Friday, September 3, 2021

गीता-नवनीत

सर्वोपनिषदो गावः

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जीवन पथ पर वैसे तो हर मनुष्य को चाहे-अनचाहे चलना ही होता है किन्तु अपने इस कार्य को वह चार तरीकों के आधार पर इस प्रकार से सुनिश्चित कर सकता है कि अंततः उसे जीवन में श्रेयस् की प्राप्ति हो जाए। 

गीता का अध्याय ७ का यह श्लोक इसी ओर संकेत करता है :

श्री भगवान् उवाच :

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।।१७।।

वहीं गीता के अध्याय १२ के इस श्लोक में कहा गया है :

श्रेयो हि ज्ञानं अभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते। 

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागस्त्याच्छान्तिरनन्तरम् ।।१२।।

इस प्रकार इस श्लोक से श्रेयस् अर्थात् सत्य, ईश्वर, मन की पूर्ण और परम शान्ति की प्राप्ति की अभिलाषा रखनेवाले जिज्ञासुओं के भेद की ओर संकेत किया गया है।

किन्तु इन सभी जिज्ञासुओं के बीच में जो भी भेद दिखलाई देता है वह भी मूलतः पुनः उनकी उसी दो प्रकार की निष्ठा का ही भेद है, जिसे कि अध्याय ३ के इस श्लोक से स्पष्ट किया गया है :

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ । 

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनां ।।३।।

इस प्रकार निष्ठा के भेद से ही उपरोक्त चार प्रकार के भिन्न भिन्न तरीकों के प्रयोग में भी अंतर हो सकता है ।

पुनः इसका ही संक्षेप में वर्णन अध्याय ५ के इन श्लोकों में किया गया है :

अर्जुन उवाच :

सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि । 

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ।।१।।

श्री भगवान् उवाच :

सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।

तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ।।२।।

ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।।३।।

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ।।४।।

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।

एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।।५।।

सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः। 

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म न चिरेणाधिगच्छति।।६।।

इस प्रकार भिन्न भिन्न जिज्ञासुओं को एक ही श्रेयस् की प्राप्ति साङ्ख्य या योग की अपनी अपनी निष्ठा के अनुसार होती है। 

भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता के अध्याय २ में साङ्ख्यरूपी योग का महत्व प्रतिपादित किया, अध्याय ३ में कर्मयोग का, एवं अध्याय ४ में यज्ञ और कर्म के महत्व का वर्णन समान रूप से किया। सन्न्यास का अर्थ है वह, जिसे योग अथवा साङ्ख्य की अपनी निष्ठा के अनुसार सन्न्यास की प्राप्ति हो गई। 

अध्याय ५ में इसीलिए कर्मसन्न्यास-योग का वर्णन किया गया, और उसके महत्व को प्रतिपादित किया गया।

किन्तु इसी क्रम को आगे बढ़ाने हुए अध्याय ६ का प्रारंभ निम्न श्लोक से किया गया :

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः । 

स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ।।१।।

इसलिए सन्न्यासी यज्ञरूपी कर्म करे या न करे, अग्नि का स्पर्श करे या नहीं, कर्मफल का आश्रय नहीं ग्रहण करता। किन्तु इस सन्न्यास की उपलब्धि के लिए मनुष्य को जो योगाभ्यास करना होता है उस अभ्यास में उस मुनि की परिपक्वता के अनुसार उसे आरुरुक्षु अथवा योगारूढ कहा जाता है। इस प्रकार यद्यपि मुनि का कर्म या तो श्रेयस् की प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाता है, या कर्म के शमन के लिए, यह उसकी परिपक्वता के अनुसार होता  है। पुनः यहाँ यह भी कहा गया है कि दोनों ही स्थितियों में योग का अवलम्बन लिया जाता है। इसलिए नित्यसन्न्यासी और योगी में समानता और भिन्नता भी देखी जा सकती है । 

इसे ही अगले श्लोकों में कहा गया है :

श्री भगवान् उवाच :

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।

न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ।।२।।

तथा,

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ।।३।।

अध्याय ६ को इसलिए योग अथवा अभ्यासयोग कहा गया। 

इसी क्रम को अध्याय ७ में विस्तारपूर्वक ज्ञानविज्ञानयोग का नाम दिया गया। 

ज्ञानविज्ञानयोग के ही क्रम में अगले अध्याय ८ में ब्रह्मविद्या के माध्यम से ब्रह्म की प्राप्ति के महत्व को तारकब्रह्मयोग नामक अध्याय में स्पष्ट किया गया।

गीता अध्याय २ में यद्यपि साङ्ख्य का तथा अध्याय ३ में कर्म को महत्व देकर उनका वर्णन किया गया, किन्तु इस प्रकरण को अध्याय ४ में इस प्रकार से उद्घाटित किया गया है कि साङ्ख्य की निष्ठा और दुरूहता के कारण उस मार्ग को न ग्रहण करने के इच्छुक और कर्म में रुचि और उसकी निष्ठा रखनेवाले मनुष्य के लिए जो उचित और ग्राह्य है, वह उस राजविद्या राजयोग रूपी कर्मनिष्ठा का अवलम्बन लेकर श्रेयस् की प्राप्ति का अभ्यास कर सके। यह वही योगविद्या है जिसका उपदेश सृष्टि करने के समय परमेश्वर ने विवस्वान (सूर्य) को दिया था, सूर्य से यह उपदेश मनु को प्राप्त हुआ और मनु से इक्ष्वाकु को, इस प्रकार यह भगवान् श्रीराम के वंश में परम्परा से प्राप्त होता रहा। 

अध्याय ४ इस प्रकार से प्रारंभ होता है :

श्री भगवान् उवाच :

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।।२।।

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः । 

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।३।।

इस प्रकार रामायण के अन्तर उत्तररामायण और उत्तररामायण के अन्तर गीता का प्राकट्य हुआ। 

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