Tuesday, June 24, 2014

आज का श्लोक, ’सर्वभूतेषु’ / ’sarvabhūteṣu’

आज का श्लोक,  ’सर्वभूतेषु’ / ’sarvabhūteṣu’
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’सर्वभूतेषु’ / ’sarvabhūteṣu’ - समस्त प्राणियों में,

अध्याय 3, श्लोक 18,

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न च अस्य सर्वभूतेषु कश्चिद्व्यपदाश्रयः ॥
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(न एव तस्य कृतेन अर्थः न अकृतेन इह कश्चन ।
न च अस्य सर्वभूतेषु कश्चित् अर्थव्यपाश्रयः ॥)
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भावार्थ :
न तो उसके लिए किसी कर्म को किए जाने का अथवा न किए जाने का कोई प्रयोजन रह जाता है, और न ही इसका (उसका) सम्पूर्ण प्राणियों में से किसी से भी स्वार्थ का किञ्चित्मात्र भी कोई संबंध होता है ।
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अध्याय 7, श्लोक 9,

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥
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(पुण्यः गन्धः पृथिव्याम् च तेजः च अस्मि विभावसौ ।
जीवनम् सर्वभूतेषु तपः च अस्मि तपस्विषु ॥)
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भावार्थ :
पृथ्वी (या पृथ्वी तत्व) में पवित्र गन्ध, और तेजस्विता हूँ अग्नि में । सम्पूर्ण भूतों (प्राणिमात्र) में जीवन तथा तपस्वियों में तप हूँ ।
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टिप्पणी : गन्ध वह ’तन्मात्रा’ है जिससे पृथ्वी तत्व प्रकट होता है । दूसरी गन्ध वह है, जो पृथ्वी से प्रकट होती है । यहाँ आशय प्रथम प्रकार की गन्ध से है, इसलिए उसे ’पवित्र’ विशेषण दिया गया है  ।
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अध्याय 9, श्लोक 29,

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥
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(समः अहम् सर्वभूतेषु न मे द्वेष्यः अस्ति न प्रियः ।
ये भजन्ति तु माम् भक्त्या मयि ते तेषु च अपि अहम् ॥)
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अध्याय 11, श्लोक 55,

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥
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(मत्कर्म-कृत्-मत्परमः मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः सः माम् एति पाण्डव ॥)
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भावार्थ :
हे पाण्डुपुत्र अर्जुन! जो पुरुष मेरे लिए ही (प्रारब्धवश प्राप्त हुए) आसक्तिरहित होकर, सम्पूर्ण कर्मों को करता है (और उन्हें मुझे ही अर्पित करता है), जो सभी प्राणियों से वैररहित है, ऐसा मेरा वह भक्त मुझे ही प्राप्त होता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 20,

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥
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(सर्वभूतेषु येन एकम् भावम् अव्ययम् ईक्षते ।
अविभक्तम् विभक्तेषु तत्-ज्ञानम् विद्धि सात्त्विकम् ॥)
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भावार्थ :
जिस ज्ञान (के माध्यम) से मनुष्य  सब भूतों में  अविभक्त अर्थात् समान रूप से विद्यमान एक ही अविनाशी परमात्मभाव को देखता है उस ज्ञान को (तुम) सात्त्विक (ज्ञान) जानो ।
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सर्वभूतेषु’ / ’sarvabhūteṣu’ - in all beings,
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Chapter 3, śloka 18,

naiva tasya kṛtenārtho
nākṛteneha kaścana |
na ca asya sarvabhūteṣu 
kaścidvyapadāśrayaḥ ||
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(na eva tasya kṛtena arthaḥ
na akṛtena iha kaścana |
na ca asya sarvabhūteṣu 
kaścit arthavyapāśrayaḥ ||)
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Meaning :
(The one content in the Self) has nothing to gain by performing an action, nor to lose by avoiding an action. He has nothing to do with or expect from anybody who-so-ever for any purpose, what-so-ever.
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Chapter 7, śloka 9,

puṇyo gandhaḥ pṛthivyāṃ ca
tejaścāsmi vibhāvasau |
jīvanaṃ sarvabhūteṣū 
tapaścāsmi tapasviṣu ||
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(puṇyaḥ gandhaḥ pṛthivyām ca
tejaḥ ca asmi vibhāvasau |
jīvanam sarvabhūteṣu 
tapaḥ ca asmi tapasviṣu ||)
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Meaning :
The sacred scent (gandha, the tanmātrā ) which is the essence of the 'Earth'-Element (pṛthvī tatva, mahābhūta), and the radiance (heat and light) in the Fire, I AM. Life in all the Beings and austerities (tapaḥ / tapas) in those who perform various kinds of tapas, - I AM.
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Chapter 9, śloka 29,

samo:'haṃ sarvabhūteṣu 
na me dveṣyo:'sti na priyaḥ |
ye bhajanti tu māṃ bhaktyā
mayi te teṣu cāpyaham ||
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(samaḥ aham sarvabhūteṣu 
na me dveṣyaḥ asti na priyaḥ |
ye bhajanti tu mām bhaktyā
mayi te teṣu ca api aham ||)
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Meaning :
I AM the same identity (Self) in all beings, and not hateful to one and favoring to some other. But those who are devoted to Me, (I too AM devoted to them) and just as they abide in Me, I too in them.  
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Chapter 11, śloka 55,

matkarmakṛnmatparamo
madbhaktaḥ saṅgavarjitaḥ |
nirvairaḥ sarvabhūteṣu 
yaḥ sa māmeti pāṇḍava ||
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(matkarma-kṛt-matparamaḥ
madbhaktaḥ saṅgavarjitaḥ |
nirvairaḥ sarvabhūteṣu 
yaḥ saḥ mām eti pāṇḍava ||)
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Meaning :
One Who dedicates all actions to Me, Who works for Me only, Who is committed to Me, devoid of all attachment, and having enmity with no one, attains Me O pāṇḍava (arjuna)!
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Chapter 18, śloka 20,

sarvabhūteṣu yenaikaṃ
bhāvamavyayamīkṣate |
avibhaktaṃ vibhakteṣu
tajjñānaṃ viddhi sāttvikam ||
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(sarvabhūteṣu yena ekam
bhāvam avyayam īkṣate |
avibhaktam vibhakteṣu
tat-jñānam viddhi sāttvikam ||)
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Meaning :
The knowledge (wisdom) that helps one realize that the same imperishable principle is ever present and manifest in all forms as undivided divine whole, know this as of the sāttvika kind.
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