आज का श्लोक, ’सर्वाणि’ / ’sarvāṇi’
_____________________________
’सर्वाणि’ / ’sarvāṇi’ - सब, सबको,
अध्याय 2, श्लोक 30,
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥
--
देही नित्यम् अवध्यः अयम् देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात् सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुम् अर्हसि ॥
--
भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन) ! देह का वास्तविक स्वामी, वह चेतना जो देह को अपना कहती है, सभी देहों में सदैव अवध्य है, अर्थात् देह के बनने-मिटने से वह अप्रभावित रहता है । इसलिए सम्पूर्ण प्राणियों (में से किसी) के लिए भी तुम्हारा शोक करना उचित नहीं है ।
--
अध्याय 2, श्लोक 61,
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
--
(तानि सर्वाणि संयम्य युक्तः आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्य इन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥)
--
भावार्थ :
(श्लोक 58, 59, 60 में कहा गया है, कि किस प्रकार इन्द्रियों को भीतर की ओर अन्तर्मुख किया जाता है, और योगाभ्यास में संलग्न मनुष्य की इन्द्रियाँ विषयों से दूर रहने पर भी विषयों (के भोगों) के प्रति मन की राग-बुद्धि समाप्त नहीं होती, और इसलिए कैसे बुद्धिमान मनुष्य के मन को भी इन्द्रियाँ बलपूर्वक हर लेती हैं । और इस राग-बुद्धि की निवृत्ति तो परमेश्वर के साक्षात्कार से ही होती है । इसलिए,)
जो उन सभी इन्द्रियों को संयमित रखते हुए मुझमें समाहित चित्त हुआ, मुझमें अर्पित मन वाला होता है, उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित, सुस्थिर हो जाती है ।
--
अध्याय 3, श्लोक 30,
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्यध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥
--
(मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्य-अध्यात्म-चेतसा ।
निराशीः निर्ममः भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥)
--
भावार्थ :
समस्त कर्मों को अध्यात्मबुद्धिपूर्वक मुझमें अर्पित करते हुए, आशा से और ममता से रहित होकर, संताप से मुक्त रहते हुए युद्ध करो ।
--
अध्याय 4, श्लोक 5,
श्रीभगवानुवाच :
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥
--
(बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव च अर्जुन ।
तानि अहम् वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥)
--
भावार्थ :
हे अर्जुन ! मेरे तथा तुम्हारे भी अतीत में बहुत से जन्म हो चुके हैं । मैं उन सबको जानता हूँ, जबकि तुम इसे नहीं जानते ।
--
अध्याय 4, श्लोक 27,
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥
--
(सर्वाणि इन्द्रिय-कर्माणि प्राणकर्माणि च अपरे ।
आत्मसंयम-योगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥)
--
भावार्थ :
ज्ञान से प्रकाशित बुद्धि है जिनकी, वे इन्द्रियों से होनेवाले समस्त कर्मों को, तथा ऐसे ही दूसरे अन्य, प्राणों से होनेवाले समस्त कर्मों की आहुति आत्म-संयमरूपी योगाग्नि में समर्पित करते हैं । अर्थात् अपने समस्त शारीरिक एवं मानसिक कर्मों को उपभोग में नहीं, बल्कि त्याग और विवेक की दिशा में प्रवृत्त करते हैं ।
--
अध्याय 7, श्लोक 6,
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥
--
(एतत्-योनीनि भूतानि सर्वाणि इति उपधारय ।
अहम् कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयः तथा ॥)
--
भावार्थ :
(श्लोक 4 एवं 5 में वर्णित) अपरा एवं परा दोनों ’प्रकृतियाँ’ अर्थात् क्रमशः जड एवं चेतन प्रकृति, इन्हें तुम सभी भूतों के उद्गम् का कारण जानो, जबकि मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव (व्यक्त होना) और प्रलय (अव्यक्त होना) हूँ ।
--
अध्याय 9, श्लोक 6,
यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥
--
(यथा आकाशस्थितः नित्यम् वायुः सर्वत्रगः महान् ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानि इति उपधारय ॥)
--
भावार्थ :
इसे इस तरह से समझो, कि जैसे आकाश में स्थित वायु सर्वत्र गतिशील होते हुए भी आकाश में ही अवस्थित रहती है, वैसे ही सब भूत (जड, चेतन प्रकृति) मुझमें ही स्थित रहते हैं ।
--
अध्याय 12, श्लोक 6,
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥
(ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्पराः ।
अनन्येन-एव योगेन माम् ध्यायन्तः उपासते ॥)
--
भावार्थ : किन्तु जो अपने सभी कर्मों को मुझ (सगुण) परमेश्वर में ही अर्पण करते हुए अनन्य (मुझसे अपनी अपृथकता के बोध) योग से मेरा ध्यान, जिज्ञासा तथा निरन्तर चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं ...।
[अगले श्लोक क्रमांक 7 में इसे विस्तारपूर्वक कहा गया है ।]
टिप्पणी : इसी अध्याय 12 के श्लोक 1 में अर्जुन द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए, श्लोकों 2, 3, 4 एवं 5 के अन्तर्गत, भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा बतलाया गया कि यद्यपि (मेरे) अक्षर अव्यक्त स्वरूप में नित्य एकीभूत भाव से संलग्न मन-बुद्धियुक्त श्रद्धायुक्त मनुष्य युक्ततम अर्थात् सर्वोत्तम योगी होते हैं और वे सभी सब भूतों का कल्याण करते हुए मुझे ही प्राप्त होकर मुझमें ही समाहित हो जाते हैं किन्तु, उनमें से कुछ मेरे केवल अव्यक्त-स्वरूप में ही आसक्त मन-बुद्धिवाले होने से क्लेश अर्थात् अत्यधिक परिश्रम करते हैं, ....)
--
अध्याय 15, श्लोक 16,
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।
--
(द्वौ इमौ पुरुषौ लोके क्षरः च अक्षरः एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थः अक्षरः उच्यते ॥)
--
भावार्थ :
इस संसार में नाशवान तथा अविनाशी ऐसे दो प्रकार के ये दो पुरुष हैं । सम्पूर्ण भूत प्राणियों के (उत्पन्न होनेवाले तथा नष्ट हो जानेवाले भौतिक देह-पिण्ड रूपी) शरीर तो नाशवान हैं, जबकि उनमें अवस्थित कूटस्थ (जीवात्मा) को अविनाशी कहा जाता है ।
--
’सर्वाणि’ / ’sarvāṇi’ - all,
Chapter 2, śloka 30,
dehī nityamavadhyo:'yaṃ
dehe sarvasya bhārata |
tasmātsarvāṇi bhūtāni
na tvaṃ śocitumarhasi ||
--
dehī nityam avadhyaḥ ayam
dehe sarvasya bhārata |
tasmāt sarvāṇi bhūtāni
na tvaṃ śocitum arhasi ||
--
Meaning :
The one in all the physical forms that has owned the body, is ever so unassailable O bhārata (arjuna) ! Therefore your grieving for all those beings is just meaningless.
--
Chapter 2, śloka 61,
tāni sarvāṇi saṃyamya
yukta āsīta matparaḥ |
vaśe hi yasyendriyāṇi
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||
--
(tāni sarvāṇi saṃyamya
yuktaḥ āsīta matparaḥ |
vaśe hi yasya indriyāṇi
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||)
--
Meaning :
[ śloka 58, 59, 60 of this Chapter 2 describe that the aspirant though practices withdrawing the mind and senses inwards, the sense-organs keep attracting him forcefully towards the objects of enjoyments and the sense of pleasure from them remains intact. This sense of pleasure is lost only when one has seen the Supreme, The 'Self', Me (Divine). So, ... ]
Having restrained those sense-organs, One who keeps them under control, who is devoted to Me, such a man is said to have steady wisdom.
--
Chapter 3, śloka 30,
mayi sarvāṇi karmāṇi
sannyasyadhyātmacetasā |
nirāśīrnirmamo bhūtvā
yudhyasva vigatajvaraḥ ||
--
(mayi sarvāṇi karmāṇi
sannyasya-adhyātma-cetasā |
nirāśīḥ nirmamaḥ bhūtvā
yudhyasva vigatajvaraḥ ||)
--
Meaning : With the conviction born of the mind aimed at the spiritual, having surrendered all your actions in Me, fight the war without hoping, without attachment, and with the mind free of agony.
--
Chapter 4, śloka 5,
bahūni me vyatītāni
janmāni tava cārjuna |
tānyahaṃ veda sarvāṇi
na tvaṃ vettha parantapa ||
--
(bahūni me vyatītāni
janmāni tava ca arjuna |
tāni aham veda sarvāṇi
na tvaṃ vettha parantapa ||)
--
Meaning :
In the past, I had many births and just so. you too. Though you don't know them, I know them all.
Chapter 4, śloka 27,
sarvāṇīndriyakarmāṇi
prāṇakarmāṇi cāpare |
ātmasaṃyamayogāgnau
juhvati jñānadīpite ||
--
(sarvāṇi indriya-karmāṇi
prāṇakarmāṇi ca apare |
ātmasaṃyama-yogāgnau
juhvati jñānadīpite ||)
--
Meaning :
Those, whose vision is illuminated by the wisdom of Intelligence, offer all their actions performed either by means of the senses or body and mind in the fire of self-restraint.
--
Chapter 7, śloka 6,
etadyonīni bhūtāni
sarvāṇītyupadhāraya |
ahaṃ kṛtsnasya jagataḥ
prabhavaḥ pralayastathā ||
--
(etat-yonīni bhūtāni
sarvāṇi iti upadhāraya |
aham kṛtsnasya jagataḥ
prabhavaḥ pralayaḥ tathā ||)
--
Meaning :
These two are the causes (yonīni) that give birth to gross material (aparā-prakṛti / jaḍa-prakṛti), and subtle vital nature (parā-prakṛti), while I AM the Manifestation and dissolution of the whole universe.
--
Chapter 9, ślōka 6,
yathākāśasthito nityaṃ
vāyuḥ sarvatrago mahān |
tathā sarvāṇi bhūtāni
matsthānītyupadhāraya ||
--
(yathā ākāśasthitaḥ nityam
vāyuḥ sarvatragaḥ mahān |
tathā sarvāṇi bhūtāni
matsthāni iti upadhāraya ||)
--
Meaning :
Just as the Great air (vāyu) moves freely everywhere within the space, All the beings quite so, abide ever within Me.
--
Chapter 12, śloka 6,
ye tu sarvāṇi karmāṇi
mayi sannyasya matparāḥ |
ananyenaiva yogena
māṃ dhyāyanta upāsate ||
(ye tu sarvāṇi karmāṇi
mayi sannyasya matparāḥ |
ananyena-eva yogena
mām dhyāyantaḥ upāsate ||)
--
Meaning :
But those, who dedicate all their actions (karma) to Me, remembering Me and meditating of Me, ever devoted with indivisible love for Me, by such kind of yoga of oneness with Me,....
--
Chapter 15, śloka 16,
dvāvimau puruṣau loke
kṣaraścākṣara eva ca |
kṣaraḥ sarvāṇi bhūtāni
kūṭastho:'kṣara ucyate |
--
(dvau imau puruṣau loke
kṣaraḥ ca akṣaraḥ eva ca |
kṣaraḥ sarvāṇi bhūtāni
kūṭasthaḥ akṣaraḥ ucyate ||)
--
Meaning :
My two forms on the earthly level are of two kinds. The Perishable and the imperishable. Though the physical gross body of all beings is perishable, the 'self' or the soul situated at the core of heart (kūṭastha), is the imperishable one.
--
_____________________________
’सर्वाणि’ / ’sarvāṇi’ - सब, सबको,
अध्याय 2, श्लोक 30,
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥
--
देही नित्यम् अवध्यः अयम् देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात् सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुम् अर्हसि ॥
--
भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन) ! देह का वास्तविक स्वामी, वह चेतना जो देह को अपना कहती है, सभी देहों में सदैव अवध्य है, अर्थात् देह के बनने-मिटने से वह अप्रभावित रहता है । इसलिए सम्पूर्ण प्राणियों (में से किसी) के लिए भी तुम्हारा शोक करना उचित नहीं है ।
--
अध्याय 2, श्लोक 61,
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
--
(तानि सर्वाणि संयम्य युक्तः आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्य इन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥)
--
भावार्थ :
(श्लोक 58, 59, 60 में कहा गया है, कि किस प्रकार इन्द्रियों को भीतर की ओर अन्तर्मुख किया जाता है, और योगाभ्यास में संलग्न मनुष्य की इन्द्रियाँ विषयों से दूर रहने पर भी विषयों (के भोगों) के प्रति मन की राग-बुद्धि समाप्त नहीं होती, और इसलिए कैसे बुद्धिमान मनुष्य के मन को भी इन्द्रियाँ बलपूर्वक हर लेती हैं । और इस राग-बुद्धि की निवृत्ति तो परमेश्वर के साक्षात्कार से ही होती है । इसलिए,)
जो उन सभी इन्द्रियों को संयमित रखते हुए मुझमें समाहित चित्त हुआ, मुझमें अर्पित मन वाला होता है, उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित, सुस्थिर हो जाती है ।
--
अध्याय 3, श्लोक 30,
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्यध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥
--
(मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्य-अध्यात्म-चेतसा ।
निराशीः निर्ममः भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥)
--
भावार्थ :
समस्त कर्मों को अध्यात्मबुद्धिपूर्वक मुझमें अर्पित करते हुए, आशा से और ममता से रहित होकर, संताप से मुक्त रहते हुए युद्ध करो ।
--
अध्याय 4, श्लोक 5,
श्रीभगवानुवाच :
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥
--
(बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव च अर्जुन ।
तानि अहम् वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥)
--
भावार्थ :
हे अर्जुन ! मेरे तथा तुम्हारे भी अतीत में बहुत से जन्म हो चुके हैं । मैं उन सबको जानता हूँ, जबकि तुम इसे नहीं जानते ।
--
अध्याय 4, श्लोक 27,
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥
--
(सर्वाणि इन्द्रिय-कर्माणि प्राणकर्माणि च अपरे ।
आत्मसंयम-योगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥)
--
भावार्थ :
ज्ञान से प्रकाशित बुद्धि है जिनकी, वे इन्द्रियों से होनेवाले समस्त कर्मों को, तथा ऐसे ही दूसरे अन्य, प्राणों से होनेवाले समस्त कर्मों की आहुति आत्म-संयमरूपी योगाग्नि में समर्पित करते हैं । अर्थात् अपने समस्त शारीरिक एवं मानसिक कर्मों को उपभोग में नहीं, बल्कि त्याग और विवेक की दिशा में प्रवृत्त करते हैं ।
--
अध्याय 7, श्लोक 6,
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥
--
(एतत्-योनीनि भूतानि सर्वाणि इति उपधारय ।
अहम् कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयः तथा ॥)
--
भावार्थ :
(श्लोक 4 एवं 5 में वर्णित) अपरा एवं परा दोनों ’प्रकृतियाँ’ अर्थात् क्रमशः जड एवं चेतन प्रकृति, इन्हें तुम सभी भूतों के उद्गम् का कारण जानो, जबकि मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव (व्यक्त होना) और प्रलय (अव्यक्त होना) हूँ ।
--
अध्याय 9, श्लोक 6,
यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥
--
(यथा आकाशस्थितः नित्यम् वायुः सर्वत्रगः महान् ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानि इति उपधारय ॥)
--
भावार्थ :
इसे इस तरह से समझो, कि जैसे आकाश में स्थित वायु सर्वत्र गतिशील होते हुए भी आकाश में ही अवस्थित रहती है, वैसे ही सब भूत (जड, चेतन प्रकृति) मुझमें ही स्थित रहते हैं ।
--
अध्याय 12, श्लोक 6,
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥
(ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्पराः ।
अनन्येन-एव योगेन माम् ध्यायन्तः उपासते ॥)
--
भावार्थ : किन्तु जो अपने सभी कर्मों को मुझ (सगुण) परमेश्वर में ही अर्पण करते हुए अनन्य (मुझसे अपनी अपृथकता के बोध) योग से मेरा ध्यान, जिज्ञासा तथा निरन्तर चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं ...।
[अगले श्लोक क्रमांक 7 में इसे विस्तारपूर्वक कहा गया है ।]
टिप्पणी : इसी अध्याय 12 के श्लोक 1 में अर्जुन द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए, श्लोकों 2, 3, 4 एवं 5 के अन्तर्गत, भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा बतलाया गया कि यद्यपि (मेरे) अक्षर अव्यक्त स्वरूप में नित्य एकीभूत भाव से संलग्न मन-बुद्धियुक्त श्रद्धायुक्त मनुष्य युक्ततम अर्थात् सर्वोत्तम योगी होते हैं और वे सभी सब भूतों का कल्याण करते हुए मुझे ही प्राप्त होकर मुझमें ही समाहित हो जाते हैं किन्तु, उनमें से कुछ मेरे केवल अव्यक्त-स्वरूप में ही आसक्त मन-बुद्धिवाले होने से क्लेश अर्थात् अत्यधिक परिश्रम करते हैं, ....)
--
अध्याय 15, श्लोक 16,
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।
--
(द्वौ इमौ पुरुषौ लोके क्षरः च अक्षरः एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थः अक्षरः उच्यते ॥)
--
भावार्थ :
इस संसार में नाशवान तथा अविनाशी ऐसे दो प्रकार के ये दो पुरुष हैं । सम्पूर्ण भूत प्राणियों के (उत्पन्न होनेवाले तथा नष्ट हो जानेवाले भौतिक देह-पिण्ड रूपी) शरीर तो नाशवान हैं, जबकि उनमें अवस्थित कूटस्थ (जीवात्मा) को अविनाशी कहा जाता है ।
--
’सर्वाणि’ / ’sarvāṇi’ - all,
Chapter 2, śloka 30,
dehī nityamavadhyo:'yaṃ
dehe sarvasya bhārata |
tasmātsarvāṇi bhūtāni
na tvaṃ śocitumarhasi ||
--
dehī nityam avadhyaḥ ayam
dehe sarvasya bhārata |
tasmāt sarvāṇi bhūtāni
na tvaṃ śocitum arhasi ||
--
Meaning :
The one in all the physical forms that has owned the body, is ever so unassailable O bhārata (arjuna) ! Therefore your grieving for all those beings is just meaningless.
--
Chapter 2, śloka 61,
tāni sarvāṇi saṃyamya
yukta āsīta matparaḥ |
vaśe hi yasyendriyāṇi
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||
--
(tāni sarvāṇi saṃyamya
yuktaḥ āsīta matparaḥ |
vaśe hi yasya indriyāṇi
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||)
--
Meaning :
[ śloka 58, 59, 60 of this Chapter 2 describe that the aspirant though practices withdrawing the mind and senses inwards, the sense-organs keep attracting him forcefully towards the objects of enjoyments and the sense of pleasure from them remains intact. This sense of pleasure is lost only when one has seen the Supreme, The 'Self', Me (Divine). So, ... ]
Having restrained those sense-organs, One who keeps them under control, who is devoted to Me, such a man is said to have steady wisdom.
--
Chapter 3, śloka 30,
mayi sarvāṇi karmāṇi
sannyasyadhyātmacetasā |
nirāśīrnirmamo bhūtvā
yudhyasva vigatajvaraḥ ||
--
(mayi sarvāṇi karmāṇi
sannyasya-adhyātma-cetasā |
nirāśīḥ nirmamaḥ bhūtvā
yudhyasva vigatajvaraḥ ||)
--
Meaning : With the conviction born of the mind aimed at the spiritual, having surrendered all your actions in Me, fight the war without hoping, without attachment, and with the mind free of agony.
--
Chapter 4, śloka 5,
bahūni me vyatītāni
janmāni tava cārjuna |
tānyahaṃ veda sarvāṇi
na tvaṃ vettha parantapa ||
--
(bahūni me vyatītāni
janmāni tava ca arjuna |
tāni aham veda sarvāṇi
na tvaṃ vettha parantapa ||)
--
Meaning :
In the past, I had many births and just so. you too. Though you don't know them, I know them all.
Chapter 4, śloka 27,
sarvāṇīndriyakarmāṇi
prāṇakarmāṇi cāpare |
ātmasaṃyamayogāgnau
juhvati jñānadīpite ||
--
(sarvāṇi indriya-karmāṇi
prāṇakarmāṇi ca apare |
ātmasaṃyama-yogāgnau
juhvati jñānadīpite ||)
--
Meaning :
Those, whose vision is illuminated by the wisdom of Intelligence, offer all their actions performed either by means of the senses or body and mind in the fire of self-restraint.
--
Chapter 7, śloka 6,
etadyonīni bhūtāni
sarvāṇītyupadhāraya |
ahaṃ kṛtsnasya jagataḥ
prabhavaḥ pralayastathā ||
--
(etat-yonīni bhūtāni
sarvāṇi iti upadhāraya |
aham kṛtsnasya jagataḥ
prabhavaḥ pralayaḥ tathā ||)
--
Meaning :
These two are the causes (yonīni) that give birth to gross material (aparā-prakṛti / jaḍa-prakṛti), and subtle vital nature (parā-prakṛti), while I AM the Manifestation and dissolution of the whole universe.
--
Chapter 9, ślōka 6,
yathākāśasthito nityaṃ
vāyuḥ sarvatrago mahān |
tathā sarvāṇi bhūtāni
matsthānītyupadhāraya ||
--
(yathā ākāśasthitaḥ nityam
vāyuḥ sarvatragaḥ mahān |
tathā sarvāṇi bhūtāni
matsthāni iti upadhāraya ||)
--
Meaning :
Just as the Great air (vāyu) moves freely everywhere within the space, All the beings quite so, abide ever within Me.
--
Chapter 12, śloka 6,
ye tu sarvāṇi karmāṇi
mayi sannyasya matparāḥ |
ananyenaiva yogena
māṃ dhyāyanta upāsate ||
(ye tu sarvāṇi karmāṇi
mayi sannyasya matparāḥ |
ananyena-eva yogena
mām dhyāyantaḥ upāsate ||)
--
Meaning :
But those, who dedicate all their actions (karma) to Me, remembering Me and meditating of Me, ever devoted with indivisible love for Me, by such kind of yoga of oneness with Me,....
--
Chapter 15, śloka 16,
dvāvimau puruṣau loke
kṣaraścākṣara eva ca |
kṣaraḥ sarvāṇi bhūtāni
kūṭastho:'kṣara ucyate |
--
(dvau imau puruṣau loke
kṣaraḥ ca akṣaraḥ eva ca |
kṣaraḥ sarvāṇi bhūtāni
kūṭasthaḥ akṣaraḥ ucyate ||)
--
Meaning :
My two forms on the earthly level are of two kinds. The Perishable and the imperishable. Though the physical gross body of all beings is perishable, the 'self' or the soul situated at the core of heart (kūṭastha), is the imperishable one.
--
No comments:
Post a Comment