आज का श्लोक, ’सर्वस्य / ’sarvasya’
_____________________________
’सर्वस्य / ’sarvasya’ - सबका, सबकी, सबके, सब के लिए,
अध्याय 2, श्लोक 30,
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥
--
देही नित्यम् अवध्यः अयम् देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात् सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुम् अर्हसि ॥
--
भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन) ! देह का वास्तविक स्वामी, वह चेतना जो देह को अपना कहती है, सभी देहों में सदैव अवध्य है, अर्थात् देह के बनने-मिटने से वह अप्रभावित रहता है । इसलिए सम्पूर्ण प्राणियों (में से किसी) के लिए भी तुम्हारा शोक करना उचित नहीं है ।
--
अध्याय 7, श्लोक 25,
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजव्ययम् ॥
--
(न अहम् प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढः अयम् न अभिजानाति लोकः माम् अजम् अव्ययम् ॥)
--
भावार्थ :
अपनी योगमाया* में अच्छी तरह से आवरित मैं सबको प्रत्यक्ष प्रकटतः नहीं दिखलाई देता । यह मूढ संसार मुझ जन्मरहित अविनाशी मेरे स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है ।
--
*टिप्पणी :
(भगवान् की योगमाया के तीन पक्ष हैं - आवरण, विक्षेप और अनुग्रह । इन तीन शक्तियों के प्रभाव से ही आत्मा जीव के रूप में बन्धनग्रस्त होती है और फिर मुक्ति को प्राप्त होकर अपने स्वरूप (भगवान्) में समाहित हो जाती है ।
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणियांसमनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः पपरस्तात् ॥
--
(कविम् पुराणम् अनुशासितारम् अणोः अणीयांसम् अनुस्मरेत् यः ।
सर्वस्य धातारम् अचिन्त्यरूपम् आदित्यवर्णम् तमसः परस्तात् ॥)
--
कवि अर्थात् सर्वज्ञ, आदिरहित, सबके नियन्ता सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म सबका धारण, पालन करनेवाले अचिन्त्य स्वरूप है जिनका ऐसे सूर्य के समान चैतन्यमय पुरुष, अविद्यारूपी अंधकार से अति परे, ... उस परम ईश्वर का जो भी इस-इस प्रकार से स्मरण करता है, ...।
--
टिप्पणी :
अध्याय 8 के इस श्लोक क्रमांक 9 में प्रयुक्त शब्द ’अनुस्मरेत्’ को इसी अध्याय के पूर्व के श्लोक क्रमांक 7 में भी ’अनुस्मर’ के रूप में प्रयुक्त किया गया है, ...
--
अध्याय 10, श्लोक 8,
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥
--
(अहम् सर्वस्य प्रभवः मत्तः सर्वम् प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते माम् बुधाः भावसमन्विताः ॥)
--
मैं सबकी उत्पत्ति (हूँ), मुझसे ही सब कुछ प्रवृत्तिशील है, इस प्रकार से समझते हुए, हृदय की भावना को मुझ समन्वित कर बुद्धिमान मनुष्य मुझको (परमेश्ववर को) सदा भजते हैं ।
--
अध्याय 13, श्लोक 17,
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥
--
(ज्योतिषाम् अपि तत् ज्योतिः तमसः परम् उच्यते ।
ज्ञानम् ज्ञेयम् ज्ञानगम्यम् हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥)
--
भावार्थ :
समस्त ज्योतिर्मय पिंडों में स्थित स्थूल (इंद्रियग्राह्य) ज्योति की तुलना में उसी ज्योति को से श्रेष्ठ कहा गया है, जो सबके हृदय में ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञानगम्य तीनों रूपों में प्रविष्ट है ।
--
अध्याय 15, श्लोक 15,
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेवचाहम् ॥
--
(सर्वस्य च अहम् हृदि संनिविष्टः मत्तः स्मृतिः ज्ञानम् अपोहनम् च ।
वेदैः सर्वैः अहम् एव वेद्यः वेदान्तकृत्-वेदवित् एव च अहम् ॥)
--
भावार्थ :
'मैं' सबके हृदय में चेतना के रूप में सदा अवस्थित हूँ । मुझसे ही प्राणिमात्र में स्मृति, ज्ञान एवं उनका उद्गम, संकल्पों का उद्भव, विकल्प और विलोपन होता रहता है । पुनः समस्त वेदों में एकमात्र मुझे ही जानने योग्य कहा गया है । वेदान्त का प्रणेता, वेदार्थ का कर्ता और वेद को समझनेवाला भी मैं ही हूँ ।
--
अध्याय 17, श्लोक 3,
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥
--
(सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धामयः अयम् पुरुषः यः यत्-श्रद्धः सः एव सः ॥)
--
भावार्थ :
हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त एवं ’मैं’-भावना रूपी चतुष्टय तथा उनका अधिष्ठान साक्षी-बुद्धि / शुद्ध चेतनता) के अनुरूप हुआ करती है । यह पुरुष श्रद्धामय है, अतएव जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है ।
--
अध्याय 17, श्लोक 7,
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः ।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु ॥
--
(आहारः तु अपि सर्वस्य त्रिविधः भवति प्रियः ।
यज्ञः तपः तथा दानम् तेषाम् भेदम् इमम् शृणु ॥)
--
भावार्थ :
भोजन भी सबको अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार (सात्विक, राजसिक अथवा तामसी) तीन प्रकार से प्रिय होता है । एवं इसी तरह से यज्ञ, तप एवं दान भी (जिन तीन प्रकारों से अपनी अपनी प्रकृति से) किया जाता है, उनके भेद क्या हैं, इसे सुनो ।
--
’सर्वस्य / ’sarvasya’ - of all, for all,
Chapter 2, śloka 30,
dehī nityamavadhyo:'yaṃ
dehe sarvasya bhārata |
tasmātsarvāṇi bhūtāni
na tvaṃ śocitumarhasi ||
--
dehī nityam avadhyaḥ ayam
dehe sarvasya bhārata |
tasmāt sarvāṇi bhūtāni
na tvaṃ śocitum arhasi ||
--
Meaning :
The one in all the physical forms that has owned the body, is ever so unassailable O bhārata (arjuna) ! Therefore your grieving for all those beings is just meaningless.
--
Chapter 7, śloka 25,
nāhaṃ prakāśaḥ sarvasya
yogamāyāsamāvṛtaḥ |
mūḍho:'yaṃ nābhijānāti
loko māmajavyayam ||
--
(na aham prakāśaḥ sarvasya
yogamāyāsamāvṛtaḥ |
mūḍhaḥ ayam na abhijānāti
lokaḥ mām ajam avyayam ||)
--
Meaning :
Hidden under My yogamāyā*, I AM not visible to all. So, this world ignorant of My Reality, is unable to know Me, -The Unborn and The Imperishable principle.
--
*Note :
yogamāyā is the power that manifests in the 3 forms as : āvaraṇa, vikṣepa, anugraha,
āvaraṇa, conceals the Reality from our eyes.
vikṣepa, imposes upon us something else as true.
anugraha, is the Grace, that enables to free ourselves from these two kinds which keep us in bondage.
--
Chapter 8, śloka 9,
kaviṃ purāṇamanuśāsitāra-
maṇoraṇiyāṃsamanusmaredyaḥ |
sarvasya dhātāramacintyarūpa-
mādityavarṇaṃ tamasaḥ paparastāt ||
--
(kavim purāṇam anuśāsitāram
aṇoḥ aṇīyāṃsam anusmaret yaḥ |
sarvasya dhātāram acintyarūpam
ādityavarṇam tamasaḥ parastāt ||)
--
Meaning :
"He is Omniscient (kavi), He is timeless Being, He is the Sovereign Lord of all, subtlest in comparision to the subtle, He is The One who sutains all and everythin, of the form which is beyond the imagination of the man, He is effulgent like the Sun, beyond sarkness of ignorance, ..."
Who so ever Meditates upon Him thus, ...
--
Chapter 10, śloka 8,
ahaṃ sarvasya prabhavo
mattaḥ sarvaṃ pravartate |
iti matvā bhajante māṃ
budhā bhāvasamanvitāḥ ||
--
(aham sarvasya prabhavaḥ
mattaḥ sarvam pravartate |
iti matvā bhajante mām
budhāḥ bhāvasamanvitāḥ ||)
--
Meaning :
I AM The origin from where all everything comes into existence, and through Me, everything prospers. The wise are ever devoted to Me with this spirit of understanding Me.
--
Chapter 13, śloka 17,
jyotiṣāmapi tajjyotis-
tamasaḥ paramucyate |
jñānaṃ jñeyaṃ jñānagamyaṃ
hṛdi sarvasya viṣṭhitam ||
--
(jyotiṣām api tat jyotiḥ
tamasaḥ param ucyate |
jñānam jñeyam jñānagamyam
hṛdi sarvasya viṣṭhitam ||)
--
Meaning :
It is the light of all lights, different from darkness, It is the Enlightenment, comprehensible and within the capacity of understanding. It is already and ever there available accessible and inherent in the Heart of all beings.
--
Chapter 15, śloka 15,
--
sarvasya cāhaṃ hṛdi sanniviṣṭo
mattaḥ smṛtirjñānamapohanaṃ ca |
vedaiśca sarvairahameva vedyo
vedāntakṛdvedavidevacāham ||
--
(sarvasya ca aham hṛdi saṃniviṣṭaḥ
mattaḥ smṛtiḥ jñānam apohanam ca |
vedaiḥ sarvaiḥ aham eva vedyaḥ
vedāntakṛt-vedavit eva ca aham ||)
--
Meaning :
I am seated in the Hearts of all being. I am the source of memory, knowledge and forgetfulness also. From Me emerge all thought (vṛtti / saṃkalpa), choice and rejection, and also their dissolution . I am the principle all the Vedas speak of, worth known, and is learnt from. Alone I am the author and the knower of the vedas.
--
Chapter 17, śloka 3,
sattvānurūpā sarvasya
śraddhā bhavati bhārata |
śraddhāmayo:'yaṃ puruṣo
yo yacchraddhaḥ sa eva saḥ ||
__
(sattvānurūpā sarvasya
śraddhā bhavati bhārata |
śraddhāmayaḥ ayam puruṣaḥ
yaḥ yat-śraddhaḥ saḥ eva saḥ ||)
--
--
Meaning :
According to the sattva, every-one has the own specific construct of mind (thought, intellect, consciousness and ego, these 4 together form the tendencies and modes of mind, and this is the inherent spontaneous instinct śraddhā, of a man) . This man is verily the śraddhā, so one is of the kind, what-ever and of what-so-ever kind is the inborn tendencies of the mind / śraddhā, he has from the birth.
--
Chapter 17, śloka 7,
āhārastvapi sarvasya
trividho bhavati priyaḥ |
yajñastapastathā dānaṃ
teṣāṃ bhedamimaṃ śṛṇu ||
--
(āhāraḥ tu api sarvasya
trividhaḥ bhavati priyaḥ |
yajñaḥ tapaḥ tathā dānam
teṣām bhedam imam śṛṇu ||)
--
Meaning :
The food of all, they like according to their tendencies (prakṛti - sātvika, rājasika tāmasika) is also of three kinds as also the way of sacrifice (yajña), austerities (tapas) and charity (dānaṃ ) performed by them.
--
_____________________________
’सर्वस्य / ’sarvasya’ - सबका, सबकी, सबके, सब के लिए,
अध्याय 2, श्लोक 30,
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥
--
देही नित्यम् अवध्यः अयम् देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात् सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुम् अर्हसि ॥
--
भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन) ! देह का वास्तविक स्वामी, वह चेतना जो देह को अपना कहती है, सभी देहों में सदैव अवध्य है, अर्थात् देह के बनने-मिटने से वह अप्रभावित रहता है । इसलिए सम्पूर्ण प्राणियों (में से किसी) के लिए भी तुम्हारा शोक करना उचित नहीं है ।
--
अध्याय 7, श्लोक 25,
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजव्ययम् ॥
--
(न अहम् प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढः अयम् न अभिजानाति लोकः माम् अजम् अव्ययम् ॥)
--
भावार्थ :
अपनी योगमाया* में अच्छी तरह से आवरित मैं सबको प्रत्यक्ष प्रकटतः नहीं दिखलाई देता । यह मूढ संसार मुझ जन्मरहित अविनाशी मेरे स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है ।
--
*टिप्पणी :
(भगवान् की योगमाया के तीन पक्ष हैं - आवरण, विक्षेप और अनुग्रह । इन तीन शक्तियों के प्रभाव से ही आत्मा जीव के रूप में बन्धनग्रस्त होती है और फिर मुक्ति को प्राप्त होकर अपने स्वरूप (भगवान्) में समाहित हो जाती है ।
--
अध्याय 8, श्लोक 9,कविं पुराणमनुशासितारमणोरणियांसमनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः पपरस्तात् ॥
--
(कविम् पुराणम् अनुशासितारम् अणोः अणीयांसम् अनुस्मरेत् यः ।
सर्वस्य धातारम् अचिन्त्यरूपम् आदित्यवर्णम् तमसः परस्तात् ॥)
--
कवि अर्थात् सर्वज्ञ, आदिरहित, सबके नियन्ता सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म सबका धारण, पालन करनेवाले अचिन्त्य स्वरूप है जिनका ऐसे सूर्य के समान चैतन्यमय पुरुष, अविद्यारूपी अंधकार से अति परे, ... उस परम ईश्वर का जो भी इस-इस प्रकार से स्मरण करता है, ...।
--
टिप्पणी :
अध्याय 8 के इस श्लोक क्रमांक 9 में प्रयुक्त शब्द ’अनुस्मरेत्’ को इसी अध्याय के पूर्व के श्लोक क्रमांक 7 में भी ’अनुस्मर’ के रूप में प्रयुक्त किया गया है, ...
--
अध्याय 10, श्लोक 8,
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥
--
(अहम् सर्वस्य प्रभवः मत्तः सर्वम् प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते माम् बुधाः भावसमन्विताः ॥)
--
मैं सबकी उत्पत्ति (हूँ), मुझसे ही सब कुछ प्रवृत्तिशील है, इस प्रकार से समझते हुए, हृदय की भावना को मुझ समन्वित कर बुद्धिमान मनुष्य मुझको (परमेश्ववर को) सदा भजते हैं ।
--
अध्याय 13, श्लोक 17,
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥
--
(ज्योतिषाम् अपि तत् ज्योतिः तमसः परम् उच्यते ।
ज्ञानम् ज्ञेयम् ज्ञानगम्यम् हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥)
--
भावार्थ :
समस्त ज्योतिर्मय पिंडों में स्थित स्थूल (इंद्रियग्राह्य) ज्योति की तुलना में उसी ज्योति को से श्रेष्ठ कहा गया है, जो सबके हृदय में ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञानगम्य तीनों रूपों में प्रविष्ट है ।
--
अध्याय 15, श्लोक 15,
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेवचाहम् ॥
--
(सर्वस्य च अहम् हृदि संनिविष्टः मत्तः स्मृतिः ज्ञानम् अपोहनम् च ।
वेदैः सर्वैः अहम् एव वेद्यः वेदान्तकृत्-वेदवित् एव च अहम् ॥)
--
भावार्थ :
'मैं' सबके हृदय में चेतना के रूप में सदा अवस्थित हूँ । मुझसे ही प्राणिमात्र में स्मृति, ज्ञान एवं उनका उद्गम, संकल्पों का उद्भव, विकल्प और विलोपन होता रहता है । पुनः समस्त वेदों में एकमात्र मुझे ही जानने योग्य कहा गया है । वेदान्त का प्रणेता, वेदार्थ का कर्ता और वेद को समझनेवाला भी मैं ही हूँ ।
--
अध्याय 17, श्लोक 3,
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥
--
(सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धामयः अयम् पुरुषः यः यत्-श्रद्धः सः एव सः ॥)
--
भावार्थ :
हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त एवं ’मैं’-भावना रूपी चतुष्टय तथा उनका अधिष्ठान साक्षी-बुद्धि / शुद्ध चेतनता) के अनुरूप हुआ करती है । यह पुरुष श्रद्धामय है, अतएव जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है ।
--
अध्याय 17, श्लोक 7,
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः ।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु ॥
--
(आहारः तु अपि सर्वस्य त्रिविधः भवति प्रियः ।
यज्ञः तपः तथा दानम् तेषाम् भेदम् इमम् शृणु ॥)
--
भावार्थ :
भोजन भी सबको अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार (सात्विक, राजसिक अथवा तामसी) तीन प्रकार से प्रिय होता है । एवं इसी तरह से यज्ञ, तप एवं दान भी (जिन तीन प्रकारों से अपनी अपनी प्रकृति से) किया जाता है, उनके भेद क्या हैं, इसे सुनो ।
--
’सर्वस्य / ’sarvasya’ - of all, for all,
Chapter 2, śloka 30,
dehī nityamavadhyo:'yaṃ
dehe sarvasya bhārata |
tasmātsarvāṇi bhūtāni
na tvaṃ śocitumarhasi ||
--
dehī nityam avadhyaḥ ayam
dehe sarvasya bhārata |
tasmāt sarvāṇi bhūtāni
na tvaṃ śocitum arhasi ||
--
Meaning :
The one in all the physical forms that has owned the body, is ever so unassailable O bhārata (arjuna) ! Therefore your grieving for all those beings is just meaningless.
--
Chapter 7, śloka 25,
nāhaṃ prakāśaḥ sarvasya
yogamāyāsamāvṛtaḥ |
mūḍho:'yaṃ nābhijānāti
loko māmajavyayam ||
--
(na aham prakāśaḥ sarvasya
yogamāyāsamāvṛtaḥ |
mūḍhaḥ ayam na abhijānāti
lokaḥ mām ajam avyayam ||)
--
Meaning :
Hidden under My yogamāyā*, I AM not visible to all. So, this world ignorant of My Reality, is unable to know Me, -The Unborn and The Imperishable principle.
--
*Note :
yogamāyā is the power that manifests in the 3 forms as : āvaraṇa, vikṣepa, anugraha,
āvaraṇa, conceals the Reality from our eyes.
vikṣepa, imposes upon us something else as true.
anugraha, is the Grace, that enables to free ourselves from these two kinds which keep us in bondage.
--
Chapter 8, śloka 9,
kaviṃ purāṇamanuśāsitāra-
maṇoraṇiyāṃsamanusmaredyaḥ |
sarvasya dhātāramacintyarūpa-
mādityavarṇaṃ tamasaḥ paparastāt ||
--
(kavim purāṇam anuśāsitāram
aṇoḥ aṇīyāṃsam anusmaret yaḥ |
sarvasya dhātāram acintyarūpam
ādityavarṇam tamasaḥ parastāt ||)
--
Meaning :
"He is Omniscient (kavi), He is timeless Being, He is the Sovereign Lord of all, subtlest in comparision to the subtle, He is The One who sutains all and everythin, of the form which is beyond the imagination of the man, He is effulgent like the Sun, beyond sarkness of ignorance, ..."
Who so ever Meditates upon Him thus, ...
--
Chapter 10, śloka 8,
ahaṃ sarvasya prabhavo
mattaḥ sarvaṃ pravartate |
iti matvā bhajante māṃ
budhā bhāvasamanvitāḥ ||
--
(aham sarvasya prabhavaḥ
mattaḥ sarvam pravartate |
iti matvā bhajante mām
budhāḥ bhāvasamanvitāḥ ||)
--
Meaning :
I AM The origin from where all everything comes into existence, and through Me, everything prospers. The wise are ever devoted to Me with this spirit of understanding Me.
--
Chapter 13, śloka 17,
jyotiṣāmapi tajjyotis-
tamasaḥ paramucyate |
jñānaṃ jñeyaṃ jñānagamyaṃ
hṛdi sarvasya viṣṭhitam ||
--
(jyotiṣām api tat jyotiḥ
tamasaḥ param ucyate |
jñānam jñeyam jñānagamyam
hṛdi sarvasya viṣṭhitam ||)
--
Meaning :
It is the light of all lights, different from darkness, It is the Enlightenment, comprehensible and within the capacity of understanding. It is already and ever there available accessible and inherent in the Heart of all beings.
--
Chapter 15, śloka 15,
--
sarvasya cāhaṃ hṛdi sanniviṣṭo
mattaḥ smṛtirjñānamapohanaṃ ca |
vedaiśca sarvairahameva vedyo
vedāntakṛdvedavidevacāham ||
--
(sarvasya ca aham hṛdi saṃniviṣṭaḥ
mattaḥ smṛtiḥ jñānam apohanam ca |
vedaiḥ sarvaiḥ aham eva vedyaḥ
vedāntakṛt-vedavit eva ca aham ||)
--
Meaning :
I am seated in the Hearts of all being. I am the source of memory, knowledge and forgetfulness also. From Me emerge all thought (vṛtti / saṃkalpa), choice and rejection, and also their dissolution . I am the principle all the Vedas speak of, worth known, and is learnt from. Alone I am the author and the knower of the vedas.
--
Chapter 17, śloka 3,
sattvānurūpā sarvasya
śraddhā bhavati bhārata |
śraddhāmayo:'yaṃ puruṣo
yo yacchraddhaḥ sa eva saḥ ||
__
(sattvānurūpā sarvasya
śraddhā bhavati bhārata |
śraddhāmayaḥ ayam puruṣaḥ
yaḥ yat-śraddhaḥ saḥ eva saḥ ||)
--
--
Meaning :
According to the sattva, every-one has the own specific construct of mind (thought, intellect, consciousness and ego, these 4 together form the tendencies and modes of mind, and this is the inherent spontaneous instinct śraddhā, of a man) . This man is verily the śraddhā, so one is of the kind, what-ever and of what-so-ever kind is the inborn tendencies of the mind / śraddhā, he has from the birth.
--
Chapter 17, śloka 7,
āhārastvapi sarvasya
trividho bhavati priyaḥ |
yajñastapastathā dānaṃ
teṣāṃ bhedamimaṃ śṛṇu ||
--
(āhāraḥ tu api sarvasya
trividhaḥ bhavati priyaḥ |
yajñaḥ tapaḥ tathā dānam
teṣām bhedam imam śṛṇu ||)
--
Meaning :
The food of all, they like according to their tendencies (prakṛti - sātvika, rājasika tāmasika) is also of three kinds as also the way of sacrifice (yajña), austerities (tapas) and charity (dānaṃ ) performed by them.
--
No comments:
Post a Comment