Sunday, June 15, 2014

आज का श्लोक, ’सर्वाः’ / ’sarvāḥ’

आज का श्लोक, ’सर्वाः’ / ’sarvāḥ’
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’सर्वाः’ / ’sarvāḥ’ - सब (स्त्रीलिंग, बहुवचन)

(टिप्पणी ’सर्वे’ - पुंलिंग बहुवचन, ’सर्वाणि’ -  नपुंसकलिंग बहुवचन)

अध्याय 8, श्लोक 18,

अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे ।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंञ्ज्ञके ॥
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(अव्यक्तात् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्ति अहरागमे ।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्र एव अव्यक्तसञ्ज्ञके ॥)
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भावार्थ :
'अव्यक्त' से सभी व्यक्त नाम-रूप अर्थात् व्यक्ति (अभिव्यक्तियाँ, अर्थात् जीव-सत्ताएँ) दिन के आगमन के साथ उत्पन्न / प्रकट होती हैं, तथा रात्रि का आगमन होने पर उसी 'अव्यक्त' नामक अपने मूल कारण में प्रलीन हो जाती हैं ।
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टिप्पणी :
यह एक ऐसा बिन्दु है जहाँ पर ’ब्रह्मा’ के वैदिक स्वरूप तथा पौराणिक स्वरूप के आधार पर भिन्न-भिन्न रीति और शैली में उक्त श्लोक का भावार्थ स्पष्ट किया जा सकता है, और वे परस्पर विरोधी न होकर श्रोता / पाठक की मानसिकता और परिपक्वता के अनुसार ग्राह्य या अग्राह्य भी हो सकती हैं । श्रीमद्भग्वद्गीता में ऐसे अनेक स्थान हैं, जहाँ पर इस तरह का संशय उत्पन्न हो सकता है । लेकिन जैसा कि कहा जाता है "सत्यं तु समग्रं भवति", आग्रह या मतवाद में सीमित न रहकर सत्य को समग्र रूप में ग्रहण कर लेना और संशयों का निवारण कर लिया जाना ही श्रेयस्कर है ।
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अध्याय 11, श्लोक 20,

द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि
व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं
लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ॥
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(द्यावापृथिव्योः इदम् अन्तरम् हि
व्याप्म् त्वया एकेन दिशः च सर्वाः
दृष्ट्वा अद्भुतम् रूपम् उग्रम् तव इदम्
लोकत्रयम् प्रव्यथितम् महात्मन् ॥)
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भावार्थ :
स्वर्ग तथा पृथ्वी के मध्य का यह सम्पूर्ण आकाश, एवं सभी दिशाएँ भी आपसे ही परिपूर्ण हैं । और हे महात्मन् ! आपके इस उग्र अद्भुत् रूप को देखकर लोकत्रय अत्यन्त व्यथित हो रहा है ।
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अध्याय 15, श्लोक 13,

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥
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(गाम् आविश्य च भूतानि धारयामि अहम् ओजसा ।
पुष्णामि च ओषधीः सर्वाः सोमः भूत्वा रसात्मकः ॥)
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भावार्थ :
और पृथ्वी में प्रवेश कर (व्याप्त होकर) अपने ओज से मैं सब भूतों को धारण करता हूँ । रसस्वरूप अर्थात् अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण ओषधियों / वनस्पतियों को पुष्टि प्रदान करता हूँ ।
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टिप्पणी : सामान्य दृष्टि से ’सोम’ का तात्पर्य ’चन्द्रमा’ ग्रहण किया जाता है, किन्तु श्रीमद्भग्वद्गीता के शाङ्कर भाष्य में  जो अर्थ भगवान् शङ्कर आचार्य द्वारा प्रदान किया गया है, वह अक्षरशः इस प्रकार है :
" किं च पृथिव्यां जाता ओषधीः सर्वा ब्रीहियवाद्याः पुष्णामि पुष्टिमती रसास्वादुमतीः च करोमि सोमो भूत्वा रसात्मकः सोमः सर्वरसात्मको रसस्वभावः सर्वरसानाम् आकरः सोमः स हि सर्वा ओषधीः स्वात्मरसानुप्रवेशेन पुष्णाति ॥१३॥"
जहाँ सोम चन्द्रमा का पर्याय है, ऐसा नहीं दिखलाई देता ।
यहाँ भी मनुष्य की अपनी मानसिकता और परिपक्वता के अनुसार पौराणिक तथा वैदिक दृष्टिकोण से समग्र तात्पर्य ग्रहण किया जा सकता है ।
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’सर्वाः’ / ’sarvāḥ’ - All, (feminine gender, plural)

Chapter 8, śloka 18,
avyaktādvyaktayaḥ sarvāḥ 
prabhavantyaharāgame |
rātryāgame pralīyante
tatraivāvyaktasaṃñjñake ||
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(avyāktāt vyaktayaḥ sarvāḥ 
prabhavanti aharāgame |
rātryāgame pralīyante
tatra eva avyaktasañjñake ||)
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Meaning :
With the rise of the day (of  Brahmā), all the beings are born from the undistinguished principle (avyākta) and appear in their specific manifest name and form. And similarly with the coming up of the night (of  Brahmā), they disappear in the same undistinguished principle, which is named (avyākta).
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Note :
On the basis of  vaidika or paurāṇika approach, there may be different interpretations of the term  Brahmā, Who is  a devatā,  a divine entity on one hand, and also a form of  Intelligence / Consciousness Supreme that functions in the role of devatā. The only way to deal with the subject is, with a comprehensive approach by treating the meaning 'Brahmā' of in relevant and appropriate manner.
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Chapter 11, śloka 20,

dyāvāpṛthivyoridamantaraṃ hi
vyāptaṃ tvayaikena diśaśca sarvāḥ |
dṛṣṭvādbhutaṃ rūpamugraṃ tavedaṃ
lokatrayaṃ pravyathitaṃ mahātman ||
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(dyāvāpṛthivyoḥ idam antaram hi
vyāpm tvayā ekena diśaḥ ca sarvāḥ |
dṛṣṭvā  adbhutam rūpam ugram tava idam
lokatrayam pravyathitam mahātman ||)
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Meaning :
This space between the heaven and the earth, and all the directions are pervaded by You alone.  Seeing Your this terrible awe-some form, the three worlds are greatly perturbed O Great Lord!
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Chapter 15, śloka 13,

gāmāviśya ca bhūtāni
dhārayāmyahamojasā |
puṣṇāmi cauṣadhīḥ sarvāḥ 
somo bhūtvā rasātmakaḥ ||
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(gām āviśya ca bhūtāni
dhārayāmi aham ojasā |
puṣṇāmi ca oṣadhīḥ sarvāḥ 
somaḥ bhūtvā rasātmakaḥ ||)
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Meaning :
Entering and pervading the Earth, I enrich and support all the beings through my strength (ojasa). I nourish all the herbs and flora, the vegetation, in the form of nectarine 'soma', the essence and juice of life.
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Note :
Here once again, the meaning of 'soma' may be taken in the vaidika / paurāṇika parlance according to one's orientation and mind-set.
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