Saturday, June 28, 2014

आज का श्लोक, ’सर्वद्वाराणि’ / ’sarvadvārāṇi’

आज का श्लोक,
’सर्वद्वाराणि’ / ’sarvadvārāṇi’
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’सर्वद्वाराणि’ / ’sarvadvārāṇi’ - इन्द्रियों रूपी द्वार जिनसे चित्त बाहर की दिशा में जाता है ।

अध्याय 8, श्लोक 12,
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सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो  योगधारणाम् ॥
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(सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्नि आधायात्मनः प्राणम् आस्थितः योगधारणम् ॥)
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भावार्थ :
मन जिन इंद्रियों के मार्ग से बहिर्मुख  होता है, उन सब रोककर मन को अंतर्मुख अर्थात्  'हृदय' में ठहराकर  और पुनः उन मार्गों पर न जाने  देकर  (चित्त निरोध )।  प्राणों को हृदय से मूर्ध्ना की दिशा में जानेवाली नाड़ी पर ले जाकर मस्तक में स्थिर  (प्राण-निरोध) करते हुए साधक योगधारणा में प्रवृत्त होता है।
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’सर्वद्वाराणि’ / ’sarvadvārāṇi’ -all the senses that are door for the attention of mind to go in the outward direction, away from the 'Self'.

Chapter 8, śloka 12,
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sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhnyādhāyātmanaḥ
prāṇamāsthito  yogadhāraṇām ||
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(sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhni ādhāyātmanaḥ
prāṇam āsthitaḥ yogadhāraṇam ||)
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Meaning :
Controlling all the sense-organs where-from the attention strays away towards the objects, holding back the mind into the Heart, directing the vital energy (prANas) towards the cerebrum, abide in the contemplation of Yoga.
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