पातञ्जल योग-सूत्रों में वर्णित संयम
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श्रीमदभगवद्गीता में
"संयम"
शब्द का प्रयोग क्रमशः इस प्रकार से है :
अध्याय २
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।६१।।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।६९।।
अध्याय ३
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।६।।
अध्याय ४
श्रोत्रादीनिन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति।। २६
अध्याय ६
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।। १४
अध्याय ८
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।१२।।
अध्याय १०
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
पितृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्।।२९।।
पातञ्जल योग-दर्शन के चार अध्यायों में से समाधिपाद नामक पहले अध्याय में समाधि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
दूसरे अध्याय साधनपाद में समाधि की प्रक्रिया में जिन साधनों की सहायता लेना आवश्यक है, उन साधनों का वर्णन विस्तार से किया गया है।
उन साधनों का ठीक से प्रयोग करने पर चित्त का रूपान्तरण जिस प्रकार से हो जाता है, और आत्मा के स्वरूप को जानकर वह जिस कैवल्य में दृढतापूर्वक अधिष्ठित हो जाता है, उस कैवल्य-मुक्ति का वर्णन किया गया है।
विभूतिपाद के प्रथम तीन सूत्र क्रमशः इस प्रकार से हैं :
देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।।१।।
तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।२।।
तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।३।।
उपरोक्त सूत्र में समाधिपाद के सूत्र :
स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का ।।४३।।
का संदर्भ 'स्वरूपशून्यमिव' के तुल्य और समानार्थी भी है।
इस प्रकार गीता में प्रयुक्त 'समाधि' तथा 'ध्यान', 'संयम' की सिद्धि में सहायक हैं और 'धारणा', 'ध्यान' तथा 'समाधि' का सामान्य और विशेष अर्थ 'संयम' के संदर्भ में दृष्टव्य है ।
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