आज का श्लोक, ’सहस्रेषु’ / ’sahasreṣu’
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’सहस्रेषु’ / ’sahasreṣu’ - सहस्रों में, हज़ारों में,
[सह+ स्र, या स + हस्र, दोनों रीतियों से सहस्र से ’हज़ार’ की व्युत्पत्ति दृष्टव्य है ।
'स्र' अर्थात् series / stream, हार, स्रंका = हार,]
अध्याय 7, श्लोक 3,
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥
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(मनुष्याणाम् सहस्रेषु कश्चित् यतति सिद्धये ।
यतताम् अपि सिद्धानाम् कश्चित् माम् वेत्ति तत्त्वतः ॥)
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भावार्थ :
सहस्रों मनुष्यों में कोई एक ही वास्तविक जिज्ञासु होता है, और तत्व को जानने के लिए यत्न किया करता है । ऐसे जिज्ञासुओं में से जो तत्त्व को जान लेते हैं, और सिद्ध कहे जाते हैं उनमें से भी कोई कोई ही मुझे तत्त्व से भी जानता है ।
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टिप्पणी :
यद्यपि अनेक लोगों में ईश्वर, आत्मा, परमात्मा आदि को जानने का कौतूहल होता है, और वह उनका प्रत्यक्ष अनुभव भी बन जाए, तो भी इस कौतूहल से अधिक रुचि उन्हें अन्य अनित्य वस्तुओं में सुख-प्राप्ति की होती है । वे ईश्वर को भी ’साधन’ की तरह प्रयोग करना चाहते हैं । उनमें से ही कुछ बिरले ही यत्नरत रहते हुए साँख्य-निष्ठा को प्राप्त हुए होते हैं, जबकि बहुत से मनुष्य तो आध्यात्मिक शक्तियों अर्थात् सिद्धियों की प्राप्ति की ओर आकर्षित होकर ’मुझसे’ दूर हो जाते हैं । वे ब्रह्म-ज्ञानी भी हो जाते हैं, इसलिए ’अर्हत्’ / ’दक्ष’ और सिद्ध भी कहे जाते हैं, किन्तु आत्म-ज्ञान से फिर भी दूर ही होते हैं । किन्तु जो ’ईश्वर’ को ’मुझसे’ अर्थात् अपनी आत्मा से अभिन्न की भाँति जान लेता है, वही ’मुझको’ तत्त्वतः जानता है । सिद्धों में से भी कुछ ही ’मुझे’ (मेरे स्वरूप को) तत्त्व से जान पाते हैं । ब्रह्म-ज्ञानी / सिद्ध भी प्रायः ’सब-कुछ ब्रह्म है’ के ज्ञान और अनुभव में भी जाने-अनजाने ही, अपने-आपको ’ब्रह्म-ज्ञानी’ की तरह ब्रह्म से भिन्न की भाँति ग्रहण कर लेते हैं । यद्यपि वे ’मुक्त’ तो होते हैं किन्तु अपने आप को तत्वतः नहीं जान पाते । गीता अध्याय 11 के श्लोक 28 में ’सिद्धसङ्घाः’ में इसी सन्दर्भ में देखा जा सकता है ।
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’सहस्रेषु’ / ’sahasreṣu’ - सहस्रों में, हज़ारों में,
[सह+ स्र, या स + हस्र, दोनों रीतियों से सहस्र से ’हज़ार’ की व्युत्पत्ति दृष्टव्य है ।
'स्र' अर्थात् series / stream, हार, स्रंका = हार,]
अध्याय 7, श्लोक 3,
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥
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(मनुष्याणाम् सहस्रेषु कश्चित् यतति सिद्धये ।
यतताम् अपि सिद्धानाम् कश्चित् माम् वेत्ति तत्त्वतः ॥)
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भावार्थ :
सहस्रों मनुष्यों में कोई एक ही वास्तविक जिज्ञासु होता है, और तत्व को जानने के लिए यत्न किया करता है । ऐसे जिज्ञासुओं में से जो तत्त्व को जान लेते हैं, और सिद्ध कहे जाते हैं उनमें से भी कोई कोई ही मुझे तत्त्व से भी जानता है ।
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टिप्पणी :
यद्यपि अनेक लोगों में ईश्वर, आत्मा, परमात्मा आदि को जानने का कौतूहल होता है, और वह उनका प्रत्यक्ष अनुभव भी बन जाए, तो भी इस कौतूहल से अधिक रुचि उन्हें अन्य अनित्य वस्तुओं में सुख-प्राप्ति की होती है । वे ईश्वर को भी ’साधन’ की तरह प्रयोग करना चाहते हैं । उनमें से ही कुछ बिरले ही यत्नरत रहते हुए साँख्य-निष्ठा को प्राप्त हुए होते हैं, जबकि बहुत से मनुष्य तो आध्यात्मिक शक्तियों अर्थात् सिद्धियों की प्राप्ति की ओर आकर्षित होकर ’मुझसे’ दूर हो जाते हैं । वे ब्रह्म-ज्ञानी भी हो जाते हैं, इसलिए ’अर्हत्’ / ’दक्ष’ और सिद्ध भी कहे जाते हैं, किन्तु आत्म-ज्ञान से फिर भी दूर ही होते हैं । किन्तु जो ’ईश्वर’ को ’मुझसे’ अर्थात् अपनी आत्मा से अभिन्न की भाँति जान लेता है, वही ’मुझको’ तत्त्वतः जानता है । सिद्धों में से भी कुछ ही ’मुझे’ (मेरे स्वरूप को) तत्त्व से जान पाते हैं । ब्रह्म-ज्ञानी / सिद्ध भी प्रायः ’सब-कुछ ब्रह्म है’ के ज्ञान और अनुभव में भी जाने-अनजाने ही, अपने-आपको ’ब्रह्म-ज्ञानी’ की तरह ब्रह्म से भिन्न की भाँति ग्रहण कर लेते हैं । यद्यपि वे ’मुक्त’ तो होते हैं किन्तु अपने आप को तत्वतः नहीं जान पाते । गीता अध्याय 11 के श्लोक 28 में ’सिद्धसङ्घाः’ में इसी सन्दर्भ में देखा जा सकता है ।
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’सहस्रेषु’ / ’sahasreṣu’ - among thousands,
Chapter 7, śloka 3,
manuṣyāṇāṃ sahasreṣu
kaścidyatati siddhaye |
yatatāmapi siddhānāṃ
kaścinmāṃ vetti tattvataḥ ||
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(manuṣyāṇām sahasreṣu
kaścit yatati siddhaye |
yatatām api siddhānām
kaścit mām vetti tattvataḥ ||)
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Among thousands of men, a rare one attempts to gain the spiritual truth. And even if a few attain the spiritual truth, most ('sidhha', / 'arhat', / adept, lured by spiritual powers, don't go further) don't know ME in the true sense.
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