आज का श्लोक, ’सर्वशः’ / ’sarvaśaḥ’
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’सर्वशः’ / ’sarvaśaḥ’ - सब प्रकार से, सब ओर से, हर तरह से,
अध्याय 1, श्लोक 18,
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥
--
(द्रुपदः द्रौपदेयाः च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रः च महाबाहुःशङ्खान् दध्मुः पृथक् पृथक् ॥)
--
भावार्थ :
हे राजन् (धृतराष्ट्र) ! राजा द्रुपद (द्रौपदी के पिता) तथा बलशाली भुजाओं वाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु सहित द्रौपदी के पाँचों पुत्रों ने भी युद्धक्षेत्र में सब ओर से अलग अलग शंखों का घोष किया ।
--
अध्याय 2, श्लोक 58,
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
--
(यदा संहरते च अयम् कूर्मः अङ्गानि इव सर्वशः ।
इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेभ्यः तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
--
भावार्थ :
जैसे कछुआ अपने अंगों को खोल के भीतर समेट लेता है, उस तरह से जब मनुष्य इन्द्रियों को उनके विषयों से परावृत्त कर (लौटाकर), अपने अन्तर में स्थित चेतना में एकाग्र / स्थिर कर लेता है तो उसकी बुद्धि स्थिर होती है ।
--
अध्याय 2, श्लोक 68,
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
--
(तस्मात् यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेभ्यः तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥)
--
भावार्थ :
जैसा कि इस अध्याय 2 के इससे पूर्व के श्लोक 67 में कहा गया, यदि इन्द्रियाँ चंचल हों तो मन जिस किसी भी इन्द्रिय का अनुसरण कर उससे संलग्न हो जाता है, वही इन्द्रिय उसकी विवेक-बुद्धि को हर लेती है, ... इसलिए,)
हे महाबाहु अर्जुन! जिस पुरुष की सभी इन्द्रियाँ सम्यक् रूपेण उनके विषयों से हटा ली जाकर निगृहीत अर्थात् वश में होती हैं उसकी प्रज्ञा स्थिर होती है ।
--
अध्याय 3, श्लोक 23,
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या पार्थ सर्वशः ॥
--
(यदि हि अहम् न वर्तेयम् जातु कर्मणि अतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥)
--
यदि किसी भी काल में (कभी भी), मैं ही अप्रमादयुक्त न होकर (अर्थात् प्रमादयुक्त होकर, असावधानीपूर्वक) कर्म करूँ, तो चूँकि मनुष्य सब भाँति मेरा ही अनुसरण करते हैं ...( बड़ा अनर्थ हो जाये जैसा कि अगले श्लोक 24 में स्पष्ट किया गया है), हे पार्थ (अर्जुन) ! क्योंकि मनुष्यमात्र ही हर प्रकार से मेरी ओर ले जानेवाले मार्ग का ही अनुसरण किया करते हैं ।
टिप्पणी :
अध्याय 3, श्लोक 23 तथा अध्याय 4, श्लोक 11 की दूसरी पंक्ति समान है ।
--
अध्याय 4, श्लोक 11,
--
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तान्स्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥
--
(ये यथा माम् प्रपद्यन्ते तान् तथा एव भजामि अहम् ।
मम् वर्त्म-अनुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥)
--
मेरे प्रति जिस प्रकार की श्रद्धा-निष्ठा युक्त भावना रखते हुए जो मेरी जिस प्रकार से उपासना करते हैं, मैं उन्हें उसी रूप में प्राप्त होता हूँ । क्योंकि मनुष्यमात्र ही हर प्रकार से मेरी ओर ले जानेवाले मार्ग का ही अनुसरण किया करते हैं ।
--
टिप्पणी :
अध्याय 3, श्लोक 23 तथा अध्याय 4, श्लोक 11 की दूसरी पंक्ति समान है ।
--
अध्याय 10, श्लोक 2,
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहं आदिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥
--
(न मे विदुः सुरगणाः प्रभवम् न महर्षयः ।
अहम् आदिः हि देवानाम् महर्षीणाम् च सर्वशः ॥)
--
भावार्थ :
मेरी उत्पत्ति (आविर्भाव) को न तो सुरगण जानते हैं, और न ही कोई भी महर्षि । क्योंकि मैं ही सब प्रकार से देवताओं का तथा महर्षियों का भी आदि कारण हूँ ।
--
अध्याय 13, श्लोक 29,
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥
--
(प्रकृत्या एव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथा आत्मानम् अकर्तारम् सः पश्यति ॥)
--
भावार्थ :
समस्त कर्म प्रकृति के द्वारा ही किए जाते हैं , तथा आत्मा / अपने-आप के अकर्ता होने के सत्य को जो देखता है, वही (सत्य को) देखता है ।
--
’सर्वशः’ / ’sarvaśaḥ’ - in every way, on all sides,
Chapter 1, śloka 18,
drupado draupadeyāśca
sarvaśaḥ pṛthivīpate |
saubhadraśca mahābāhuḥ
śaṅkhāndadhmuḥ pṛthakpṛthak ||
--
(drupadaḥ draupadeyāḥ ca
sarvaśaḥ pṛthivīpate |
saubhadraḥ ca mahābāhuḥ-
śaṅkhān dadhmuḥ pṛthak pṛthak ||)
--
(sanjaya narrating to the King dhṛtarāṣṭra, -the running commentary of what he saw at battlefield)
drupada and the sons of draupadī, also the mighty-armed abhimanyu, -son of subhadrā , all blew their respective conchs. O King (dhṛtarāṣṭra)!
--
Chapter 2, śloka 58,
yadā saṃharate cāyaṃ
kūrmo:'ṅgānī va sarvaśaḥ |
indriyāṇīndriyārthebhyas-
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||
--
(yadā saṃharate ca ayam
kūrmaḥ aṅgāni iva sarvaśaḥ |
--
Meaning :
The aspirant should withdraw his attention back form the objects towards the senses, and then withdraw the same within heart / pure consciousness only, just like a tortoise who withdraws his limbs inwards. One who could do this is said to have of steady wisdom.
--
Chapter 2, śloka 68,
tasmādyasya mahābāho
nigṛhītāni sarvaśaḥ |
indriyāṇīndriyārthebhyas-
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||
--
(tasmāt yasya mahābāho
nigṛhītāni sarvaśaḥ |
indriyāṇi indriyārthebhyaḥ
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||)
--
(As already stated in the earlier śloka 68 of this Chapter 4, the discrimination of a mind is lost when it follows a sense attracted towards its object ,...)
Therefore O mahābāho (arjuna) ! One who has perfect control over the senses, and keeps them away from their respective objects whenever required, has his wisdom firmly established (in Truth).
Chapter 3, śloka 23,
yadi hyahaṃ na varteyaṃ
jātu karmaṇyatandritaḥ |
mama vartmānuvartante
manuṣyā pārtha sarvaśaḥ ||
--
(yadi hi aham na varteyam
jātu karmaṇi atandritaḥ |
mama vartmānuvartante
manuṣyāḥ pārtha sarvaśaḥ ||)
--
Meaning :
If even once for a moment, I stop working without proper attention and care, there will be great harm, (as is clarified in the next śloka24, of this Chapter 3) because O pārtha! (arjuna!) men always follow Me in all matters.
--
Note : The second half of the śloka 11 of Chapter 4, and śloka 23 of the Chapter 3 are identical.
--
Chapter 4, śloka 11,
ye yathā māṃ prapadyante
tānstathaiva bhajāmyaham |
mama vartmānuvartante
manuṣyāḥ pārtha sarvaśaḥ ||
--
(ye yathā mām prapadyante
tān tathā eva bhajāmi aham |
mam vartma-anuvartante
manuṣyāḥ pārtha sarvaśaḥ ||)
--
Meaning :
Who-so-ever comes to me with what-so-ever attitude, I respond to him in the same way. Because, O pārtha! (arjuna!) men always follow Me in all matters.
--
Note : The second half of the śloka 11 of Chapter 4, and śloka 23 of the Chapter 3 are identical.
--
Chapter 10, śloka 2,
na me viduḥ suragaṇāḥ
prabhavaṃ na maharṣayaḥ |
ahaṃ ādirhi devānāṃ
maharṣīṇāṃ ca sarvaśaḥ ||
--
(na me viduḥ suragaṇāḥ
prabhavam na maharṣayaḥ |
aham ādiḥ hi devānām
maharṣīṇām ca sarvaśaḥ ||)
--
Meaning :
Neither the various celestial beings / divine entities, nor the great sages know My origin, because I AM the very origin of all those divine entities and the Great sages.
--
Chapter 13, śloka 29,
prakṛtyaiva ca karmāṇi
kriyamāṇāni sarvaśaḥ |
yaḥ paśyati tathātmānam-
akartāraṃ sa paśyati ||
--
(prakṛtyā eva ca karmāṇi
kriyamāṇāni sarvaśaḥ |
yaḥ paśyati tathā ātmānam
akartāram saḥ paśyati ||)
--
Meaning :
All the actions (karmāṇi) are always performed by the prakṛti only (by means of the 3 guṇa-s / attributes). And the one who observes that 'I' ( the Self ) takes no part in any action (karma) sees the truth.
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’सर्वशः’ / ’sarvaśaḥ’ - सब प्रकार से, सब ओर से, हर तरह से,
अध्याय 1, श्लोक 18,
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥
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(द्रुपदः द्रौपदेयाः च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रः च महाबाहुःशङ्खान् दध्मुः पृथक् पृथक् ॥)
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भावार्थ :
हे राजन् (धृतराष्ट्र) ! राजा द्रुपद (द्रौपदी के पिता) तथा बलशाली भुजाओं वाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु सहित द्रौपदी के पाँचों पुत्रों ने भी युद्धक्षेत्र में सब ओर से अलग अलग शंखों का घोष किया ।
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अध्याय 2, श्लोक 58,
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
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(यदा संहरते च अयम् कूर्मः अङ्गानि इव सर्वशः ।
इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेभ्यः तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
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भावार्थ :
जैसे कछुआ अपने अंगों को खोल के भीतर समेट लेता है, उस तरह से जब मनुष्य इन्द्रियों को उनके विषयों से परावृत्त कर (लौटाकर), अपने अन्तर में स्थित चेतना में एकाग्र / स्थिर कर लेता है तो उसकी बुद्धि स्थिर होती है ।
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अध्याय 2, श्लोक 68,
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
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(तस्मात् यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेभ्यः तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥)
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भावार्थ :
जैसा कि इस अध्याय 2 के इससे पूर्व के श्लोक 67 में कहा गया, यदि इन्द्रियाँ चंचल हों तो मन जिस किसी भी इन्द्रिय का अनुसरण कर उससे संलग्न हो जाता है, वही इन्द्रिय उसकी विवेक-बुद्धि को हर लेती है, ... इसलिए,)
हे महाबाहु अर्जुन! जिस पुरुष की सभी इन्द्रियाँ सम्यक् रूपेण उनके विषयों से हटा ली जाकर निगृहीत अर्थात् वश में होती हैं उसकी प्रज्ञा स्थिर होती है ।
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अध्याय 3, श्लोक 23,
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या पार्थ सर्वशः ॥
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(यदि हि अहम् न वर्तेयम् जातु कर्मणि अतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥)
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यदि किसी भी काल में (कभी भी), मैं ही अप्रमादयुक्त न होकर (अर्थात् प्रमादयुक्त होकर, असावधानीपूर्वक) कर्म करूँ, तो चूँकि मनुष्य सब भाँति मेरा ही अनुसरण करते हैं ...( बड़ा अनर्थ हो जाये जैसा कि अगले श्लोक 24 में स्पष्ट किया गया है), हे पार्थ (अर्जुन) ! क्योंकि मनुष्यमात्र ही हर प्रकार से मेरी ओर ले जानेवाले मार्ग का ही अनुसरण किया करते हैं ।
टिप्पणी :
अध्याय 3, श्लोक 23 तथा अध्याय 4, श्लोक 11 की दूसरी पंक्ति समान है ।
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अध्याय 4, श्लोक 11,
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ये यथा मां प्रपद्यन्ते तान्स्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥
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(ये यथा माम् प्रपद्यन्ते तान् तथा एव भजामि अहम् ।
मम् वर्त्म-अनुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥)
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मेरे प्रति जिस प्रकार की श्रद्धा-निष्ठा युक्त भावना रखते हुए जो मेरी जिस प्रकार से उपासना करते हैं, मैं उन्हें उसी रूप में प्राप्त होता हूँ । क्योंकि मनुष्यमात्र ही हर प्रकार से मेरी ओर ले जानेवाले मार्ग का ही अनुसरण किया करते हैं ।
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टिप्पणी :
अध्याय 3, श्लोक 23 तथा अध्याय 4, श्लोक 11 की दूसरी पंक्ति समान है ।
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अध्याय 10, श्लोक 2,
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहं आदिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥
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(न मे विदुः सुरगणाः प्रभवम् न महर्षयः ।
अहम् आदिः हि देवानाम् महर्षीणाम् च सर्वशः ॥)
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भावार्थ :
मेरी उत्पत्ति (आविर्भाव) को न तो सुरगण जानते हैं, और न ही कोई भी महर्षि । क्योंकि मैं ही सब प्रकार से देवताओं का तथा महर्षियों का भी आदि कारण हूँ ।
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अध्याय 13, श्लोक 29,
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥
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(प्रकृत्या एव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथा आत्मानम् अकर्तारम् सः पश्यति ॥)
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भावार्थ :
समस्त कर्म प्रकृति के द्वारा ही किए जाते हैं , तथा आत्मा / अपने-आप के अकर्ता होने के सत्य को जो देखता है, वही (सत्य को) देखता है ।
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’सर्वशः’ / ’sarvaśaḥ’ - in every way, on all sides,
Chapter 1, śloka 18,
drupado draupadeyāśca
sarvaśaḥ pṛthivīpate |
saubhadraśca mahābāhuḥ
śaṅkhāndadhmuḥ pṛthakpṛthak ||
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(drupadaḥ draupadeyāḥ ca
sarvaśaḥ pṛthivīpate |
saubhadraḥ ca mahābāhuḥ-
śaṅkhān dadhmuḥ pṛthak pṛthak ||)
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(sanjaya narrating to the King dhṛtarāṣṭra, -the running commentary of what he saw at battlefield)
drupada and the sons of draupadī, also the mighty-armed abhimanyu, -son of subhadrā , all blew their respective conchs. O King (dhṛtarāṣṭra)!
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Chapter 2, śloka 58,
yadā saṃharate cāyaṃ
kūrmo:'ṅgānī va sarvaśaḥ |
indriyāṇīndriyārthebhyas-
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||
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(yadā saṃharate ca ayam
kūrmaḥ aṅgāni iva sarvaśaḥ |
indriyāṇi indriyārthebhyaḥ
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||--
Meaning :
The aspirant should withdraw his attention back form the objects towards the senses, and then withdraw the same within heart / pure consciousness only, just like a tortoise who withdraws his limbs inwards. One who could do this is said to have of steady wisdom.
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Chapter 2, śloka 68,
tasmādyasya mahābāho
nigṛhītāni sarvaśaḥ |
indriyāṇīndriyārthebhyas-
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||
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(tasmāt yasya mahābāho
nigṛhītāni sarvaśaḥ |
indriyāṇi indriyārthebhyaḥ
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||)
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(As already stated in the earlier śloka 68 of this Chapter 4, the discrimination of a mind is lost when it follows a sense attracted towards its object ,...)
Therefore O mahābāho (arjuna) ! One who has perfect control over the senses, and keeps them away from their respective objects whenever required, has his wisdom firmly established (in Truth).
Chapter 3, śloka 23,
yadi hyahaṃ na varteyaṃ
jātu karmaṇyatandritaḥ |
mama vartmānuvartante
manuṣyā pārtha sarvaśaḥ ||
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(yadi hi aham na varteyam
jātu karmaṇi atandritaḥ |
mama vartmānuvartante
manuṣyāḥ pārtha sarvaśaḥ ||)
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Meaning :
If even once for a moment, I stop working without proper attention and care, there will be great harm, (as is clarified in the next śloka24, of this Chapter 3) because O pārtha! (arjuna!) men always follow Me in all matters.
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Note : The second half of the śloka 11 of Chapter 4, and śloka 23 of the Chapter 3 are identical.
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Chapter 4, śloka 11,
ye yathā māṃ prapadyante
tānstathaiva bhajāmyaham |
mama vartmānuvartante
manuṣyāḥ pārtha sarvaśaḥ ||
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(ye yathā mām prapadyante
tān tathā eva bhajāmi aham |
mam vartma-anuvartante
manuṣyāḥ pārtha sarvaśaḥ ||)
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Meaning :
Who-so-ever comes to me with what-so-ever attitude, I respond to him in the same way. Because, O pārtha! (arjuna!) men always follow Me in all matters.
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Note : The second half of the śloka 11 of Chapter 4, and śloka 23 of the Chapter 3 are identical.
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Chapter 10, śloka 2,
na me viduḥ suragaṇāḥ
prabhavaṃ na maharṣayaḥ |
ahaṃ ādirhi devānāṃ
maharṣīṇāṃ ca sarvaśaḥ ||
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(na me viduḥ suragaṇāḥ
prabhavam na maharṣayaḥ |
aham ādiḥ hi devānām
maharṣīṇām ca sarvaśaḥ ||)
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Meaning :
Neither the various celestial beings / divine entities, nor the great sages know My origin, because I AM the very origin of all those divine entities and the Great sages.
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Chapter 13, śloka 29,
prakṛtyaiva ca karmāṇi
kriyamāṇāni sarvaśaḥ |
yaḥ paśyati tathātmānam-
akartāraṃ sa paśyati ||
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(prakṛtyā eva ca karmāṇi
kriyamāṇāni sarvaśaḥ |
yaḥ paśyati tathā ātmānam
akartāram saḥ paśyati ||)
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Meaning :
All the actions (karmāṇi) are always performed by the prakṛti only (by means of the 3 guṇa-s / attributes). And the one who observes that 'I' ( the Self ) takes no part in any action (karma) sees the truth.
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