Wednesday, June 2, 2021

गीताशास्त्र

6.

(उत्तरगीता)

प्रेरणा और प्रयोजन 

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गीता अर्थात् "श्रीमद्भगवद्गीता" नामक महर्षि व्यास द्वारा रचित ग्रन्थ, जो महाभारत के भीष्मपर्व में पाया जाता है अपने इस कलेवर में एक स्वतंत्र धर्मशास्त्र है।

गीता के अध्याय १० में किया गया एक रोचक श्लोक इस प्रकार  से उल्लिखित है :

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।

मुनीनामऽप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ।। ३७

स्पष्ट है कि एक ही अहं (आत्मा रूपी तत्व), पर्याय से वासुदेव ही व्यक्त रूप से या व्यक्ति के रूप में श्रीकृष्ण, अर्जुन, व्यास तथा उशना नामक कवि है। 

यहाँ यह जानना कि कठोपनिषद् का प्रारंभ ही उशना के उल्लेख से ही होता है :

ॐ उशन् ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ। तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस। १

(प्रथम अध्याय,  प्रथम वल्ली) 

प्रसंगवश यहाँ यह भी दृष्टव्य है कि उशनस् यह नाम दैत्यों के गुरु, शुक्राचार्य अथवा भृगु / भार्गव का है। 

दूसरी ओर, उशीनर नामक देश कुरु से उत्तर में है :

(गोपथ ब्राह्मण २:९)

इस प्रकार हम संस्कृत से ग्रीक के संबंध का अनुमान कर सकते हैं। 

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चार पुरुषार्थों में से धर्म नामक पुरुषार्थ अर्थ के लिए प्रेरणा का कार्य करता है, जबकि अर्थ, धर्म का एक प्रयोजन-विशेष मात्र है। 

इसी प्रकार काम नामक पुरुषार्थ, मोक्ष का प्रेरक है और मोक्ष ही काम का प्रयोजन है।

किन्तु प्रेरणा और प्रयोजन की दृष्टि से गीता मूलतः धर्मशास्त्र है, जो कि धर्म के तीन व्यक्त प्रकारों, अधिभौतिक, आधिदैविक व आध्यात्मिक स्वरूप, और उसके आचरण अर्थात् अनुष्ठान की शिक्षा देता है। अतः गीता को एकेश्वरवाद या अनेकेश्वरवाद के सन्दर्भ में समझने का प्रयास ही मूलतः दोषपूर्ण, भ्रमोत्पादक और त्रुटिपूर्ण है। 

स्पष्ट है कि गीता में 'धर्म' का सन्दर्भ और उल्लेख व्यापक अर्थ में किया गया है, न कि समुदायों या सम्प्रदायों की अपनी अपनी मान्यताओं और पार्टियों (rituals) के तात्पर्य में 'religion' के अर्थ में। 

इसलिए गीता में जिस आधार पर इन विषयों की विवेचना की गई है, वह अधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक है।  मनुष्य को जो ज्ञात है, अस्तित्व / धर्म के  इन्हीं तीनों तलों पर, तथा उसी सन्दर्भ में यह विवेचन (treatment) गीता में पाया जाता है।

अधिभौतिक का तात्पर्य है : 

सांसारिक, लौकिक (mundane, secular), 

आधिदैविक का तात्पर्य है : 

मनो-जगत (psyche, mind) या मन का कार्यक्षेत्र, 

और आध्यात्मिक का तात्पर्य है :

आत्म-तत्व (the spiritual).

'आत्म-तत्व' शब्द से जिस तत्व (element) का उल्लेख वेदान्त के शास्त्रों में किया जाता है, उसका ही उल्लेख 'अहं-पदार्थ' शब्द के द्वारा भी किया जाता है । और पुनः उसका ही उल्लेख 'अहं' अर्थात् 'आत्मा' एवं 'अहंकार' इन दो पदों से भी किया जाता है।

इसलिए इस धर्मशास्त्र के गूढ विषय को रचनाकार महर्षि व्यास ने संस्कृत भाषा में इस प्रकार वर्णित किया कि केवल कोई पात्र मनुष्य ही इस विषय को इस ग्रन्थ के माध्यम से ग्रहण कर सके, किन्तु किसी भी अपात्र मनुष्य के लिए, पात्र अर्थात् अधिकारी होने तक, यह विषय और ग्रन्थ कठिन और दुरूह जान पड़े। 

इसलिए इस ग्रन्थ का तात्पर्य जान और समझ सकने के लिए बुद्धि की सूक्ष्मता ही नहीं, बल्कि चेतना (अर्थात् मन एवं चित्त) का शुद्ध होना ही उतनी ही अपरिहार्य आवश्यकता है।

चेतना (आत्मा) के चार व्यक्त प्रकार क्रमशः मन, बुद्धि, चित्त एवं अहं होते हैं। 

यही चेतना 'अहं' के अर्थ में आत्मा (Self), जबकि अहंकार के अर्थ में वैयक्तिकता (individuality,  self) है।

गीता नामक ग्रन्थ को धर्मशास्त्र (scripture) की तरह देखें, तो इसके तात्पर्य को तीन स्तरों से ग्रहण किया जा सकता है, और उस आधार पर इसकी विवेचना भी भिन्न भिन्न तरीकों से की जा सकती है :

बौद्धिक या सैद्धान्तिक (philosophical),

व्यावहारिक प्रयोग की दृष्टि से, मन (psychological) के परिप्रेक्ष्य में, तथा 

आध्यात्मिक सत्य (spirituality) की जिज्ञासा शान्त करने हेतु।

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