’श्री रमण महर्षि से बातचीत’ पुस्तक से उद्धृत अंश -२.
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24 जनवरी,1935.
§17.
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ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के एक अंग्रेज रिसर्च स्कॉलर श्री एम.वाई. इवांस-वैंज श्री ब्रंटन का परिचय-पत्र लेकर दर्शनार्थ आये । यात्रा की थकान होने के कारण उन्हें विश्राम की आवश्यकता थी । अनेक बार भारत आने के कारण वे भारत के रहन-सहन से भलीभाँति परिचित हैं । वे तिब्बती भाषा सीख चुके हैं तथा तिब्बत के सबसे महान योगी ’मिलरेपा की जीवनी’ तथा ’मृतकों की पुस्तक’ तथा एक अन्य पुस्तक ’तिब्बत के गुप्त सिद्धान्त’ का अनुवाद उनकी सहायता से हुआ ।
दोपहर में उन्होंने कुछ प्रश्न पूछने प्रारंभ किये । प्रश्न योग से सम्बन्धित थे । वे जानना चाहते थे कि योग-आसन करने के लिए बाघ, हरिण आदि को उनके चर्म के लिए मारना क्या उचित है ?
महर्षि : मन ही बाघ अथवा हरिण है ।
भक्त : यदि सब कुछ माया हो तो जीवन ले सकते हैं ?
महर्षि : भ्रम किसको है? उसकी खोज करो! वास्तव में अपने जीवन में प्रति क्षण, प्रत्येक व्यक्ति ’आत्मा का हनन’ कर रहा है ।
भक्त : आसनों में कौन-सा श्रेष्ठ है ?
महर्षि : आसन कोई भी हो, जैसे सुखासन; कोई भी सरल आसन (अथवा अर्द्ध-बुद्धासन) अच्छा है । परन्तु ज्ञान मार्ग के लिए इन सबका कोई महत्त्व नहीं ।
भक्त : क्या आसन से व्यक्ति के स्वभाव का अभास होता है ?
महर्षि : हाँ ।
भक्त : व्याघ्र चर्म, नमदा तथा हरिण चर्म के क्या-क्या गुण व प्रभाव हैं ?
महर्षि : कुछ व्यक्तियों ने उनका अध्ययन कर उनका योग के ग्रन्थों में वर्णन किया है । चुम्बकीयता के संचालन-प्रसंचालन से इनका संबंध है, पर ज्ञान-मार्ग का इन चीजों से कोई सम्बन्ध नहीं । वास्तव में आसन का उद्देश्य आत्मा की अनुभूति तथा उसमें दृढ़तापूर्वक स्थिर होना है । यह आन्तरिक है । अन्य आसन बाह्य स्थितियों के वर्णन हैं ।
भक्त : ध्यान करने के लिए कौन-सा समय सबसे उपयुक्त है?
महर्षि : समय क्या वस्तु है ?
भक्त : आप ही बताइए वह क्या है ?
महर्षि : समय एक विचार मात्र है । अस्तित्व केवल सत्य का है । जो कुछ भी संकल्प आप करते हैं कि वह है, वह वैसा ही दीखता है । यदि आप इसे समय कहे तो यह समय है; यदि इसे आप अस्तित्त्व कहें तो यह अस्तित्त्व है और इसी प्रकार इसे समय मानकर आप दिवस तथा रात्रियों में विभाजित कर लेते हैं तथा मास वर्ष, घण्टे एवं मिनट आदि में भी । ज्ञान मार्ग का समय से कोई संबंध नहीं । किन्तु प्रारंभ में साधक के लिए इस प्रकार के कुछ अनुशासन एवं नियमादि सहायक हो सकते हैं ।
भक्त : ज्ञानमार्ग क्या है ?
महर्षि : मन की एकाग्रता तथा योग दोनों साधनों में समान रूप से आवश्यक है । योग का लक्ष्य जीव का ब्रह्म - परम सत्य - से एकीकरण है । यह कोई नवीन वस्तु नहीं हो सकती । यह तो अभी भी विद्यमान होनी चाहिए और यह है भी । इसलिए ज्ञानमार्ग यह शोध करता है कि हमारा सत्य से वियोग क्यों कर हुआ । वियोग केवल सत्य से ही हुआ है ।
भक्त : माया क्या है ?
महर्षि : माया किसको है ? उसे खोज लो तो माया का लोप हो जाएगा ।
प्रायः लोग माया के संबंध में जिज्ञासा करते हैं, किन्तु माया किसको प्रभावित कर रही है इसकी परीक्षा नहीं करते । यह मूर्खता है । माया बाहर है तथा अज्ञात है । किन्तु जिज्ञासा करनेवाला ज्ञात है तथा अन्तर में है । जो दूर है तथा अज्ञात है उसकी अपेक्षा जो अति समीप तथा अपने अन्दर है उसकी खोज करो ।
भक्त : क्या महर्षि यूरोपवासियों के लिए किसी विशेष आसन की सलाह देंगे ?
महर्षि : आसन निर्दिष्ट किए जा सकते हैं किन्तु यह जान लीजिए कि आसन, निर्धारित समय, तथा इस प्रकार की अन्य सामग्री के अभाव में ध्यान वर्जित नहीं है ।
भक्त : क्या महर्षि विशेषतया यूरोपवासियों के लिए किसी विशेष पद्धति का निर्देशन करेंगे ?
महर्षि : यह साधक के मानसिक विकास के अनुसार ही होता है । वास्तव में कोई निर्धारित एवं निश्चित नियम नहीं है ।
श्री इवांस-वैंज अधिकतर योग की प्रारम्भिक साधना से संबंधित प्रश्न करते रहे जिन्हें महर्षि ने योग के साधन मात्र कहा तथा योग को भी आत्म-साक्षात्कार का साधन ही बताया जो सबका लक्ष्य है ।
भक्त : क्या सांसारिक कार्य आत्म-साक्षात्कार में बाधक हैं ?
महर्षि : नहीं । ज्ञानी की दृष्टि में केवल आत्मा ही एकमात्र सत्य है, कर्म तो आभास मात्र हैं, वे आत्मा को प्रभावित नहीं करते । ज्ञानी कार्य करते हुए भी स्व्अयं को कर्त्ता नहीं मानता । उसके कार्य भी अपने आप होने जैसे होते हैं तथा वह पूर्णतया निर्लेप रहकर उन कार्यों का केवल साक्षी मात्र रहता है ।
इस प्रकार के कार्य का कोई लक्ष्य नहीं होता । ज्ञानमार्ग का साधक कार्यरत रहता हुआ भी साधना कर सकता है । प्रारंभिक अवस्था में साधक को कुछ कठिनाई हो सकती है, किन्तु कुछ अभ्यास के बाद शीघ्र ही इसका प्रभाव होगा फिर कर्मों से उसके ध्यान में कोई बाधा नहीं होगी ।
भक्त : अभ्यास क्या है ?
महर्षि : ’मैं की निरन्तर खोज, जो अहम् भाव का मूल स्रोत है । यह खोज करो कि ’मैं’ कौन हूँ ?’ शुद्ध ’मैं’ ही सत्य है, वही परब्रह्म सच्चिदानन्द है । उसको भूलने से ही सारे कष्ट एवं क्लेशों का जन्म होता है । जब इसको दृढ़ कर लिया जाय तो व्यक्ति दुःखों से छुटकारा पा जाता है ।
भक्त : क्या आत्म-साक्षात्कार के लिए ब्रह्मचर्य आवश्यक नहीं ?
महर्षि : ’ब्रह्म में रहना’ ही ब्रह्मचर्य है । सामान्य धारणा में जिसे ब्रह्मचर्य समझा जाता है, उससे इसका कोई संबंध नहीं । वास्तविक ब्रह्मचारी अर्थात् ब्रह्म में ही स्थित रहनेवाला तो ब्रह्म में ही सर्वानन्द की प्राप्ति कर लेता है, वह ब्रह्म आत्मा से भिन्न नहीं । फिर आनन्द के अन्य स्रोतों की खोज क्यों ? वास्तव में आत्मा से बाहर होना ही सारे क्लेशों का मूल है ।
भक्त : क्या ब्रह्मचर्य पालन योग के लिए आवश्यक है?
महर्षि : यह सही है । साक्षात्कार के अनेक साधनों में ब्रह्मचर्य भी एक साधन है ।
भक्त : फिर क्या यह अत्यन्त आवश्यक नहीं ? क्या विवाहित पुरुष आत्म-साक्षात्कार कर सकता है ?
महर्षि : निश्चयपूर्वक । यह तो मन की योग्यता का विषय है । विवाहित हो अथवा अविवाहित, मनुष्य आत्म-साक्षात्कार कर सकता है क्योंकि आत्मा यहीं है, तथा अभी है । यदि ऐसा नहीं होता तथा इसकी उपलब्धि कभी आगे होती एवं यह कोई नवीन वस्तु होती जिसे प्राप्त करना होता तो ऐसा प्रयास वृथा ही होता । क्योंकि जो स्वाभाविक नहीं है वह स्थायी भी नहीं हो सकता । पर मैं यह कहता हूँ - आत्मा यहाँ है, अभी है तथा केवल उसी की सत्ता है ।
भक्त : ईश्वर सब में व्यापक है, अतः किसी जीव का जीवन नहीं लेना चाहिए । क्या हत्यारे का जीवन लेने का समाज का अधिकार उचित है ? क्या राज्य भी औसा कर सकता है ? ईसाई देश इस प्रकार का विचार करने लगे हैं कि ऐसा करना उचित नहीं ।
महर्षि : हत्यारे को हत्या करने के लिए किसने प्रेरित किया ? वही शक्ति उसे दण्ड देती है । समाज या राज्य तो उस शक्ति के हाथ में यन्त्र मात्र हैं । तुम एक व्यक्ति के प्राण लेने की बात करते हो युद्धों में असंख्य प्राणियों के जीवन जाते हैं, उसको क्या कहोगे ?
भक्त : ऐसा ही है । जीवन की हानि किसी भी प्रकार हो अनुचित ही है । क्या युद्ध उचित हैं ?
महर्षि : आत्मज्ञानी पुरुष के लिए जो सदैव आत्मा में ही स्थित है, इस लोक में अथवा तीनों लोकों में एक जीव की अथवा सब जीवों की हानि से कोई अन्तर नहीं पड़ता । यदि वह सब को नष्ट कर दे तो भी ऐसी शुद्धात्मा को कोई पाप स्पर्श नहीं कर सकता । महर्षि ने गीता के अठारहवें अध्याय का सत्रहवाँ श्लोक उद्धृत किया -
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥
"जो अहम् के भाव से सर्वथा शून्य है जिसकी बुद्धि संसार में लिपायमान नहीं है, यदि वह सब लोकों का भी संहार कर दे तो भी वह किसी को नहीं मारता और न वह अपने कर्मों के फल से ही बंधायमान होता है ।"
भक्त : व्यक्ति के कर्म क्या उसके बाद के जन्मों पर प्रभाव नहीं डालते ?
महर्षि : क्या तुम अभी जन्मे हो ? तुम दूसरे जन्मों की चिन्ता क्यों करते हो ? यथार्थ में न तो जन्म है न मृत्यु है । जो जन्मा हो उसे मृत्यु तथा शान्ति देनेवाले साधनों पर विचार करने दो ।
भक्त : महर्षि को आत्म-साक्षात्कार में कितना समय लगा ?
महर्षि : यह प्रश्न इसलिए पूछा गया है कि नाम एवं रूप की प्रतीति हो रही है । यह प्रतीति अहम् के स्थूल शरीर से तादात्म्य कर लेने से उत्पन्न हुई है ।
यदि अहम् स्वयं को सूक्ष्म मन से मिला लेता है, जैसे कि स्वप्नावस्था में तो प्रतीति भी सूक्ष्म हो जाती है; परन्तु सुषुप्ति में कोई प्रतीति नहीं होती । क्या उस समय भी अहम् का अस्तित्व नहीं रहता ? यदि नहीं रहता तो सुषुप्ति की स्मृति भी नहीं रहती । जो सोया था वह कौन था ? अपनी सुषुप्ति में तुम नहीं कह रहे थे कि तुम सो रहे थे । यह तो तुम अब जागने पर कह रहे हो । इससे यह सिद्ध हुआ कि ’अहम्’ का भाव जाग्रत्, स्वप्न व सुषुप्ति में यथावत रहता है । इन अवस्थाओं की तह में जो सत्य (आत्मा) है उसे जानो । वही सत्य इन सब अवस्थाओं की तह में है । उस अवस्था में केवल अस्तित्व अथवा सत्ता है । वहाँ तू, मैं या वह नहीं है; न वर्तमान, भूत या भविष्य है । वह देश अथवा काल से परे है तथा अनिर्वचनीय है । वह तो सदैव है ।
जिस प्रकार केले का वृक्ष फल देकर समाप्त होने से पहले मूल की शाखाएँ बढ़ाता है एवं अन्यत्र रोपे जाने पर ये शाखाएँ पुनः फलवती होकर यही कार्य पुनः करती हैं; इसी प्रकार प्रारम्भिक युग के एवं अत्यन्त प्राचीन समय के गुरु (दक्षिणामूर्ति) जिन्होंने अपने ऋषि शिष्यों के सन्देह मौन से निवारण किये थे, ऐसी शाखाएँ छोड़ गये हैं जो निरन्तर बढ़ रही हैं । गुरु उसी दक्षिणामूर्ति की शाखा है । यह प्रश्न ही नहीं उठता जबकि आत्मा का साक्षात्कार हो चुका है ।
भक्त : क्या महर्षि को निर्विकल्प समाधि होती है ?
महर्षि : यदि नेत्र बन्द हों तो वह निर्विकल्प है; यदि नेत्र खुले हों तो वह सविकल्प् है (यद्यपि इसमें कुछ अन्तर है फिर भी पूर्ण शान्ति रहती है) सर्वथा विद्यमान स्वाभाविक अवस्था सहज समाधि की है ।
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