।। २९

('पितृणां' > 'तृ' में ऋकार दीर्घ है, जिसे यहाँ लिखने की सुविधा नहीं होने से यह त्रुटि सुधार लें।) 

प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम् ।

मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्।। ३०

पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।

झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी।। ३१

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।

अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्।। ३२

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च। 

अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः।। ३३

मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्। 

कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा।। ३४

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्। 

मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः।। ३५

द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्वितामहम्। 

जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्वतामहम् ।।३६

और हे युधिष्ठिर! 

इसी क्रम में मैंने अर्थात् वसुदेव के पुत्र वासुदेव ने अपना उल्लेख करते हुए कहा :

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।। ३७

ये सभी मेरी ही अर्थात् एकमेव मुझ परमात्मा की ही विभूतियाँ हैं। इसलिए युधिष्ठिर! इनमें से प्रत्येक ही मैं ही हूँ, और इसीलिए तुम, हे अर्जुन! इनमें से किसी भी विभूति में मेरी भावना करते हुए यदि मेरी उपासना करो, तो भी तुम एकमात्र मुझे ही प्राप्त हो जाओगे!

(इस प्रकार 'एकेश्वरवाद' की मर्यादा का संकेत किया गया।) 

हे युधिष्ठिर! 

मैं (अहम् - आत्मा) एक भी हूँ,  एक नहीं भी हूँ।*

मैं (अहम् -आत्मा) अनेक भी हूँ,  अनेक नहीं भी हूँ।*

मैं (अहम् -आत्मा)  शून्य भी हूँ,  अशून्य (शून्य नहीं भी) हूँ।*

मेरा वर्णन इस प्रकार से भी किया जाता है :

(अध्याय २)

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।। १६

(*तुलना करें देवी अथर्वशीर्ष से)

तथा :

यो वै रुद्रो स भगवान् यश्च ब्रह्मा तस्मै वै नमो नमः। १

...यश्च विष्णुस्तस्मै वै नमो नमः। २

यश्च स्कन्दः...। ३

यश्च इन्द्रः ...। ४

यश्च अग्निः ... । ५

यश्च वायुः ... । ६

यश्च सूर्यः। ७

यश्च सोमः । ८

अष्टौ ग्रहाः। ९

अष्टौ प्रतिग्रहाः।  १०

यच्च भूः। ११

यच्च भुवः । १२

यच्च स्वः । १३

यच्च महः । १४

या च पृथिवी । १५

यच्चान्तरिक्षं।  १६

या च द्यौ । १७

याश्चापः । १८

यच्च तेजः । १९

यश्च कालः । २०

यश्च यमः । २१

यश्च मृत्युः । २२

यच्चामृतं । २३

यच्चाकाशं । २४

यच्च विश्वं । २५

यच्च स्थूलं । २६

यच्च सूक्ष्मं । २७

यच्च शुक्लं । २८

यच्च कृष्णं । २९

यच्च कृत्स्नं । ३०

यच्च सत्यं । ३१

यच्च सर्वं । ३२

तस्मै वै रुद्राय नमो नमः।। 

(- शिवाथर्वशीर्षम्,

 इस प्रकार बहुदेववाद की मर्यादा को दर्शाया गया।)

इस प्रकार रुद्र (महादेव) सहित १+३२ = ३३ 'कोटि' के देवों के स्वरूप को स्पष्ट किया गया।) 

***

[प्रसंगवश :

क्रमशः १९, २०, २१, तथा २२ से वर्तमान कोरोना के संबंध का अनुमान किया जा सकता है, और यदि यह सत्य है तो वर्ष २३ में नए संसार की सृष्टि होगी ऐसा कहा जा सकता है।]

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Wednesday, June 2, 2021

गीताशास्त्र

6.

(उत्तरगीता)

प्रेरणा और प्रयोजन 

------------©----------

गीता अर्थात् "श्रीमद्भगवद्गीता" नामक महर्षि व्यास द्वारा रचित ग्रन्थ, जो महाभारत के भीष्मपर्व में पाया जाता है अपने इस कलेवर में एक स्वतंत्र धर्मशास्त्र है।

गीता के अध्याय १० में किया गया एक रोचक श्लोक इस प्रकार  से उल्लिखित है :

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।

मुनीनामऽप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ।। ३७

स्पष्ट है कि एक ही अहं (आत्मा रूपी तत्व), पर्याय से वासुदेव ही व्यक्त रूप से या व्यक्ति के रूप में श्रीकृष्ण, अर्जुन, व्यास तथा उशना नामक कवि है। 

यहाँ यह जानना कि कठोपनिषद् का प्रारंभ ही उशना के उल्लेख से ही होता है :

ॐ उशन् ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ। तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस। १

(प्रथम अध्याय,  प्रथम वल्ली) 

प्रसंगवश यहाँ यह भी दृष्टव्य है कि उशनस् यह नाम दैत्यों के गुरु, शुक्राचार्य अथवा भृगु / भार्गव का है। 

दूसरी ओर, उशीनर नामक देश कुरु से उत्तर में है :

(गोपथ ब्राह्मण २:९)

इस प्रकार हम संस्कृत से ग्रीक के संबंध का अनुमान कर सकते हैं। 

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चार पुरुषार्थों में से धर्म नामक पुरुषार्थ अर्थ के लिए प्रेरणा का कार्य करता है, जबकि अर्थ, धर्म का एक प्रयोजन-विशेष मात्र है। 

इसी प्रकार काम नामक पुरुषार्थ, मोक्ष का प्रेरक है और मोक्ष ही काम का प्रयोजन है।

किन्तु प्रेरणा और प्रयोजन की दृष्टि से गीता मूलतः धर्मशास्त्र है, जो कि धर्म के तीन व्यक्त प्रकारों, अधिभौतिक, आधिदैविक व आध्यात्मिक स्वरूप, और उसके आचरण अर्थात् अनुष्ठान की शिक्षा देता है। अतः गीता को एकेश्वरवाद या अनेकेश्वरवाद के सन्दर्भ में समझने का प्रयास ही मूलतः दोषपूर्ण, भ्रमोत्पादक और त्रुटिपूर्ण है। 

स्पष्ट है कि गीता में 'धर्म' का सन्दर्भ और उल्लेख व्यापक अर्थ में किया गया है, न कि समुदायों या सम्प्रदायों की अपनी अपनी मान्यताओं और पार्टियों (rituals) के तात्पर्य में 'religion' के अर्थ में। 

इसलिए गीता में जिस आधार पर इन विषयों की विवेचना की गई है, वह अधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक है।  मनुष्य को जो ज्ञात है, अस्तित्व / धर्म के  इन्हीं तीनों तलों पर, तथा उसी सन्दर्भ में यह विवेचन (treatment) गीता में पाया जाता है।

अधिभौतिक का तात्पर्य है : 

सांसारिक, लौकिक (mundane, secular), 

आधिदैविक का तात्पर्य है : 

मनो-जगत (psyche, mind) या मन का कार्यक्षेत्र, 

और आध्यात्मिक का तात्पर्य है :

आत्म-तत्व (the spiritual).

'आत्म-तत्व' शब्द से जिस तत्व (element) का उल्लेख वेदान्त के शास्त्रों में किया जाता है, उसका ही उल्लेख 'अहं-पदार्थ' शब्द के द्वारा भी किया जाता है । और पुनः उसका ही उल्लेख 'अहं' अर्थात् 'आत्मा' एवं 'अहंकार' इन दो पदों से भी किया जाता है।

इसलिए इस धर्मशास्त्र के गूढ विषय को रचनाकार महर्षि व्यास ने संस्कृत भाषा में इस प्रकार वर्णित किया कि केवल कोई पात्र मनुष्य ही इस विषय को इस ग्रन्थ के माध्यम से ग्रहण कर सके, किन्तु किसी भी अपात्र मनुष्य के लिए, पात्र अर्थात् अधिकारी होने तक, यह विषय और ग्रन्थ कठिन और दुरूह जान पड़े। 

इसलिए इस ग्रन्थ का तात्पर्य जान और समझ सकने के लिए बुद्धि की सूक्ष्मता ही नहीं, बल्कि चेतना (अर्थात् मन एवं चित्त) का शुद्ध होना ही उतनी ही अपरिहार्य आवश्यकता है।

चेतना (आत्मा) के चार व्यक्त प्रकार क्रमशः मन, बुद्धि, चित्त एवं अहं होते हैं। 

यही चेतना 'अहं' के अर्थ में आत्मा (Self), जबकि अहंकार के अर्थ में वैयक्तिकता (individuality,  self) है।

गीता नामक ग्रन्थ को धर्मशास्त्र (scripture) की तरह देखें, तो इसके तात्पर्य को तीन स्तरों से ग्रहण किया जा सकता है, और उस आधार पर इसकी विवेचना भी भिन्न भिन्न तरीकों से की जा सकती है :

बौद्धिक या सैद्धान्तिक (philosophical),

व्यावहारिक प्रयोग की दृष्टि से, मन (psychological) के परिप्रेक्ष्य में, तथा 

आध्यात्मिक सत्य (spirituality) की जिज्ञासा शान्त करने हेतु।

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Monday, August 26, 2019

अहम् / अहं ... 8.

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
--
अहम् / अहं 10/37, 10/38, 10/39, 10/42, 11/23, 11/42, 11/44,
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Saturday, August 24, 2019

अस्मि, (continued-next) ...

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index
--
अस्मि 10/31, 10/33, 10/36, 10/37, 10/38, 11/32, 11/45, 11/51,
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Tuesday, September 2, 2014

आज का श्लोक, ’वासुदेवः’ / ’vāsudevaḥ’

आज का श्लोक,  ’वासुदेवः’ / ’vāsudevaḥ’
___________________________________

’वासुदेवः’ / ’vāsudevaḥ’ - वसुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण,

अध्याय 7, श्लोक 19,

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
--
(बहूनाम् जन्मनाम्-अन्ते ज्ञानवान् माम् प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वम्-इति सः महात्मा सुदुर्लभः ॥)
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भावार्थ :
बहुत से जन्मों (और पुनर्जन्मों) के बाद, अन्त के जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त हुआ मनुष्य मेरी ओर आकर्षित होता है, मुझे भजता है । ऐसा वह मनुष्य, जिसकी दृष्टि में सब कुछ केवल वासुदेव ही होता है, वह महात्मा अत्यन्त ही दुर्लभ होता है ।
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टिप्पणी :
शाङ्कर-भाष्य में वासुदेव का अर्थ ’प्रत्यगात्मा’ कहा गया है ।
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अध्याय 10, श्लोक 37,

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ।
--
(वृष्णीनाम् वासुदेवः अस्मि पाण्डवानाम् धनञ्जयः ।
मुनीनाम् अपि अहम् व्यासः कवीनाम् उशना कविः॥

भावार्थ :
वृष्णिवंशियों में वासुदेव (कृष्ण) हूँ, पाण्डवों में धनंजय (अर्जुन), मुनियों में वेदव्यास, तथा कवियो में उशना (शुक्राचार्य / दैत्य-गुरु) मैं (हूँ) ।
--
अध्याय 11, श्लोक 50,

सञ्जय उवाच :
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा
स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतमेनं
भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ॥
--
(इति-अर्जुनम् वासुदेवः तथा-उक्त्वा
स्वकम् रूपम् दर्शयामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतम्-एनम्
भूत्वा पुनः सौम्यवपुः महात्मा ॥)
--    
अर्जुन से वासुदेव (भगवान् श्रीकृष्ण) ने इस प्रकार कहकर पुनः अपने निज (चतुर्भुज) स्वरूप का दर्शन दिया । भयभीत-चित्त अर्जुन के समक्ष महात्मा श्रीकृष्ण ने तब सौम्यरूप धारण कर अर्जुन को धीरज प्रदान किया ।
--

’वासुदेवः’ / ’vāsudevaḥ’ - (realizes Me as) vāsudeva, śrīkṛṣṇa.

Chapter 7, śloka 19,

bahūnāṃ janmanāmante
jñānavānmāṃ prapadyate |
vāsudevaḥ sarvamiti
sa mahātmā sudurlabhaḥ ||
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(bahūnām janmanām-ante
jñānavān mām prapadyate |
vāsudevaḥ sarvam-iti saḥ
mahātmā sudurlabhaḥ ||)
--
Meaning :
After many births (and rebirths) in the last birth, the  jñānavān / jñānī (Man who has attained the wisdom and Me as well) realizes Me as vāsudeva, The Consciousness Supreme, who abides ever in the hearts of all beings.
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Chapter 10, śloka 37,

vṛṣṇīnāṃ vāsudevo:'smi
pāṇḍavānāṃ dhanañjayaḥ |
munīnāmapyahaṃ vyāsaḥ
kavīnāmuśanā kaviḥ |
--
(vṛṣṇīnām vāsudevaḥ asmi
pāṇḍavānām dhanañjayaḥ |
munīnām api aham vyāsaḥ
kavīnām uśanā kaviḥ||
--
Meaning :
Among the vṛṣṇī (the clan / lineage of kṛṣṇa), I AM vāsudeva (śrīkṛṣṇa), among pāṇḍav - dhanañjaya (arjuna), among sages I AM vyās (vedavyāsa) I AM, and of seer-poets (kavi)  - uśanā / (śukrācārya / daitya-guru).
--
Chapter 11, shloka 50,
--
sañjaya uvāca :
ityarjunaṃ vāsudevastathoktvā
svakaṃ rūpaṃ darśayāmāsa bhūyaḥ |
āśvāsayāmāsa ca bhītamenaṃ
bhūtvā punaḥ saumyavapurmahātmā ||
--
(iti-arjunam vāsudevaḥ tathā-uktvā
svakam rūpam darśayāmāsa bhūyaḥ |
āśvāsayāmāsa ca bhītam-enam
bhūtvā punaḥ saumyavapuḥ mahātmā ||)
--    
Meaning :
sañjaya said ;  
Speaking thus to arjuna, vāsudeva (śrīkṛṣṇa) again showed to arjuna His usual form. Having thus resumed His Graceful and Elegent appearance, He comforted arjuna, who was so terrified a moment ago.
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Saturday, August 9, 2014

आज का श्लोक, ’वृष्णीनाम्’ / ’vṛṣṇinām’

आज का श्लोक, ’वृष्णीनाम्’ / ’vṛṣṇinām’
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’वृष्णीनाम्’ / ’vṛṣṇinām’ - वृष्णिवंश में उत्पन्न हुए लोगों में,

अध्याय 10, श्लोक 37,

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ।
--
(वृष्णीनाम् वासुदेवः अस्मि पाण्डवानाम् धनञ्जयः ।
मुनीनाम् अपि अहम् व्यासः कवीनाम् उशना कविः॥

भावार्थ :
वृष्णिवंशियों में वासुदेव (कृष्ण) हूँ, पाण्डवों में धनंजय (अर्जुन), मुनियों में वेदव्यास, तथा कवियो में उशना (शुक्राचार्य / दैत्य-गुरु) मैं (हूँ) ।
--

’वृष्णीनाम्’ / ’vṛṣṇinām’- those born in the race of 'vṛṣṇivaṃśa'

Chapter 10, śloka 37,

vṛṣṇīnāṃ vāsudevo:'smi
pāṇḍavānāṃ dhanañjayaḥ |
munīnāmapyahaṃ vyāsaḥ
kavīnāmuśanā kaviḥ |
--
(vṛṣṇīnām vāsudevaḥ asmi
pāṇḍavānām dhanañjayaḥ |
munīnām api aham vyāsaḥ
kavīnām uśanā kaviḥ||
--
Meaning :
Among the vṛṣṇī (the clan / lineage of kṛṣṇa), I AM vāsudeva (kṛṣṇa), among pāṇḍav - dhanañjaya (arjuna), among sages I AM vyās (vedavyāsa) I AM, and of seer-poets (kavi)  - uśanā / (śukrācārya / daitya-guru).
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