गीता में 'अहं' पद का प्रयोग
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अध्याय 4 -श्लोक 5,
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप ।।
(4/5)
अध्याय 16, -श्लोक 19,
तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान् ।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ।।
(16/19)
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इस पोस्ट का सन्दर्भ कल के मेरे द्वारा अपने vinaysv blog में लिखे गए पोस्ट
~~कर्पूरगौरं~~
से है।
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जो पुरुष अपने आत्म-स्वरूप से अभिज्ञ होता है, वह अपने तथा दूसरों के भी इन असंख्य आभासी जन्म-मृत्यु आदि को जानते हुए, अपनी अविनाशी आत्मा के जन्म तथा मृत्यु से रहित होने के सत्य से भी अवगत होता है । जबकि वह मनुष्य, जो अपने आपको जन्म लेनेवाला तथा मरणशील मानता है, वह अपनी इस निज आत्मा की अविनाशिता से अपरिचित रह जाता है।
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जो पुरुष अपने अन्तर्हृदय में नित्य विद्यमान भगवत्सत्ता अर्थात् भगवत्ता की उपेक्षा जाने-अनजाने, मोह या अज्ञानवश करते हुए, उस परमात्मा से द्वेष करते हैं, और उसका इस प्रकार तिरस्कार करते हैं, उनका वही निज आत्म-स्वरूप परमेश्वर उन्हें पुनः पुनः सतत आसुरी योनियों में जन्म लेने के लिए बाध्य करता है।
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