Tuesday, June 17, 2014

आज का श्लोक, ’सर्वान्’ / ’sarvān’

आज का श्लोक, ’सर्वान्’ / ’sarvān’
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’सर्वान्’ / ’sarvān’- सबको,

अध्याय 1, श्लोक 27,

श्वसुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ॥
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श्वसुरान् सुहृदः च एव सेनयोः उभयोः अपि ।
तान् समीक्ष्य सः कौन्तेयः सर्वान् बन्धून् अवस्थितान् ॥)
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भावार्थ :
श्वसुरों को, सुहृदों को, दोनों ही सेनाओं में अवस्थित अपने सारे बन्धुओं को देखकर वह कुन्तीपुत्र अर्जुन,....
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अध्याय 2, श्लोक 55,

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥
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(प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान् ।
आत्मनि-एव-आत्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञः तदा उच्यते ॥)
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भावार्थ :
हे अर्जुन! जब कोई मनुष्य मन में उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओं को (उनकी निस्सारता जान लेने के बाद) अनायास त्याग देता है तथा (आत्मा को जानकर तथा उसमें ही अवस्थित रहते हुए) आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ।
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अध्याय 2, श्लोक 71,

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
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(विहाय कामान् यः सर्वान् पुमान् चरति निःस्पृहः ।
निर्ममः निरहङ्कारः सः शान्तिम् अधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
और, जो पुरुष कामनाओं को त्यागकर, ममत्व से रहित, अहंकार से रहित, स्पृहा (अर्थात् ईर्ष्या / लालसा) से भी रहित हुआ आचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है ।
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अध्याय 4, श्लोक 32,

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥
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(एवम् बहुविधाः यज्ञाः वितताः ब्रह्मणः मुखे ।
कर्मजान् विद्धि तान् सर्वान् एवम् ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥)
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भावार्थ :
इस प्रकार से जो विविध और अनेक प्रकार के बहुत से यज्ञ वेद के मुख से कहे गए हैं, उन सभी का अनुष्ठान मन-बुद्धि, इन्द्रिय, तथा शरीर के माध्यम से, अर्थात् ’कर्म’ से ही पूर्ण होता है, यह जानने पर तुम (कर्म एवं कर्म-बन्धन) से छूट जाओगे ।
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अध्याय 6, श्लोक 24,

सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥
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(सङ्कल्पप्रभवान् कामान् त्यक्त्वा सर्वान् अशेषतः ।
मनसा-एव-इन्द्रियग्रामम् विनियम्य समन्ततः ॥)
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भावार्थ :
संकल्प से उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेष रूप से त्यागकर, मन के द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सभी विषयों की ओर जाने से भलीभाँति रोककर,  ...
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टिप्पणी 1 :
इस श्लोक को अधिक अच्छी तरह से समझने के लिए अध्याय 2 के श्लोक 62 का सन्दर्भ उपयोगी है ।
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अध्याय 11, श्लोक 15,

अर्जुन उवाच :

पश्यामि देवांस्तव देव देहे
सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान् ।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ-
मृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ॥
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(पश्यामि देवान् तव देव देहे
सर्वान् तथा भूतविशेषसङ्घान् ।
ब्रह्माणम्-ईशम् कमलासनस्थम्
ऋषीन् च सर्वान् उरगान् च दिव्यान् ॥
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भावार्थ :
अर्जुन ने कहा :
हे देव! आपके शरीर (स्वरूप) में समस्त देवताओं तथा बहुत से भूतसमुदायों को भी देख रहा हूँ । पद्मासनस्थ ब्रह्मा एवं महादेव (शंकर) को, सम्पूर्ण ऋषियों और दिव्य सर्पों को भी देख रहा हूँ ।
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टिप्पणी :
इन समस्त भौतिक (भूतसमुदाय) और दिव्य (सूक्ष्म-स्तर पर जिनका अस्तित्व है, और जो सूक्ष्म होने से अधिक शक्तिशाली भी हैं ऐसे देवताओं का) समुदाय का होना / अस्तित्व भी किसी मूलतः ’चैतन्य’ अधिष्ठान में ही संभव और आश्रित हो सकता है, वही उस परम तत्व का ’स्वरूप’ है । और अर्जुन ने यह सब स्थूल नेत्रों से नहीं, बल्कि भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा प्रदत्त उस ’दिव्य’ नेत्र से देखा था, जिसके बिना यह सब देखा जाना असंभव है । इसे हम ’प्रज्ञा’-नेत्र भी कह सकते हैं, अर्थात् ’साक्षात्-दर्शन’ । पुनः इसे भी पौराणिक तथा वैदिक दोनों दृष्टियों से समझा जा सकता है । उन दोनों दृष्टियों में न तो विरोध है, न विसंगति ।
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’सर्वान्’ / ’sarvān’- to all,

Chapter 1, śloka 27,

śvasurānsuhṛdaścaiva
senayorubhayorapi |
tānsamīkṣya sa kaunteyaḥ
sarvānbandhūnavasthitān ||
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śvasurān suhṛdaḥ ca eva
senayoḥ ubhayoḥ api |
tān samīkṣya saḥ kaunteyaḥ
sarvān bandhūn avasthitān ||)
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Meaning : (He, - arjuna saw there,) his fathers-in-law,  dear-ones and well-wishers, standing before him in both the armies. And Having seen them all his brethren, ...
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Chapter 2, śloka 55,

prajahāti yadā kāmān-
sarvānpārtha manogatān |
ātmanyevātmanā tuṣṭaḥ
sthitaprajñastadocyate ||
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(prajahāti yadā kāmān
sarvān pārtha manogatān |
ātmani-eva-ātmanā tuṣṭaḥ
sthitaprajñaḥ tadā ucyate ||)
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Meaning :
O partha (arjuna) ! When one is able to free oneself from all desires of all kinds that mind conjures up, and is content with the Self only, then he is said to be of the steady mind.
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Chapter 2, śloka 71,
vihāya kāmānyaḥ sarvān-
pumāṃścarati niḥspṛhaḥ |
nirmamo nirahaṅkāraḥ
sa śāntimadhigacchati ||
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(vihāya kāmān yaḥ sarvān 
pumān carati niḥspṛhaḥ |
nirmamaḥ nirahaṅkāraḥ
saḥ śāntim adhigacchati ||)
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Meaning :
One who has forsaken all desire, and lives peacefully contented thus, having no attachment nor ego, abides ever in bliss supreme.
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Chapter 4, śloka 32,

evaṃ bahuvidhā yajñā
vitatā brahmaṇo mukhe |
karmajānviddhi tānsarvan-
evaṃ jñātvā vimokṣyase ||
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(evam bahuvidhāḥ yajñāḥ
vitatāḥ brahmaṇaḥ mukhe |
karmajān viddhi tān sarvān 
evam jñātvā vimokṣyase ||)
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Meaning :
In this way veda described many different kinds of sacrifices / 'yajña-s', that are performed only with the help of action (karma) through body, heart and mind, and intellect, knowing this, you shall be liberated (from the bondage of ’karma’ and ’karma-bandhana’).
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Chapter 6, śloka 24,

saṅkalpaprabhavānkāmāṃ-
styaktvā sarvānaśeṣataḥ |
manasaivendriyagrāmaṃ
viniyamya samantataḥ ||
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(saṅkalpaprabhavān kāmān
tyaktvā sarvān aśeṣataḥ |
manasā-eva-indriyagrāmam
viniyamya samantataḥ ||)
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Meaning :
Giving up completely all the desires born of thought, and controlling with the help of mind (awareness), all the senses from going outward towards their objects, ...
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Chapter 11, śloka 15,

arjuna uvāca :
paśyāmi devāṃstava deva dehe
sarvāṃstathā bhūtaviśeṣasaṅghān |
brahmāṇamīśaṃ kamalāsanastha-
mṛṣīṃśca sarvānuragāṃśca divyān ||
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(paśyāmi devān tava deva dehe
sarvān tathā bhūtaviśeṣasaṅghān |
brahmāṇam-īśam kamalāsanastham
ṛṣīn ca sarvān uragān ca divyān ||
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Meaning :
arjuna said :
O Lord! I see in your countenance all the divine entities, and I also see there, all the material-principles. I see Lord brahmā and maheśvara there in lotus-posture. I see all the sages and seers ( ṛṣi-s), and the celestial serpents (uraga) as well.
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