Sunday, June 30, 2013

’श्री रमण महर्षि से बातचीत’ पुस्तक से उद्धृत अंश -१

’श्री रमण महर्षि से बातचीत’ पुस्तक से उद्धृत अंश -१
§ 58.  श्री रंगनाथन, आई.सी.एस. :
श्रीमद्भग्वद्गीता में एक जगह कहा है : व्यक्ति का स्वयं का धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है; दूसरे का धर्म भय देनेवाला है । स्वधर्म का क्या महत्त्व है?
महर्षि : सामान्यतया स्वधर्म  से तात्पर्य विशिष्ट कोटि तथा जातिगत कर्त्तव्यों  से है । भौतिक वातावरण भी ध्यान में रखना चाहिए ।
भक्त : यदि वर्णाश्रम धर्म से आशय है तो इस प्रकार के धर्म का प्रचलन तो भारत में ही है । जबकि गीता का उपयोग तो अखिल जगत् के हेतु होना चाहिए ।
महर्षि : हर देश में किसी न किसी रूप में वर्णाश्रम विद्यमान है । महत्त्व इस बात है कि एकमात्र आत्मा में स्थित रहो, वहाँ से बाहर न भटको इसका वास्तविक भाव यही है ।
 स्व = स्वयं का अर्थात् आत्मा का ।
पर = दूसरे का अर्थात् अनात्मा का ।
आत्मधर्म का प्रतिष्ठान आत्मा में है । वहाँ क्लेश अथवा भय नहीं होंगे । जब कोई अन्य होता है तभी दुःख उत्पन्न होता है । यदि यह अनुभूति हो कि केवल एकमात्र आत्मा ही है, दूसरा कोई नहीं है, तब भय नहीं होगा । आज मानव भ्रमवश अनात्म-धर्म को आत्म-धर्म समझकर दुःख उठाता है ।  उसे (आत्मा को) जानकर उसी में स्थित रहना चाहिए । तब भय का अन्त हो जाता है और संशय भी नहीं रहते । यदि इसका अर्थ वर्णाश्रम धर्म लें तो भी यही आशय निकलेगा । ऐसा धर्म तभी फलदायक होगा जब निःस्वार्थ भाव से किया जाये । अर्थात् यह मान लिया जाय कि कर्त्ता नहीं है परन्तु किसी उच्चतर सत्ता का यन्त्र मात्र है । उच्चतर सत्ता अवश्यम्भावी को होने दे और मैं केवल उसके आदेशों का ही पालन करूँ । कर्म मेरे नहीं हैं । इसलिए कर्मों के परिणाम भी मेरे नहीं हो सकते । यदि इसके अनुरूप विचार तथा कर्म हों तो कष्ट है कहाँ?  चाहे वर्णाश्रम धर्म हो अथवा लौकिक धर्म यह महत्व का नहीं है । अन्ततोगत्वा निष्कर्ष यह निकला :
 स्व = आत्मनः
पर = अनात्मनः
ऐसे संशय स्वाभाविक हैं । शास्त्रानुसार व्याख्या का आधुनिक जीवन से सामञ्जस्य नहीं हो सकता, जिसे जीवनयापन हेतु अनेक प्रकार से कार्य करना होता है ।
पोंडी से आये एक व्यक्ति ने बीच में टोका :
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । सब कर्त्तव्यों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आओ । 
श्रीभगवान : सर्व अनात्मनः ही है; महत्त्व ’एक’ का है । जिस मनुष्य की दृढ़ स्थिति ’एक’ पर है, उसके लिए धर्म कहाँ है ? तात्पर्य यह है कि "आत्मा में निमग्न हो जाओ ।"
भक्त : गीता का उपदेश तो कार्य करने के लिए किया गया था ।
महर्षि : गीता क्या कहती है ? अर्जुन ने युद्ध करने से इन्कार कर दिया । कृष्ण ने कहा, " जब तक तुम लड़ने से इन्कार करते रहोगे; तुम में कर्त्तापन का भाव रहेगा । युद्ध  करने अथवा न करने वाले तुम हो कौन् ? कर्त्ता भाव को त्यागो । जब तक उस भाव का निवारण नहीं करोगे तुम्हें कर्म तो करना ही होगा । उच्चतर सत्ता तुम्हारा उपयोग कर रही है । उसके आदेश के पालन की अवहेलना कर तुम स्वयं उसी सत्ता को स्वीकार कर रहे हो । इसकी अपेक्षा उस सत्ता को अंगीकार कर उसके आदेशों का यन्त्रवत् पालन करो । (अन्य प्रकार से कहें तो) यदि तुम इन्कार करोगे तो तुम्हें बलपूर्वक युद्ध में खींच लिया जायेगा । अनिच्छुक कर्त्ता की अपेक्षा इच्छापूर्वक कार्य करना श्रेयस्कर है ।"
 "अथवा आत्मा में स्थित हो कर्त्तापन के भाव से रहित होकर स्वभावानुसार कर्म करो । तब कर्म का फल तुम्हें प्रभावित नहीं करेगा । यही पुरुषार्थ एवं वीरता है ।"
’आत्मा में संस्थिति’ ही गीता के उपदेश का सार है । अन्त में महर्षि ने स्वयं फिर कहा, "यदि मनुष्य आत्मा में स्थित है, ये संशय उदय नहीं होंगे । वे तभी तक उदय होते हैं जब तक वह वहाँ स्थित नहीं होता ।"
भक्त : जिज्ञासु का ऐसे उत्तर से क्या हित होगा ?
महर्षि : फिर भी शब्दों में शक्ति होती है जो यथासमय निश्चय ही फल लाएगी ।
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