~~ राजनीति और धर्म ~~ 1.
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गीता (अध्याय २) में कहा गया है;
ध्यायतो विषयान्पुन्सः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्संजायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥६२॥
क्रोधात्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद्-बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥६३॥
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥६४॥
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ध्यायतो > ध्यायतः > जिसका ध्यान उन, विषयान् > विषयों पर होता है, पुन्सः > उस मनुष्य की, सङ्गः तेषु -उपजायते > उन विषयों के साथ चित्त की संलग्नता हो जाती है । इस प्रकार चाहते या न चाहते हुए भी, अन - वधानतावश मनुष्य उन विभिन्न विषयों में प्रवृत्त हो जाता है । स्पष्ट है कि सारे ही विषय चित्त से अन्य हैं, अर्थात् ’जड’ हैं, क्योंकि चित्त ’चेतन-सत्ता’ की रश्मि मात्र ही तो है । उनसे चित्त का संग होने पर चित्त में उनकी सत्यता होने का बुद्धि-भ्रम उपजता है । उनकी सत्यता की बुद्धि होने पर, सङ्गात्-संजायते कामः > इस प्रकार के संग से उन्हें प्राप्त करने की उत्कण्ठा अर्थात् कामना उत्पन्न हो जाती है । कामात् क्रोधः अभिजायते > और कामना दुष्पूर होती है, क्योंकि विषय अनंत, तथा इन्द्रियों की भोग-क्षमता अत्यन्त अल्प है. इसलिए क्रोध का आगमन होता है । क्रोधात् भवति > क्रोध से उत्पन्न होता है, संमोहः > मोह की भावना का अतिरेक, संमोहात्-स्मृति-विभ्रमः > और मोह के इस अतिरेक से स्मृति का सामञ्जस्य खो जाता है । स्मृति-भ्रंशात्-बुद्धिनाशः > स्मृति के असामञ्जस्य अव्यवस्थित हो जाने से सहज स्वाभाविक विवेक-बुद्धि नष्ट हो जाती है । बुद्धि-नाशात्-प्रणश्यति > इस प्रकार से विवेक-बुद्धि के नष्ट होने पर चित्त की सरलता, स्पष्टता, समझने की स्वाभाविक क्षमता नष्ट हो जाती है । दूसरी ओर, राग-द्वेषवियुक्तैः > राग-द्वेष से शून्य, तु > किन्तु, विषयान् इन्द्रियः चरन् > जो हैं, जिसकी इन्द्रियाँ विषयों के संसर्ग में रहते हुए भी, आत्म-वश्यैःविधेय-आत्मा > जिसका चित्त संपूर्णतः आत्मा में स्थिर और समाहित है , ऐसा मनुष्य, प्रसादम् अधिगच्छति > आत्मा की शान्ति के प्रसाद का उपभोग करता है ।
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विवेकचूडामणि (श्लोक३२५) में कहा गया है;
लक्ष्यच्युतं चेद्यदि चित्तमीषद् बहिर्मुखं सन्निपतेत्तस्ततः ।
प्रमादतः प्रच्युतकेलिकन्दुकः सोपानपङ्क्तौ पतितो यथा तथा ॥
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गीता (अध्याय २) में कहा गया है;
ध्यायतो विषयान्पुन्सः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्संजायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥६२॥
क्रोधात्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद्-बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥६३॥
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥६४॥
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ध्यायतो > ध्यायतः > जिसका ध्यान उन, विषयान् > विषयों पर होता है, पुन्सः > उस मनुष्य की, सङ्गः तेषु -उपजायते > उन विषयों के साथ चित्त की संलग्नता हो जाती है । इस प्रकार चाहते या न चाहते हुए भी, अन - वधानतावश मनुष्य उन विभिन्न विषयों में प्रवृत्त हो जाता है । स्पष्ट है कि सारे ही विषय चित्त से अन्य हैं, अर्थात् ’जड’ हैं, क्योंकि चित्त ’चेतन-सत्ता’ की रश्मि मात्र ही तो है । उनसे चित्त का संग होने पर चित्त में उनकी सत्यता होने का बुद्धि-भ्रम उपजता है । उनकी सत्यता की बुद्धि होने पर, सङ्गात्-संजायते कामः > इस प्रकार के संग से उन्हें प्राप्त करने की उत्कण्ठा अर्थात् कामना उत्पन्न हो जाती है । कामात् क्रोधः अभिजायते > और कामना दुष्पूर होती है, क्योंकि विषय अनंत, तथा इन्द्रियों की भोग-क्षमता अत्यन्त अल्प है. इसलिए क्रोध का आगमन होता है । क्रोधात् भवति > क्रोध से उत्पन्न होता है, संमोहः > मोह की भावना का अतिरेक, संमोहात्-स्मृति-विभ्रमः > और मोह के इस अतिरेक से स्मृति का सामञ्जस्य खो जाता है । स्मृति-भ्रंशात्-बुद्धिनाशः > स्मृति के असामञ्जस्य अव्यवस्थित हो जाने से सहज स्वाभाविक विवेक-बुद्धि नष्ट हो जाती है । बुद्धि-नाशात्-प्रणश्यति > इस प्रकार से विवेक-बुद्धि के नष्ट होने पर चित्त की सरलता, स्पष्टता, समझने की स्वाभाविक क्षमता नष्ट हो जाती है । दूसरी ओर, राग-द्वेषवियुक्तैः > राग-द्वेष से शून्य, तु > किन्तु, विषयान् इन्द्रियः चरन् > जो हैं, जिसकी इन्द्रियाँ विषयों के संसर्ग में रहते हुए भी, आत्म-वश्यैःविधेय-आत्मा > जिसका चित्त संपूर्णतः आत्मा में स्थिर और समाहित है , ऐसा मनुष्य, प्रसादम् अधिगच्छति > आत्मा की शान्ति के प्रसाद का उपभोग करता है ।
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विवेकचूडामणि (श्लोक३२५) में कहा गया है;
लक्ष्यच्युतं चेद्यदि चित्तमीषद् बहिर्मुखं सन्निपतेत्तस्ततः ।
प्रमादतः प्रच्युतकेलिकन्दुकः सोपानपङ्क्तौ पतितो यथा तथा ॥
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