ब्रह्मकर्मसमाधिना 4/24,
समधिगच्छति 3/4,
समाधातुम् 12/9,
समाधाय 17/11,
समाधौ 2/44, 2/53,
***
पातञ्ल योगसूत्र का प्रारंभ समाधिपाद से होता है।
पुनः समाधि के प्रकारों में क्रमशः
वितर्कविचारानन्दास्मितानुगमात् सम्प्रज्ञातः ।। १७ ।।
तथा
विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः ।।१८ ।।
(समाधिपाद)
इस प्रकार से मुख्यतः समाधि के दो प्रकार वर्णित किए गए हैं।
इसका अर्थ यह हुआ कि समाधिस्थ 'मन' इन दो प्रकारों में से किसी एक में समाधान-पूर्वक अवस्थित होता है ।
वितर्क का अर्थ हुआ तर्क-वितर्कयुक्त, विश्लेषणपरक चिन्तन ।
विचार का अर्थ हुआ किसी व्यवधान से रहित सरलता से किया जानेवाला वैचारिक क्रम, जिसमें तर्क-वितर्क को अधिक महत्व नहीं दिया जाता।
आनन्द का अर्थ हुआ भाव या भावना में निमग्न होने से प्राप्त होने वाला सुख।
अस्मिता का अर्थ हुआ ज्ञातृत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, और स्वामित्व की भावना में निमग्न होने से प्राप्त होनेवाला सुख अर्थात् अहं-संकल्प।
इस प्रकार इन चारों के संबंध से युक्त अस्मिता रूप समाधान, या वितर्क, विचार और आनन्द के रूप में होने वाला समाधान, यह सम्प्रज्ञात समाधि है (उपरोक्त सूत्र १७),
इसी प्रकार इससे अन्य समाधि वह है जिसमें मन ज्ञात- से परे चला जाता है (उपरोक्त सूत्र १८),
किन्तु वहाँ भी संस्काररूप में तो 'मन' होता ही है जो इस समाधि से व्युत्थान की दशा में पुनः पूर्ववत् कार्य करने लगता है ।
यद्यपि इस दूसरी समाधि को प्राप्त कर लेने पर इससे भी 'मन' पर एक नया संस्कार होता है जो पूर्व संस्कारों के बीज को दग्ध कर देता है।
इस प्रकार 'चित्त' नामक वस्तु का अस्तित्व क्रमशः संस्कार, 'मन' की वृत्ति तथा समाधानयुक्त दशा के रूप में हुआ करता है।
यद्यपि असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति हो जाने पर कुछ या सारे बीजरूप संस्कार दग्ध हो जाते हैं किन्तु उस समाधि में निरंतर बने रहने से वे पूरी तरह भस्म हो जाते हैं और यही वास्तविक ज्ञानाग्नि है ।
पातञ्जल योगसूत्र में 'समाधि' और 'संयम' इन दोनों का अभिप्राय भिन्न भिन्न है, क्योंकि विभूतिपाद के
देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ।।१।।
तत्रप्रत्ययैकतानता ध्यानम् ।।२।।
तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ।।३।।
तथा,
त्रयमेकत्र संयमः।।४।।
से यही प्रतीत होता है।
इसी प्रकार 'तदेवार्थमात्रनिर्भासं' की पुनरावृत्ति समाधिपाद के
स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का ।।४३।।
सूत्र से सुसंगत है।
पुनः 'अर्थ' का अभिप्राय वही है जो
इन्द्रियार्थान् 3/6,
इन्द्रियार्थेभ्यः 2/58, 2/68,
तथा
इन्द्रियार्थेषु 5/9, 6/4, 13/8,
में है, अर्थात् इन्द्रियों के विषय ।
किन्तु 'समाधातुम्' का प्रयोग अध्याय १२ में :
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थितम् ।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ।।९।।
दृष्टव्य है। यह भी उल्लेखनीय है कि उपरोक्त श्लोक में 'योग' शब्द भी देखा जा सकता है।
पुनः अध्याय ३ के निम्न श्लोक में समधिगच्छति शब्द का प्रयोग भी उपलब्धि के अर्थ में किया गया है
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ।।४।।
समाधान और समाधि एक ही प्रक्रिया का प्रारंभ और पूर्णता है । यह अध्याय २ के निम्न श्लोकों से भी स्पष्ट होता है --
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ।।४४।।
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।५३।।
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ।।५४।।
किन्तु गीता में भी उसी प्रकार से 'संयम' को 'समाधि' की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है, जैसा महर्षि पतञ्जलि ने उनके योगसूत्र में दिया है।
इस बारे में अगले पोस्ट में!
***
No comments:
Post a Comment