Monday, June 9, 2014

आज का श्लोक, ’सङ्करः’ / ’saṅkaraḥ’

आज का श्लोक,  ’सङ्करः’ /  ’saṅkaraḥ’ 
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’सङ्करः’ /  ’saṅkaraḥ’ - वर्णों का मिश्रित होना अर्थात् शुद्ध न रहना,

अध्याय 1, श्लोक 42,
सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥
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(सङ्करः नरकाय एव कुलघ्नानाम् कुलस्य च ।
पतन्ति पितरः हि एषाम् लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥)
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भावार्थ :
मिश्रितवर्ण संतान का जन्म उन कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने का ही हेतु होता है । (क्योंकि) पितरों को शास्त्रविहित रीति से पिण्डदान तथा जल का तर्पण आदि श्राद्धकार्य तब नहीं होता, और इसलिए वे नरक अर्थात् अधोगति को प्राप्त होते हैं ।
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टिप्पणी :
वैदिक धर्म वर्णों की शुद्धता को महत्व देता है । यहाँ यह जानना रोचक होगा कि भगवान् श्रीकृष्ण श्रीमद्भग्वद्गीता के अध्याय 4 के श्लोक 13 में कहते हैं :
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥
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अर्थात् चार प्रकार के वर्ण्य (वर्ण्यता) गुण तथा कर्म के विभाग के अनुसार मेरे ही द्वारा सुनिश्चित की गई है । उस वर्ण्य / वर्ण्यता का कर्ता भी मुझे ही जानो, यद्यपि मैं (नित्य ही) अकर्ता और अव्यय हूँ  ।
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इसलिए मनुष्यों के चार वर्णों का आधार वंश कही जानेवाली जाति नहीं, बल्कि उनके  गुण तथा तथा कर्म ही हो सकते हैं । यहाँ पुनः ’गुण’ से तात्पर्य है उनमें विद्यमान सत्व, रज और तमोगुण का परिमाण । किन्तु धीरे-धीरे इस वैदिक ’आदर्श’ का भी समय के साथ-साथ ह्रास हुआ और जाति (जन्म) ही वर्ण की पहचान बन गया । और यहाँ यह भी स्मरण रखना आवश्यक है कि वर्णाश्रम-धर्म केवल उनके लिए है, जो इसे मान्य करते हैं । यह उन पर लागू नहीं होता जो वेद से भिन्न किसी धर्म का पालन करते हों । और वेद उनसे इसकी अपेक्षा भी नहीं करते । क्योंकि मूलतः धर्म तो प्रत्येक मनुष्य की स्वाभाविक संस्कार, प्रवृत्ति और प्रकृति ही है । यदि कोई मनुष्य वेद-निर्दिष्ट धर्म के लिए आकर्षण नहीं अनुभव करता या भिन्न मत रखता है, तो यह उसके सोचने का विषय है ।  शैव, जैन, बौद्ध, शाक्त, तन्त्र, चार्वाक / नास्तिक मत आदि में ऐसी  परम्पराएँ हैं जो वेद से भिन्न या विपरीत तक भी हैं। और उनका प्रचलन भी उतना ही प्राचीन है जितना कि वेदमत माना है।    
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’सङ्करः’ /  ’saṅkaraḥ’ - inter-mixing of castes,

Chapter 1, श्लोक 42,
saṅkaro narakāyaiva
kulaghnānāṃ kulasya ca |
patanti pitaro hyeṣāṃ
luptapiṇḍodakakriyāḥ ||
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(saṅkaraḥ narakāya eva
kulaghnānām kulasya ca |
patanti pitaraḥ hi eṣām
luptapiṇḍodakakriyāḥ ||)
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Meaning :
Such offspring born of mixing of different races leads the ancestors to hell, because then the traditional rituals of  offerings of water and other substances to them ( piṇḍodakakriyāḥ / śrāddha) according to the scriptural injunctions in the form of (śrāddha) is performed no more.  
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