अभ्यासयोग
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अध्याय ३ में भगवान् श्रीकृष्ण ने अध्यात्म-विषयक जिज्ञासुओं में दो प्रकार की निष्ठा का वर्णन किया है :
लोकेऽस्मिन्द्विविधानिष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।।३।।
दो प्रकार की निष्ठाएँ क्रमशः साँख्य एवं योग की दृष्टि से कहने के अनंतर अर्जुन को इस विषय में शंका होती है कि निष्ठा की भिन्नता से क्या मुमुक्षु की उपलब्धि भी भिन्न भिन्न प्रकार की होती है?
अतः तब अध्याय ५ में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन की इस शंका का निवारण करते हुए उससे कहते हैं :
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।
इस प्रकार गीता में ज्ञान-विषयक दो धारणाएँ प्राप्त होती हैं:
एक तो साङ्ख्यदर्शन के अनुसार होनेवाला आत्म-ज्ञान, जो कि मुक्ति का साधन है, तथा दूसरा सैद्धान्तिक तत्त्वज्ञान, जो केवल शास्त्रीय होता है और वस्तुतः अज्ञान का ही विशेष प्रकार है।
इस प्रकार का ज्ञान भी यद्यपि सैद्धान्तिक होता है, किन्तु फिर भी वह ज्ञानरहित अभ्यास की अपेक्षा श्रेष्ठ होता है।
इसलिए अध्याय १२ में भगवान् श्रीकृष्ण (सैद्धान्तिक ज्ञान से रहित) तप करनेवाले अभ्यासयोगियों अर्थात् तपस्वियों से इस ज्ञान से युक्त ज्ञानियों को अधिक श्रेष्ठ कहते हुए ध्यानयोगियों को ऐसे ज्ञानियों से भी श्रेष्ठतर कहते हैं। पुनः ऐसे ध्यानयोग में संलग्न, ध्यानरूपी कर्म करने की तुलना में उन्हें और भी अधिक श्रेष्ठ कहते हैं, जो कर्मफल (की आशा) को भी त्याग देते हैं।
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् ।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।९।।
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।।१०
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।।११।।
तथा अंत में :
श्रेयो हि ज्ञानं अभ्यासाज्ज्ञाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।।१२।।
इस प्रकार तप, कर्म, ज्ञानरहित अभ्यास अर्थात् तप और ज्ञान-सहित कर्म को क्रमशः श्रेष्ठतर कहते हुए, अन्त में कर्मफल को ही त्याग देने को शान्ति की प्राप्ति का साधन कहते हैं।
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