Tuesday, June 1, 2021

कालेन

5.

(उत्तरगीता) 

महाराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा :

हे प्रभु! 

पात्रता की दृष्टि से अर्जुन में और मुझमें क्या समानता और क्या भिन्नता है, कृपया कहें! 

तब भगवान् श्रीकृष्ण बोले :

युधिष्ठिर! जैसा कि तुम्हारा नाम और गुण है, तुम युद्ध के समय भी स्थिरबुद्धि होते हो, जबकि अर्जुन ऐसे समय में कर्तव्य क्या है तथा अकर्तव्य क्या है, इस द्वन्द्व से मोहित-बुद्धि हो गया था। 

इस प्रकार उसकी निष्ठा साङ्ख्य के अनुकूल न होकर कर्म के अनुकूल थी। तुममें ऐसा द्वन्द्व या संशय नहीं उत्पन्न होता है।

उसे उसके अनुकूल शिक्षा देने हेतु मैंने उससे कहा :

(अध्याय ३)

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।

कुर्याद्विद्वांस्तथासक्ताश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ।। २५

तथा, 

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्। 

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।। २६

इस प्रकार उसकी निष्ठा कर्म में होने से उसमें कर्तृत्व, भोक्तृत्व, स्वामित्व और ज्ञातृत्व रूपी अज्ञान और तज्जनित दुविधा एवं संशय भी थे ही। 

इसलिए मैंने परिस्थिति के अनुरूप उसे वह शिक्षा दी जिससे कि समय आने पर वह भी तुम्हारी तरह साङ्ख्य की शिक्षा का पात्र हो सके। 

इसीलिए मैंने उसे कर्मयोग अर्थात् राजयोग, राजविद्या की वही शिक्षा प्रदान की जो कि महान काल के प्रभाव से विलुप्तप्राय हो चुकी थी।

इसलिए तुम्हारे लिए मैं पुनः जिस उत्तरगीता का उपदेश करूँगा, उसे सुनकर तुम्हारी यह जिज्ञासा शान्त हो जाएगी कि क्या मैंने अर्जुन को तुमसे भिन्न कोई विशेष शिक्षा दी थी।

(अध्याय ४)

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।। १

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।। २

स एवायं मया तेऽद्य योगं प्रोक्तः पुरातनः।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।। ३

अर्जुन उवाच :

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।। ४

तब मैंने अर्जुन से कहा :

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। 

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप।। ५

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। 

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया।। ६

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। 

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। ७

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। 

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। ८

तथा --

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः। 

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।। ९

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।। ३७

--

हे युधिष्ठिर! 

उपरोक्त श्लोकों से तुम समझ सकते हो कि यहाँ मुझ परमात्मा अर्थात् ईश्वर, जीवात्मा अर्थात् जीव, और आत्मा की अनन्यता को इंगित किया गया है। 

'अहं' पद (शब्द) का प्रयोग उत्तम पुरुष एकवचन तथा अन्य पुरुष एकवचन दोनों अर्थों में ग्राह्य है। 

इसी प्रकार से क्रिया-पद 'वेद' भी उत्तम पुरुष एकवचन तथा अन्य पुरुष एकवचन से सुसंगत है। 

इसलिए जो इसे जान लेता है कि मेरा जन्म तथा कर्म दिव्य है, उसे पुनर्जन्म प्राप्त नहीं होता, और वह मुझे ही प्राप्त हो जाता है।

जिस तरह एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने के लिए मनुष्य पैदल या वाहन आदि के मार्ग से जाते हैं, किन्तु पक्षी आकाश के मार्ग से उड़कर शीघ्र ही वहाँ पहुँच जाता है, उसी प्रकार कर्मयोग के मार्ग का अधिकारी पुरुष यद्यपि कुछ समय व्यतीत करते हुए अनेक माध्यमों से मुझे प्राप्त हो सकता है, किन्तु साङ्ख्य-योग का अधिकारी ज्ञानमार्ग का अवलंबन करते हुए, तत्काल ही मुझे प्राप्त हो जाता है।

किन्तु यह भेद भी वैसा ही औपचारिक और आभासी है, जैसे कि स्वप्न के पूर्ण हो जाते ही, जाने पर, स्वप्न में प्रतीत होनेवाला समय मिथ्या प्रतीत होने लगता है।

***





No comments:

Post a Comment