हृदय की बात!
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भरत मुनि के नाट्य-शास्त्र में कुल ३३ भाव हैं, जिनमें से एक है : निर्वेद ।
यही ३३ (कोटि के) देवता शिव-अथर्वशीर्ष में 'रुद्र' के पर्याय हैं। किन्तु निर्वेद के अतिरिक्त शेष सभी संचारी और व्यभिचारी कहे जाते हैं। यहाँ 'व्यभिचारी' का तात्पर्य 'दुराचारी' नहीं, समय और परिस्थिति के अनुसार वि-अभि-चारी है।
'प्रसाद' की रचना 'कामायनी' पढ़ते समय इस शब्द से कभी मेरा परिचय हुआ था।
गीता में अध्याय २ में इसका उल्लेख :
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ।।५२।।
में पाया जाता है ।
कामायनी के,
"रे मन, तुमुल कोलाहल कलय में मैं हृदय की बात रे!"
इस गीत को आशा भोसले ने गाया भी है ।
यह
"हृदय की बात"
क्या है?
यह अपने अस्तित्व का भान और उसकी वह सहज स्फुर्णा है, जिसे 'अहं-स्फुर्णा' कहा जाता है। यद्यपि यह विषय-रहित भान नित्य विशुद्ध होता है, किन्तु बुद्धि भूल से इसे ही किसी विषय पर आरोपित कर 'अहंकार' का रूप ले लेती है। यही बुद्धि इस अहंकार-रूपी मोहकलिल को पार कर लेती है तो निर्वेद नामक स्थिति में होती है। वैसे तो बुद्धि के दो प्रकार स्थिति और गति के रूप में होते हैं, किन्तु बुद्धि की निर्वेद नामक यह अवस्था इन दोनों से विलक्षण है, जहाँ उस प्रज्ञा का उन्मेष होता है, जिसके प्रतिष्ठित हो जाने पर मनुष्य अपनी आत्मा को स्वरूपतः जान लेता है।
"श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च" के माध्यम से, श्रुतियों और शास्त्रों आदि के द्वारा जिस बुद्धि के चंचल होने का संकेत किया गया है, वही बुद्धि इस प्रकार मोहकलिल को पार कर, अचल समाधि में कैसे दृढ हो जाती है, इसका वर्णन
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।५३।।
के माध्यम से पुनः, "योग" की प्राप्ति के वर्णन में है।
इसी योग की प्राप्ति के बाद योगारूढ हुए स्थितप्रज्ञ, समाधिस्थ हुए मुमुक्षु की स्थिति का वर्णन,
क्रमशः श्लोक क्रमांक ५४, ५५, तथा ५६ में है :
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ।।५४।।
प्रजहाति यदा कामान्सर्वार्थान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ।।५५।।
दुःखेष्वनुद्गविग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।।५६।।
इस प्रज्ञा और इसके लक्षणों का वर्णन पुनः
"तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।"
के द्वारा इसी अध्याय के अगले श्लोकों ५७ तथा ५८ में भी प्राप्त होता है :
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।५७।।
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।५८।।
प्रसंगवश,
योगारूढ मुनि / योगी, तथा आरुरुक्षु मुनि के बारे में गीता के अध्याय ६ के इस श्लोक ३, का उल्लेख करना यहाँ उपयोगी होगा :
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ।।३।।
किन्तु यदि इस सब सन्दर्भ से थोड़ा हटकर यह देखें कि 'प्रसाद' के 'निर्वेद' सर्ग के इस गीत में 'पवन (प्राण) की प्राचीर' और 'चेतना थक सी रही' को जिस प्रकार 'झूलते विश्व-दिन' के परिप्रेक्ष्य में संयोजित किया गया है, तो कहना होगा कि इससे कवि की यह रचना को कालजयी 'हृदय की बात' हो जाती है!
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उल्लिखित गीत इस प्रकार से है:
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रे मन!
तुमुल-कोलाहल कलय में,
मैं, हृदय की बात रे!
विकल होकर, नित्य चंचल,
खोजती जब नींद के पल,
चेतना थक-सी रही तब,
मैं, मलय की बात रे!
चिर-विषाद-विलीन-मन की,
इस व्यथा के तिमिर-वन की,
मैं, उषा-सी ज्योति-रेखा,
कुसुम-विकसित, प्रात रे!
जहाँ मरु-ज्वाला धधकती,
चातकी कन को तरसती,
उन्हीं जीवन घाटियों में,
मैं, सरस बरसात रे!
पवन की प्राचीर में रुक,
जला जीवन जी रहा झुक,
इस सुलगते विश्व-दिन की,
मैं, कुसुम-ऋतु, रात रे!
चिर निराशा, नीरधर से,
प्रतिच्छायित,अश्रु-सर में,
उस स्वरलहरी के, अक्षर सब,
संजीवन-रस बने-घुले,
रे मन!
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