आज का श्लोक,
’श्रद्धावन्तः’ / ’śraddhāvantaḥ’
_______________________
’श्रद्धावन्तः’ / ’śraddhāvantaḥ’ - निष्ठावान, विश्वास रखनेवाले,
अध्याय 3, श्लोक 31,
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥
--
(ये मे मतम् इदम् नित्यम् अनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तः अनसूयन्तः मुच्यन्ते ते अपि कर्मभिः ॥)
--
भावार्थ : इस अध्याय के श्लोक 24 से 29 तक सारगर्भितरूप से भगवान् श्रीकृष्ण ने कर्मयोग का अनुष्ठान कैसे होता है इसे स्पष्ट किया है और श्लोक 30 में कहा है कि अध्यात्मचेतसा / अध्यात्मबुद्धि से सभी कर्मों को मुझ्में अर्पित कर दो, इसलिए प्रारब्धवश प्राप्त हुआ कोई कर्म निकृष्ट या निन्दनीय नहीं है, यदि उसे ईश्वरसमर्पितबुद्धि से होने दिया जाए । इसी मत का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं :
जो मनुष्य मेरे इस मत का, इससे द्वेष और इसमें दोषबुद्धि न रखते हुए होकर, श्रद्धापूर्वक नित्य अनुष्ठान करते हैं वे भी कर्मों से मुक्त हो जाते हैं ।
--
’श्रद्धावन्तः’ / ’śraddhāvantaḥ’ - those with due trust, sincerity,
Chapter 3, śloka 31,
ye me matamidaṃ nitya-
manutiṣṭhanti mānavāḥ |
śraddhāvanto:'nasūyanto
mucyante te:'pi karmabhiḥ ||
--
(ye me matam idam nityam
anutiṣṭhanti mānavāḥ |
śraddhāvantaḥ anasūyantaḥ
mucyante te api karmabhiḥ ||)
--
Meaning :
śloka 24 onwards in this Chapter 2, bhagavān śrīkṛṣṇa has explained how to practice karmayoga in life. In the śloka 30 he concluded 'having dedicated all your actions in Me with proper understanding of Me as The Self only (adhyātmacetasā), performing the duties ordained upon you by destiny, and surrendering them in Me, you attain Me (perfection in yoga) only’.
In connection to these earlier śloka-s He now tells us :
Whosoever follows this My understanding sincerely and with due trust, without doubt or finding faults with it, will be released from all karma, and attain Liberation in Me.
--
’श्रद्धावन्तः’ / ’śraddhāvantaḥ’
_______________________
’श्रद्धावन्तः’ / ’śraddhāvantaḥ’ - निष्ठावान, विश्वास रखनेवाले,
अध्याय 3, श्लोक 31,
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥
--
(ये मे मतम् इदम् नित्यम् अनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तः अनसूयन्तः मुच्यन्ते ते अपि कर्मभिः ॥)
--
भावार्थ : इस अध्याय के श्लोक 24 से 29 तक सारगर्भितरूप से भगवान् श्रीकृष्ण ने कर्मयोग का अनुष्ठान कैसे होता है इसे स्पष्ट किया है और श्लोक 30 में कहा है कि अध्यात्मचेतसा / अध्यात्मबुद्धि से सभी कर्मों को मुझ्में अर्पित कर दो, इसलिए प्रारब्धवश प्राप्त हुआ कोई कर्म निकृष्ट या निन्दनीय नहीं है, यदि उसे ईश्वरसमर्पितबुद्धि से होने दिया जाए । इसी मत का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं :
जो मनुष्य मेरे इस मत का, इससे द्वेष और इसमें दोषबुद्धि न रखते हुए होकर, श्रद्धापूर्वक नित्य अनुष्ठान करते हैं वे भी कर्मों से मुक्त हो जाते हैं ।
--
’श्रद्धावन्तः’ / ’śraddhāvantaḥ’ - those with due trust, sincerity,
Chapter 3, śloka 31,
ye me matamidaṃ nitya-
manutiṣṭhanti mānavāḥ |
śraddhāvanto:'nasūyanto
mucyante te:'pi karmabhiḥ ||
--
(ye me matam idam nityam
anutiṣṭhanti mānavāḥ |
śraddhāvantaḥ anasūyantaḥ
mucyante te api karmabhiḥ ||)
--
Meaning :
śloka 24 onwards in this Chapter 2, bhagavān śrīkṛṣṇa has explained how to practice karmayoga in life. In the śloka 30 he concluded 'having dedicated all your actions in Me with proper understanding of Me as The Self only (adhyātmacetasā), performing the duties ordained upon you by destiny, and surrendering them in Me, you attain Me (perfection in yoga) only’.
In connection to these earlier śloka-s He now tells us :
Whosoever follows this My understanding sincerely and with due trust, without doubt or finding faults with it, will be released from all karma, and attain Liberation in Me.
--
No comments:
Post a Comment