आज का श्लोक, ’सहजम्’ / ’sahajam’
_________________________________
’सहजम्’ / ’sahajam’ - स्वाभाविक रूप से प्राप्त और शास्त्रविहित (कर्म)
अध्याय 18, श्लोक 48,
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमाग्निरिवावृताः ॥
--
(सहजम् कर्म कौन्तेय सदोषम् अपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भाः हि दोषेण धूमेन अग्निः इव आवृताः ॥)
--
भावार्थ : स्वाभाविक रूप से प्राप्त हुए शास्त्रविहित कर्म उनमें विद्यमान किसी दोष के होने के भय से त्यागना उचित नहीं है, क्योंकि जैसे अग्नि धुएँ से युक्त होती है, वैसे ही सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त होते हैं ।
टिप्पणी :
इस अध्याय 18 के श्लोक क्रमांक 7, 8 तथा 9 के सन्दर्भ में इस श्लोक का भावार्थ अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है ।
--
’सहजम्’ / ’sahajam’ - The duties one has acquired in a usual way and is obliged to do.
Chapter , śloka 48,
sahajaṃ karma kaunteya
sadoṣamapi na tyajet |
sarvārambhā hi doṣeṇa
dhūmāgnirivāvtāḥ ||
--
(sahajam karma kaunteya
sadoṣam api na tyajet |
sarvārambhāḥ hi doṣeṇa
dhūmena agniḥ iva āvṛtāḥ ||)
--
Meaning :
One should never give up the one's own ordained duty, for the fear of the apparent faults there-in. In the beginning, just as the fire has with it the smoke, all actions may have certain faults associated with them.
--
Note :
The śloka-s 7, 8 and 9 of this Chapter 18 bring the point at home nicely.
--
_________________________________
’सहजम्’ / ’sahajam’ - स्वाभाविक रूप से प्राप्त और शास्त्रविहित (कर्म)
अध्याय 18, श्लोक 48,
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमाग्निरिवावृताः ॥
--
(सहजम् कर्म कौन्तेय सदोषम् अपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भाः हि दोषेण धूमेन अग्निः इव आवृताः ॥)
--
भावार्थ : स्वाभाविक रूप से प्राप्त हुए शास्त्रविहित कर्म उनमें विद्यमान किसी दोष के होने के भय से त्यागना उचित नहीं है, क्योंकि जैसे अग्नि धुएँ से युक्त होती है, वैसे ही सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त होते हैं ।
टिप्पणी :
इस अध्याय 18 के श्लोक क्रमांक 7, 8 तथा 9 के सन्दर्भ में इस श्लोक का भावार्थ अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है ।
--
’सहजम्’ / ’sahajam’ - The duties one has acquired in a usual way and is obliged to do.
Chapter , śloka 48,
sahajaṃ karma kaunteya
sadoṣamapi na tyajet |
sarvārambhā hi doṣeṇa
dhūmāgnirivāvtāḥ ||
--
(sahajam karma kaunteya
sadoṣam api na tyajet |
sarvārambhāḥ hi doṣeṇa
dhūmena agniḥ iva āvṛtāḥ ||)
--
Meaning :
One should never give up the one's own ordained duty, for the fear of the apparent faults there-in. In the beginning, just as the fire has with it the smoke, all actions may have certain faults associated with them.
--
Note :
The śloka-s 7, 8 and 9 of this Chapter 18 bring the point at home nicely.
--
No comments:
Post a Comment