Sunday, June 29, 2014

आज का श्लोक, ’सर्वत्रगम्’ / ’sarvatragam’

आज का श्लोक,
’सर्वत्रगम्’ / ’sarvatragam’ 
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’सर्वत्रगम्’  / ’sarvatragam’ - सर्वव्यापी,

अध्याय 12, श्लोक 3,

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते ।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥
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(ये तु अक्षरम् अनिर्देश्यम् अव्यक्तम् पर्युपासते ।
सर्वत्रगम् अचिन्त्यम् च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥)
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भावार्थ : ईश्वर की अनन्य भक्ति से ही उसकी कृपा होने पर उसके दर्शन एवं स्वरूप को तत्व से जानना संभव होता है । यह सीधा मार्ग है ।
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टिप्पणी : 
इस श्लोक की पूर्वभूमिका के रूप में पिछले अध्याय 11 के श्लोक 54, 55 एवं इस अध्याय के श्लोक 1, 2 को समझना उपयोगी होगा ।
ईश्वर की अनन्य भक्ति से ही उसकी कृपा होने पर उसके दर्शन एवं स्वरूप को तत्व से जानना और उसमें एकत्व की प्राप्ति संभव होती है । यह सीधा मार्ग है ।

अध्याय 11, श्लोक 54,

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥
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(भक्त्या तु अनन्यया शक्यः अहम् एवंविधः अर्जुन ।
 ज्ञातुम् द्रष्टुम् च तत्वेन प्रवेष्टुम् च परन्तप ॥)
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भावार्थ :
किन्तु अनन्य भक्ति होने से अवश्य ही मुझको मेरे यथार्थ स्वरूप में इस प्रकार से देख पाना, जानना, तथा मुझमें प्रविष्ट होकर मुझसे अभिन्न हो जाना संभव है ।
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अध्याय 11, श्लोक 55,
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥
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(मत्कर्म-कृत्-मत्परमः मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः सः माम् एति पाण्डव ॥)
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भावार्थ :
हे पाण्डुपुत्र अर्जुन! जो पुरुष मेरे लिए ही (प्रारब्धवश प्राप्त हुए) आसक्तिरहित होकर, सम्पूर्ण कर्मों को करता है (और उन्हें मुझे ही अर्पित करता है), जो सभी प्राणियों से वैररहित है, ऐसा मेरा वह भक्त मुझे ही प्राप्त होता है ।
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अनन्य भक्ति के चार प्रकार -

अध्याय 7, श्लोक 16,

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥
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(चतुर्विधा भजन्ते माम् जनाः सुकृतिनः अर्जुन ।
आर्तः जिज्ञासुः अर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥)
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भावार्थ :
हे अर्जुन ! शुभ कर्म करनेवाले मेरे भक्त चार प्रकार से मुझे भजते हैं ; आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी एवं ज्ञानी ।
टिप्पणी :
आर्त - जो किसी संकट से त्रस्त है और उस संकट छुटकारा पाना चाहता है ,
जिज्ञासु - जो मेरे (ईश्वर के) स्वरूप को जानने की इच्छा रखता है ।
अर्थार्थी - जो किसी लौकिक अभिलाषा को पूर्ण करना चाहता है ।
ज्ञानी - जो मुझे तत्व से जानता है ।
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’सर्वत्रगम्’  / ’sarvatragam’ - All-pervading,

Chapter 12, śloka 3,

ye tvakṣaramanirdeśyam-
avyaktaṃ paryupāsate |
sarvatragamacintyaṃ ca
kūṭasthamacalaṃ dhruvam ||
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(ye tu akṣaram anirdeśyam
avyaktam paryupāsate |
sarvatragam acintyam ca
kūṭasthamacalaṃ dhruvam ||)
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Meaning : However those who are devoted to Me and try to meditate upon Me as the Formless, All-pervading, as One that is beyond the grasp of the mind and intellect, That could not be pointed-out, as the principle, - Imperishable, Changesless, Eternal, And the Essence and the Core of the very existence, ....
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Note :
The earlier śloka-s 54, 55 of Chapter 11, and 1 and 2 of this Chapter 12, are very helpful in understanding the purport of this one.
Chapter 11, śloka 54,

bhaktyā tvananyayā śakya
ahamevaṃvidho:'rjuna |
jñātuṃ draṣṭuṃ ca tatvena
praveṣṭuṃ ca parantapa ||
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(bhaktyā tu ananyayā śakyaḥ
aham evaṃvidhaḥ arjuna |
 jñātum draṣṭum ca tatvena
praveṣṭum ca parantapa ||)
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Meaning :
But Only through devotion pure, O parantapa (arjuna) ! it is ever possible to know, see Me, and to enter and merge into Me.
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ananya bhakti - pure devotion

Chapter 7, śloka 16,

caturvidhā bhajante māṃ
janāḥ sukṛtino:'rjuna |
ārto jijñāsurarthārthī
jñānī ca bharatarṣabha ||
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(caturvidhā bhajante mām
janāḥ sukṛtinaḥ arjuna |
ārtaḥ jijñāsuḥ arthārthī
jñānī ca bharatarṣabha ||)
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Meaning :
O arjun, four kinds of devotees who perform noble deeds are the following :
1 ārta - one caught up in distress,
2  jijñāsu - one who is eager to know My Form and Reality,
3 arthārthī - one who wants wishes fulfilled, and
4 jñānī - one who truly knows Me.
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Chapter 11, śloka 55,
matkarmakṛnmatparamo
madbhaktaḥ saṅgavarjitaḥ |
nirvairaḥ sarvabhūteṣu
yaḥ sa māmeti pāṇḍava ||
--
(matkarma-kṛt-matparamaḥ
madbhaktaḥ saṅgavarjitaḥ |
nirvairaḥ sarvabhūteṣu yaḥ
saḥ mām eti pāṇḍava ||)
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Meaning :
One Who dedicates all actions to Me, Who works for Me only, Who is committed to Me, devoid of all attachment, and having enmity with no one, attains Me O pāṇḍava (arjuna)!
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Chapter 12, śloka 2,

śrībhagavānuvāca :

mayyāveśya mano ye māṃ
nityayuktā upāsate |
śraddhayā parayopetā-
ste me yuktatamā matāḥ ||
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(mayi āveśya mano ye mām
nityayuktāḥ upāsate |
śraddhayā parayā upetāḥ
te me yuktatamā matāḥ ||)
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Meaning :
bhagavān śrīkṛṣṇa said :
In my view, those who dedicate their heart and mind to me in great devotion and extreme surrender every moment, have no doubt higher attainment (than the rest).
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Chapter 12, śloka 1,
arjuna uvāca :
evaṃ satatayuktā ye
bhaktāstvāṃ paryupāsate |
ye cāpyakṣaramavyaktaṃ
teṣāṃ ke yogavittamāḥ |
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(evaṃ satatayuktāḥ ye
bhaktāḥ tvām paryupāsate |
ye ca api akṣaram-avyaktam
teṣām ke yogavittamāḥ ||)
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Meaning :
arjuna asked :
Out of Those who keep on remembering you every moment with utter devotion and those also, who worship you as the Imperishable, Formless Reality (brahman), Who could be said of having higher attainment?  
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