Saturday, June 21, 2014

आज का श्लोक, ’सर्वसङ्कल्पसंन्यासी’ / ’sarvasaṅkalpasaṃnyāsī’

आज का श्लोक,
’सर्वसङ्कल्पसंन्यासी’ / ’sarvasaṅkalpasaṃnyāsī’
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’सर्वसङ्कल्पसंन्यासी’ / ’sarvasaṅkalpasaṃnyāsī’ - जिसने कामनाओं को, तथा कर्मों में आसक्ति को त्याग दिया है,

अध्याय 6, श्लोक 4,

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥
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(यदा हि न इन्द्रियार्थेषु न कर्मसु अनुषज्जते ।
सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढः तदा उच्यते ॥)
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भावार्थ :
(आरुरुक्ष और योगारूढ, अध्यात्मजिज्ञासु की इन दोनों अवस्थाएँ का वर्णन इस अध्याय 6 के पिछले श्लोक क्रमांक 3, में किया गया । अब योगारूढ की अवस्था का वर्णन आगे किया जा रहा है ...)
जिस काल में आरुरुक्षु मुनि (अभ्यासरत) न तो इन्द्रियों के विषयों में और न ही कर्मों में आसक्त / लिप्त होता है, अर्थात् दोनों के प्रति उदासीन होता है, तब उसे ही योगारूढ कहा जाता है ।
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’सर्वसङ्कल्पसंन्यासी’ / ’sarvasaṅkalpasaṃnyāsī’ - One who has forsaken all desires and attachment to action.

Chapter 6, śloka 4,

yadā hi nendriyārtheṣu
na karmasvanuṣajjate |
sarvasaṅkalpasaṃnyāsī
yogārūḍhastadocyate ||
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(yadā hi na indriyārtheṣu
na karmasu anuṣajjate |
sarvasaṅkalpasaṃnyāsī 
yogārūḍhaḥ tadā ucyate ||)
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Meaning :
When, one practicing yoga (ārurukṣa, as explained in the previous śloka 3 of this Chapter 6), attains a stage of maturity where-by he has no more attachment either with the sense-objects or with the actions (karma-s), he is called yogārūḍha  -one established in yoga.  
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