आज का श्लोक,
’सर्वद्वाराणि’ / ’sarvadvārāṇi’
_______________________
’सर्वद्वाराणि’ / ’sarvadvārāṇi’ - इन्द्रियों रूपी द्वार जिनसे चित्त बाहर की दिशा में जाता है ।
अध्याय 8, श्लोक 12,
--
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥
--
(सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्नि आधायात्मनः प्राणम् आस्थितः योगधारणम् ॥)
--
भावार्थ :
मन जिन इंद्रियों के मार्ग से बहिर्मुख होता है, उन सब रोककर मन को अंतर्मुख अर्थात् 'हृदय' में ठहराकर और पुनः उन मार्गों पर न जाने देकर (चित्त निरोध )। प्राणों को हृदय से मूर्ध्ना की दिशा में जानेवाली नाड़ी पर ले जाकर मस्तक में स्थिर (प्राण-निरोध) करते हुए साधक योगधारणा में प्रवृत्त होता है।
--
’सर्वद्वाराणि’ / ’sarvadvārāṇi’ -all the senses that are door for the attention of mind to go in the outward direction, away from the 'Self'.
Chapter 8, śloka 12,
--
sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhnyādhāyātmanaḥ
prāṇamāsthito yogadhāraṇām ||
--
(sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhni ādhāyātmanaḥ
prāṇam āsthitaḥ yogadhāraṇam ||)
--
Meaning :
Controlling all the sense-organs where-from the attention strays away towards the objects, holding back the mind into the Heart, directing the vital energy (prANas) towards the cerebrum, abide in the contemplation of Yoga.
--
’सर्वद्वाराणि’ / ’sarvadvārāṇi’
_______________________
’सर्वद्वाराणि’ / ’sarvadvārāṇi’ - इन्द्रियों रूपी द्वार जिनसे चित्त बाहर की दिशा में जाता है ।
अध्याय 8, श्लोक 12,
--
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥
--
(सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्नि आधायात्मनः प्राणम् आस्थितः योगधारणम् ॥)
--
भावार्थ :
मन जिन इंद्रियों के मार्ग से बहिर्मुख होता है, उन सब रोककर मन को अंतर्मुख अर्थात् 'हृदय' में ठहराकर और पुनः उन मार्गों पर न जाने देकर (चित्त निरोध )। प्राणों को हृदय से मूर्ध्ना की दिशा में जानेवाली नाड़ी पर ले जाकर मस्तक में स्थिर (प्राण-निरोध) करते हुए साधक योगधारणा में प्रवृत्त होता है।
--
’सर्वद्वाराणि’ / ’sarvadvārāṇi’ -all the senses that are door for the attention of mind to go in the outward direction, away from the 'Self'.
Chapter 8, śloka 12,
--
sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhnyādhāyātmanaḥ
prāṇamāsthito yogadhāraṇām ||
--
(sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhni ādhāyātmanaḥ
prāṇam āsthitaḥ yogadhāraṇam ||)
--
Meaning :
Controlling all the sense-organs where-from the attention strays away towards the objects, holding back the mind into the Heart, directing the vital energy (prANas) towards the cerebrum, abide in the contemplation of Yoga.
--
No comments:
Post a Comment