आज का श्लोक, ’सर्वम्’ / ’sarvam’
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’सर्वम्’ / ’sarvam’ - सब, सबको,
अध्याय 2, श्लोक 17,
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥
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(अविनाशि तु तत् विद्धि येन सर्वम् इदम् ततम् ।
विनाशम् अव्ययस्य अस्य न कश्चित् कर्तुम् अर्हति ॥)
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भावार्थ :
नाशरहित तो (तुम) उसको जानो जिससे यह सम्पूर्ण (दृश्य जगत् एवम् दृष्टा भी) व्याप्त है । स्वरूप से ही अविनाशी इस तत्व का जो सबसे / सबमें व्याप्त है, कोई कर सके, ऐसा सक्षम कोई नहीं है ।
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अध्याय 4, श्लोक 33,
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥
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(श्रेयान् द्रव्यमयात् यज्ञात् ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वम् कर्म अखिलम् पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥)
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भावार्थ :
हे परन्तप अर्जुन! द्रव्यों की आहुति देकर किए जानेवाले यज्ञों की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अधिक श्रेयस्कर है, और सम्पूर्ण कर्म (कर्म-समष्टि ही) ज्ञान में विलीन हो जाते हैं ।
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अध्याय 4, श्लोक 36,
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥
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(अपि चेत् असि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वम् ज्ञानप्लवेन एव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥)
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भावार्थ :
( इस अध्याय के पूर्व श्लोकों 34 तथा 35 में जैसा कहा गया है, तदनुसार उन तत्वदर्शियों के उपदेश को समझने और उस पर आचरण करने से, तुम्हें जो प्रज्ञा प्राप्त होगी ... तो यदि)
तुम पाप करनेवालों से अन्य सब से भी अधिक, सर्वाधिक पाप करनेवाले भी हो, तो भी उस प्रज्ञारूपी नौका से तुम पापरूपी सम्पूर्ण समुद्र को लाँघकर पार हो जाओगे ।
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अध्याय 6, श्लोक 30,
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥
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(यः माम् पश्यति सर्वत्र सर्वम् च मयि पश्यति ।
तस्य अहं न प्रणश्यामि सः च मे न प्रणश्यति ॥)
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भावार्थ :
जो मुझको (अपने-आपको) सर्वत्र देखता है तथा जो सबको मुझमें (अपने-आप ही में) अवस्थित देखता है, न तो उसके अस्तित्व मैं नष्ट होने देता हूँ और न ही वह मुझे (अपनी निज आत्मा / परमात्मा को) नष्ट होने देता है ।
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अध्याय 7, श्लोक 7,
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
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(मत्तः परतरम् न अन्यत् किञ्चित् अस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वम् इदम् प्रोतम् सूत्रे मणिगणाः इव ॥)
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भावार्थ :
हे धनञ्जय (अर्जुन)! मुझसे भिन्न, परम (कारण) दूसरा कुछ नहीं है । यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में पिरोये हुए मणियों के समान मुझमें ही अनुस्यूत है ।
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अध्याय 7, श्लोक 13,
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥
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(त्रिभिः गुणमयैः भावैः एभिः सर्वम् इदम् जगत् ।
मोहितम् न अभिजानाति माम् एभ्यः परम् अव्ययम् ॥)
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भावार्थ :
यह सम्पूर्ण जगत् (सात्त्विक, राजस और तामसिक) इन तीन गुणों से युक्त भावों का संयोग है । मोहित बुद्धिवाला मनुष्य इनसे परे मुझ अविनाशी को नहीं जान पाता ।
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अध्याय 7, श्लोक 19,
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
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(बहूनाम् जन्मनाम्-अन्ते ज्ञानवान् माम् प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वम्-इति सः महात्मा सुदुर्लभः ॥)
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भावार्थ :
बहुत से जन्मों (और पुनर्जन्मों) के बाद, अन्त के जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त हुआ मनुष्य मेरी ओर आकर्षित होता है, मुझे भजता है । ऐसा वह मनुष्य, जिसकी दृष्टि में सब कुछ केवल वासुदेव ही होता है, वह महात्मा अत्यन्त ही दुर्लभ होता है ।
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अध्याय 8, श्लोक 22,
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥
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(पुरुषः सः परः पार्थ भक्त्या लभ्यः तु अनन्यया ।
यस्य अन्तःस्थानि भूतानि येन सर्वम् इदम् ततम् ॥)
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भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन) जिससे और जिसमें यह सब दृश्य जगत् ओत-प्रोत है, सर्वभूत जिसके ही भीतर अवस्थित हैं, वह पुरुष (परमात्मा) तो अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होता है ।
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अध्याय 8, श्लोक 28,
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव
दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा
योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥
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(वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव
दानेषु यत् पुण्यफलम् प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत् सर्वम् इदम् विदित्वा
भावार्थ :
वेदों ( के अध्ययन), यज्ञों (के अनुष्ठान), तपों (के पूर्ण करने) तथा विभिन्न प्रकार के दान देने आदि से जिस पुण्यफल की प्राप्ति निर्दिष्ट की गई है, योगी निःसन्देह उस सब को लांघकर इस आद्य सनातन एवं शाश्वत् स्थान को प्राप्त हो जाता है ।
[टिप्पणी : समस्त पुण्यफल उनके उपभोग के साथ ही नष्ट हो जाते हैं, किन्तु योगी (इस अध्याय के श्लोक 11 में वर्णित) ’पद’ कॊ प्राप्त होकर उससे एक हो जाता है ।]
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अध्याय 9, श्लोक 4,
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्वस्थितः ॥
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(मया ततम् इदम् सर्वम् जगत् अव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्वस्थितः ॥)
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भावार्थ :
मुझ अव्यक्तस्वरूप (निराकार) से यह सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण है । और सम्पूर्ण भूत मेरे ही आश्रय से मुझमें स्थित हैं, न कि मैं उनमें ।
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टिप्पणी :
सम्पूर्ण जगत् एवम् भूत आदि अपने अस्तित्व के प्रमाण के लिए किसी चेतन सत्ता के आश्रित होते हैं, जबकि वह चेतन सत्ता अपने अस्तित्व का प्रमाण स्वयं ही है । इस प्रकार से ’चेतनता’ के सर्वव्यापक होने के तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । वही चेतनता किसी देह में प्राणरूप से व्यक्त होने पर उसे व्यक्ति-विशेष के रूप में अभिव्यक्त करती है । इस प्रकार से चेतनता की अभिव्यक्ति होने के पश्चात् ही ’मैं’ यह-यह, इस प्रकार का हूँ आदि भावनाएँ मन-मस्तिष्क में उत्पन्न होती हैं । इस प्रकार से परिभाषित हुआ ’व्यक्ति’, विनाशशील कल्पना मात्र है, जबकि इस कल्पना का आश्रय अविनाशी परमात्मा ।
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अध्याय 10, श्लोक 8,
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥
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(अहम् सर्वस्य प्रभवः मत्तः सर्वम् प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते माम् बुधाः भावसमन्विताः ॥)
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मैं सबकी उत्पत्ति (हूँ), मुझसे ही सब कुछ प्रवृत्तिशील है, इस प्रकार से समझते हुए, हृदय की भावना को मुझ समन्वित कर बुद्धिमान मनुष्य मुझको (परमेश्ववर को) सदा भजते हैं ।
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अध्याय 10, श्लोक 14,
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥)
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(सर्वम् एतत् ऋतम् मन्ये यत् माम् वदसि केशव ।
न हि ते भगवन् व्यक्तिं विदुः देवाः न दानवाः ॥)
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भावार्थ : (अर्जुन कहते हैं :)
हे केशव आप अपने बारे में मुझसे जो कुछ कह रहे हैं, उस सबको मैं सत्य मानता हूँ । भगवन! आपके प्राकट्य को, कार्य को, और यथार्थ को न तो देवता जानते हैं और न ही दानव ।
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टिप्पणी : यहाँ पुनः यह जानना रोचक होगा कि जहाँ पौराणिक दृष्टि से ’ईश्वर’ के अवतार के आधार पर या वैदिक आधार पर भी भिन्न-भिन्न प्रकार से भगवान् श्रीकृष्ण के जीवन और कार्य को भिन्न-भिन्न रूप से कहा और ग्रहण किया जा सकता है और उनमें विसंगति हमारी परिपक्वता के अनुसार ही हमें प्रतीत होगी ।
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अध्याय 11, श्लोक 40,
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं
सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥
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नमः पुरस्तात् अथ पृष्ठतः ते
नमः अस्तु ते सर्वतः एव सर्व ।
अनन्तवीर्य अमितविक्रमः त्वम्
सर्वम् समाप्नोषि ततः असि सर्वः ॥
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भावार्थ :
हे अनन्तसामर्थ्यवान् ! आपको आगे से तथा पीछे से भी नमस्कार । आपके लिए सब ओर से ही प्रणाम हो, हे सर्वस्व ! हे अनन्त पराक्रमशाली आप सम्पूर्ण संसार को व्याप्त किए हुए हैं, इसलिए आप ही सर्वरूप, सब-कुछ हैं ।
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टिप्पणी : उपरोक्त श्लोक में पहले आधे भाग में ’सर्व’ पद का प्रयोग संबोधनवाची है, -’हे सर्व!’ के अर्थ में ।
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अध्याय 13, श्लोक 13,
सर्वतःपाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥
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(सर्वतःपाणिपादम् तत् सर्वतः अक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतःश्रुतिमत् लोके सर्वम् आवृत्य तिष्ठति ॥
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भावार्थ :
वह (ब्रह्म) सब ओर हाथ-पैरवाला, सब ओर नेत्र, सिर तथा मुखवाला, सब ओर कानवाला है, तथा सबको व्याप्त करते हुए स्थित है । इसे और ठीक से समझने के लिए इस अध्याय 13 का अगला श्लोक क्रमांक 14 देखें ।
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टिप्पणी :
इस श्लोक का तात्पर्य समझने के लिए हम सूर्य का उदाहरण ले सकते हैं । उपनिषद् में कहा है, : सूर्यो आत्मा जगतः । सूर्य की किरणों का विस्तार दिग्-दिगन्त तक है, किरणें जो सूर्य के हाथ, पैर, नेत्र एवम् कान भी हैं । भगवान् भास्कर सब को स्पर्श करते हैं, सब का अधिष्ठान हैं, सब को देखते हैं और अपने रश्मिरूपी श्रोत्रों / श्रुतियों से सब को सुनते भी हैं ।
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अध्याय 18, श्लोक 46,
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
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(यतः प्रवृत्तिः भूतानाम् येन सर्वम् इदं ततम् ।
स्वकर्मणा तम्-अभ्यर्च्य सिद्धिम् विन्दति मानवः ॥)
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भावार्थ :
जिस मूल तत्व से समस्त प्राणियों में प्रवृत्ति-विशेष का उद्भव होता है, (और जैसे बर्फ़ जल से व्याप्त होता है,) जिससे यह सब-कुछ व्याप्त है, अपने-अपने विशिष्ट स्वाभाविक कर्म (के आचरण) से उसकी आराधना करते हुए मनुष्य परम श्रेयस् की प्राप्ति कर लेता है ।
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’सर्वम्’ / ’sarvam’ - all, to all, whole, total,
Chapter 2, śloka 17,
avināśi tu tadviddhi
yena sarvamidaṃ tatam |
vināśamavyayāsya
na kaścitkartumarhati ||
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(avināśi tu tat viddhi
yena sarvam idam tatam |
vināśam avyayasya asya
na kaścit kartum arhati ||)
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Meaning :
Know that, That (brahman), Which is imperishable pervades all this universe. No one is capable to destroy this imperishable principle, (Brahman).
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Chapter 4, śloka 33,
śreyāndravyamayādya-
jñājjñānayajñaḥ parantapa |
sarvaṃ karmākhilaṃ pārtha
jñāne parisamāpyate ||
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(śreyān dravyamayāt yajñāt
jñānayajñaḥ parantapa |
sarvam karma akhilam pārtha
jñāne parisamāpyate ||)
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Meaning :
O (parantapa) arjun ! The sacrifice (yajña), where-in the offerings of the intellect is made in the Fire of wisdom (jñānayajña), where-in mind is offered into the Fire of Self, is superior to the sacrifices (yajña-s) where the offerings of materials are made into fire (dravyamaya yajña).
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Chapter 4, śloka 36,
api cedasi pāpebhyaḥ
sarvebhyaḥ pāpakṛttamaḥ |
sarvaṃ jñānaplavenaiva
vṛjinaṃ santariṣyasi ||
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(api cet asi pāpebhyaḥ
sarvebhyaḥ pāpakṛttamaḥ |
sarvam jñānaplavena eva
vṛjinaṃ santariṣyasi ||)
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Meaning : (As said in the last 2 śloka of this chapter 4, one should go to wise and listen and follow their advice / instructions where-by one gains the wisdom supreme, and 'KNOWING THAT', one is never again deluded by ignorance, THAT wisdom that enables one to see the same SELF in all beings as well as in Me / one-self also. And then,...)
Even if you think, you are the greatest sinner among all those who have sinned, this boat of wisdom will take you across, over the ocean of all evils and sins.
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Chapter 6, śloka 30,
yo māṃ paśyati sarvatra
sarvaṃ ca mayi paśyati |
tasyāhaṃ na praṇaśyāmi
sa ca me na praṇaśyati ||
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(yaḥ mām paśyati sarvatra
sarvam ca mayi paśyati |
tasya ahaṃ na praṇaśyāmi
saḥ ca me na praṇaśyati ||)
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Meaning :
One who everywhere finds and sees Me, and likewise, everything in Me, is not lost sight of Me, nor I lose sight of him [is not lost to Me, nor I to him].
Chapter 7, śloka 7,
mattaḥ parataraṃ nānyat-
kiñcidasti dhanañjaya |
mayi sarvamidaṃ protaṃ
sūtre maṇigaṇā iva ||
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(mattaḥ parataram na anyat
kiñcit asti dhanañjaya |
mayi sarvam idam protam
sūtre maṇigaṇāḥ iva ||)
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Meaning :
O dhananjaya (arjuna)! There is nothing whatsoever, (Cause Supreme) that excels Me. Just as the pearls threaded in a string, This All manifest rests in Me.
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Chapter 7, śloka 13,
tribhirguṇamayairbhāvai-
rebhiḥ sarvamidaṃ jagat |
mohitaṃ nābhijānāti
māmebhyaḥ paramavyayam ||
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(tribhiḥ guṇamayaiḥ bhāvaiḥ
ebhiḥ sarvam idam jagat |
mohitam na abhijānāti
mām ebhyaḥ param avyayam ||)
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Meaning :
This whole world is the expression of the tendencies formed by the three aspects / attributes of prakṛti harmony (sattva), movement (rajas), and inertia (tamas). The one deluded by ignorance never knows Me, The Imperishable One, beyond these three aspects / attributes of prakṛti.
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Note :
Here we find an exact parallel of our this day 'Physics'.
What is (sattva), (rajas), (tamas) in ’sāṅkhya’, could be viewed as equivalents to light, movement and inertia respectively, in Physics.
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Chapter 7, śloka 19,
bahūnāṃ janmanāmante
jñānavānmāṃ prapadyate |
vāsudevaḥ sarvamiti
sa mahātmā sudurlabhaḥ ||
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(bahūnām janmanām-ante
jñānavān mām prapadyate |
vāsudevaḥ sarvam-iti saḥ
mahātmā sudurlabhaḥ ||)
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Meaning :
After many births (and rebirths) in the last birth, the jñānavān / jñānī (Man who has attained the wisdom and Me as well) realizes Me as vāsudeva, The Consciousness Supreme, who abides ever in the hearts of all beings.
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Chapter 8, śloka 22,
puruṣaḥ sa paraḥ pārtha
bhaktyā labhyastvananyayā |
yasyāntaḥsthāni bhūtāni
yena sarvamidaṃ tatam ||
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(puruṣaḥ saḥ paraḥ pārtha
bhaktyā labhyaḥ tu ananyayā |
yasya antaḥsthāni bhūtāni
yena sarvam idam tatam ||)
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Meaning :
O partha (arjuna)! The Supreme, wherein abides the whole existence, is all over and everywhere yet transcends all, and all beings are within Him.
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Chapter 8, śloka 28,
vedeṣu yajñeṣu tapaḥsu caiva
dāneṣu yatpuṇyaphalaṃ pradiṣṭam |
atyeti tatsarvamidaṃ viditvā
yogī paraṃ sthānamupaiti cādyam ||
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(vedeṣu yajñeṣu tapaḥsu caiva
dāneṣu yat puṇyaphalam pradiṣṭam |
atyeti tat sarvam idam viditvā
yogī param sthānam upaiti ca ādyam ||)
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Meaning :
The yogI who knows this abode of The Supreme Reality (as explained in shloka 8 of this chapter 8) transcends all fruits that are obtained through the study of veda-s, performing the sacrifices of all kinds, or doing austerities and penances, (because they are destroyed with their enjoyments) while by knowing the indestructible, begin-less Supreme abode of oneself, one merges into That.
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Chapter 9, śloka 4,
mayā tatamidaṃ sarvaṃ
jagadavyaktamūrtinā |
matsthāni sarvabhūtāni
na cāhaṃ teṣvasthitaḥ ||
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(mayā tatam idam sarvam
jagat avyaktamūrtinā |
matsthāni sarvabhūtāni
na cāhaṃ teṣvasthitaḥ ||)
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Meaning :
This whole manifest expanse, all the world is pervaded by Me, The Immanent. All beings abide in Me, and not Me in them.
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Chapter 10, śloka 8,
ahaṃ sarvasya prabhavo
mattaḥ sarvaṃ pravartate |
iti matvā bhajante māṃ
budhā bhāvasamanvitāḥ ||
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(aham sarvasya prabhavaḥ
mattaḥ sarvam pravartate |
iti matvā bhajante mām
budhāḥ bhāvasamanvitāḥ ||)
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Meaning :
I AM The origin from where all everything comes into existence, and through Me, everything prospers. The wise are ever devoted to Me with this spirit of understanding Me.
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Chapter 10, śloka 14,
sarvametadṛtaṃ manye
yanmāṃ vadasi keśava |
na hi te bhagavanvyaktiṃ
vidurdevā na dānavāḥ ||)
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(sarvam etat ṛtam manye
yat mām vadasi keśava |
na hi te bhagavan vyaktiṃ
viduḥ devāḥ na dānavāḥ ||)
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Meaning :
arjuna says ;
O keśava! ( śrīkṛṣṇa!), ; whatever you say and have told me so far, I take all this as Truth , O Lord! No doubt, neither the gods ( devatā) nor the demons (dānavā) know your manifestation (avatāra).
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Note :
Here we come across the two approaches about the Truth / Reality of śrīkṛṣṇa. Accordingly, The principle That is śrīkṛṣṇa, is though Immanent is manifest as well. And there is nothing that can stop Him / The Lord of The Whole existence, from manifesting Himself in a human or any other form. This way, one can also worship Him in the form of an (avatāra), if this appeals to one's inclinations and orientation of the mind.
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Chapter 11, śloka 40,
namaḥ purastādatha pṛṣṭhataste
namo:'stu te sarvata eva sarva |
anantavīryāmitavikramastvaṃ
sarvaṃ samāpnoṣi tato:'si sarvaḥ ||
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namaḥ purastāt atha pṛṣṭhataḥ te
namaḥ astu te sarvataḥ eva sarva |
anantavīrya amitavikramaḥ tvam
sarvam samāpnoṣi tataḥ asi sarvaḥ ||
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Meaning :
Obeisance to You from the front, Obeisance to You from the back, obeisance to You from all the sides. You are Omnipresent, and All. O Supreme! You are valor infinite and strength infallible! You pervade All, ...You Are All!!
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Chapter 13, śloka 13,
sarvataḥpāṇipādaṃ tat-
sarvato:'kṣiśiromukham |
sarvataḥśrutimalloke
sarvamāvṛtya tiṣṭhati ||
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(sarvataḥpāṇipādam tat
sarvataḥ akṣiśiromukham |
sarvataḥśrutimat loke
sarvam āvṛtya tiṣṭhati ||
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(This brahman / tat) has His hands / arms, feet, eyes, ears, heads, and faces, envelopping the Whole existence. And in this way He is ever everywhere.
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Note :
We can see the example of the Sun. His rays reach everywhere, they are his hands / arms, feet, eyes, ears, heads, and faces, through which He touches, gives support to, looks at, listens to and shows Himself to everything and every being.
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Chapter 18, śloka 46,
yataḥ pravṛttirbhūtānāṃ
yena sarvamidaṃ tatam |
svakarmaṇā tamabhyarcya
siddhiṃ vindati mānavaḥ ||
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(yataḥ pravṛttiḥ bhūtānām
yena sarvam idaṃ tatam |
svakarmaṇā tam-abhyarcya
siddhim vindati mānavaḥ ||)
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Meaning :
Performing honestly and devotedly all the duties allotted to one, and worshiping in this way The One Supreme, Who is present in all beings, and Who is the Source, from where all the tendencies arise in the heart (of all beings), one attains perfection in one-self.
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’सर्वम्’ / ’sarvam’ - सब, सबको,
अध्याय 2, श्लोक 17,
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥
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(अविनाशि तु तत् विद्धि येन सर्वम् इदम् ततम् ।
विनाशम् अव्ययस्य अस्य न कश्चित् कर्तुम् अर्हति ॥)
--
भावार्थ :
नाशरहित तो (तुम) उसको जानो जिससे यह सम्पूर्ण (दृश्य जगत् एवम् दृष्टा भी) व्याप्त है । स्वरूप से ही अविनाशी इस तत्व का जो सबसे / सबमें व्याप्त है, कोई कर सके, ऐसा सक्षम कोई नहीं है ।
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अध्याय 4, श्लोक 33,
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥
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(श्रेयान् द्रव्यमयात् यज्ञात् ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वम् कर्म अखिलम् पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥)
--
भावार्थ :
हे परन्तप अर्जुन! द्रव्यों की आहुति देकर किए जानेवाले यज्ञों की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अधिक श्रेयस्कर है, और सम्पूर्ण कर्म (कर्म-समष्टि ही) ज्ञान में विलीन हो जाते हैं ।
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अध्याय 4, श्लोक 36,
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥
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(अपि चेत् असि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वम् ज्ञानप्लवेन एव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥)
--
भावार्थ :
( इस अध्याय के पूर्व श्लोकों 34 तथा 35 में जैसा कहा गया है, तदनुसार उन तत्वदर्शियों के उपदेश को समझने और उस पर आचरण करने से, तुम्हें जो प्रज्ञा प्राप्त होगी ... तो यदि)
तुम पाप करनेवालों से अन्य सब से भी अधिक, सर्वाधिक पाप करनेवाले भी हो, तो भी उस प्रज्ञारूपी नौका से तुम पापरूपी सम्पूर्ण समुद्र को लाँघकर पार हो जाओगे ।
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अध्याय 6, श्लोक 30,
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥
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(यः माम् पश्यति सर्वत्र सर्वम् च मयि पश्यति ।
तस्य अहं न प्रणश्यामि सः च मे न प्रणश्यति ॥)
--
भावार्थ :
जो मुझको (अपने-आपको) सर्वत्र देखता है तथा जो सबको मुझमें (अपने-आप ही में) अवस्थित देखता है, न तो उसके अस्तित्व मैं नष्ट होने देता हूँ और न ही वह मुझे (अपनी निज आत्मा / परमात्मा को) नष्ट होने देता है ।
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अध्याय 7, श्लोक 7,
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
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(मत्तः परतरम् न अन्यत् किञ्चित् अस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वम् इदम् प्रोतम् सूत्रे मणिगणाः इव ॥)
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भावार्थ :
हे धनञ्जय (अर्जुन)! मुझसे भिन्न, परम (कारण) दूसरा कुछ नहीं है । यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में पिरोये हुए मणियों के समान मुझमें ही अनुस्यूत है ।
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अध्याय 7, श्लोक 13,
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥
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(त्रिभिः गुणमयैः भावैः एभिः सर्वम् इदम् जगत् ।
मोहितम् न अभिजानाति माम् एभ्यः परम् अव्ययम् ॥)
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भावार्थ :
यह सम्पूर्ण जगत् (सात्त्विक, राजस और तामसिक) इन तीन गुणों से युक्त भावों का संयोग है । मोहित बुद्धिवाला मनुष्य इनसे परे मुझ अविनाशी को नहीं जान पाता ।
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अध्याय 7, श्लोक 19,
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
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(बहूनाम् जन्मनाम्-अन्ते ज्ञानवान् माम् प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वम्-इति सः महात्मा सुदुर्लभः ॥)
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भावार्थ :
बहुत से जन्मों (और पुनर्जन्मों) के बाद, अन्त के जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त हुआ मनुष्य मेरी ओर आकर्षित होता है, मुझे भजता है । ऐसा वह मनुष्य, जिसकी दृष्टि में सब कुछ केवल वासुदेव ही होता है, वह महात्मा अत्यन्त ही दुर्लभ होता है ।
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अध्याय 8, श्लोक 22,
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥
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(पुरुषः सः परः पार्थ भक्त्या लभ्यः तु अनन्यया ।
यस्य अन्तःस्थानि भूतानि येन सर्वम् इदम् ततम् ॥)
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भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन) जिससे और जिसमें यह सब दृश्य जगत् ओत-प्रोत है, सर्वभूत जिसके ही भीतर अवस्थित हैं, वह पुरुष (परमात्मा) तो अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होता है ।
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अध्याय 8, श्लोक 28,
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव
दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा
योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥
--
(वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव
दानेषु यत् पुण्यफलम् प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत् सर्वम् इदम् विदित्वा
योगी परम् स्थानम् उपैति च आद्यम् ॥)
--भावार्थ :
वेदों ( के अध्ययन), यज्ञों (के अनुष्ठान), तपों (के पूर्ण करने) तथा विभिन्न प्रकार के दान देने आदि से जिस पुण्यफल की प्राप्ति निर्दिष्ट की गई है, योगी निःसन्देह उस सब को लांघकर इस आद्य सनातन एवं शाश्वत् स्थान को प्राप्त हो जाता है ।
[टिप्पणी : समस्त पुण्यफल उनके उपभोग के साथ ही नष्ट हो जाते हैं, किन्तु योगी (इस अध्याय के श्लोक 11 में वर्णित) ’पद’ कॊ प्राप्त होकर उससे एक हो जाता है ।]
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अध्याय 9, श्लोक 4,
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्वस्थितः ॥
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(मया ततम् इदम् सर्वम् जगत् अव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्वस्थितः ॥)
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भावार्थ :
मुझ अव्यक्तस्वरूप (निराकार) से यह सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण है । और सम्पूर्ण भूत मेरे ही आश्रय से मुझमें स्थित हैं, न कि मैं उनमें ।
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टिप्पणी :
सम्पूर्ण जगत् एवम् भूत आदि अपने अस्तित्व के प्रमाण के लिए किसी चेतन सत्ता के आश्रित होते हैं, जबकि वह चेतन सत्ता अपने अस्तित्व का प्रमाण स्वयं ही है । इस प्रकार से ’चेतनता’ के सर्वव्यापक होने के तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । वही चेतनता किसी देह में प्राणरूप से व्यक्त होने पर उसे व्यक्ति-विशेष के रूप में अभिव्यक्त करती है । इस प्रकार से चेतनता की अभिव्यक्ति होने के पश्चात् ही ’मैं’ यह-यह, इस प्रकार का हूँ आदि भावनाएँ मन-मस्तिष्क में उत्पन्न होती हैं । इस प्रकार से परिभाषित हुआ ’व्यक्ति’, विनाशशील कल्पना मात्र है, जबकि इस कल्पना का आश्रय अविनाशी परमात्मा ।
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अध्याय 10, श्लोक 8,
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥
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(अहम् सर्वस्य प्रभवः मत्तः सर्वम् प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते माम् बुधाः भावसमन्विताः ॥)
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मैं सबकी उत्पत्ति (हूँ), मुझसे ही सब कुछ प्रवृत्तिशील है, इस प्रकार से समझते हुए, हृदय की भावना को मुझ समन्वित कर बुद्धिमान मनुष्य मुझको (परमेश्ववर को) सदा भजते हैं ।
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अध्याय 10, श्लोक 14,
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥)
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(सर्वम् एतत् ऋतम् मन्ये यत् माम् वदसि केशव ।
न हि ते भगवन् व्यक्तिं विदुः देवाः न दानवाः ॥)
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भावार्थ : (अर्जुन कहते हैं :)
हे केशव आप अपने बारे में मुझसे जो कुछ कह रहे हैं, उस सबको मैं सत्य मानता हूँ । भगवन! आपके प्राकट्य को, कार्य को, और यथार्थ को न तो देवता जानते हैं और न ही दानव ।
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टिप्पणी : यहाँ पुनः यह जानना रोचक होगा कि जहाँ पौराणिक दृष्टि से ’ईश्वर’ के अवतार के आधार पर या वैदिक आधार पर भी भिन्न-भिन्न प्रकार से भगवान् श्रीकृष्ण के जीवन और कार्य को भिन्न-भिन्न रूप से कहा और ग्रहण किया जा सकता है और उनमें विसंगति हमारी परिपक्वता के अनुसार ही हमें प्रतीत होगी ।
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अध्याय 11, श्लोक 40,
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं
सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥
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नमः पुरस्तात् अथ पृष्ठतः ते
नमः अस्तु ते सर्वतः एव सर्व ।
अनन्तवीर्य अमितविक्रमः त्वम्
सर्वम् समाप्नोषि ततः असि सर्वः ॥
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भावार्थ :
हे अनन्तसामर्थ्यवान् ! आपको आगे से तथा पीछे से भी नमस्कार । आपके लिए सब ओर से ही प्रणाम हो, हे सर्वस्व ! हे अनन्त पराक्रमशाली आप सम्पूर्ण संसार को व्याप्त किए हुए हैं, इसलिए आप ही सर्वरूप, सब-कुछ हैं ।
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टिप्पणी : उपरोक्त श्लोक में पहले आधे भाग में ’सर्व’ पद का प्रयोग संबोधनवाची है, -’हे सर्व!’ के अर्थ में ।
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अध्याय 13, श्लोक 13,
सर्वतःपाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥
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(सर्वतःपाणिपादम् तत् सर्वतः अक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतःश्रुतिमत् लोके सर्वम् आवृत्य तिष्ठति ॥
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भावार्थ :
वह (ब्रह्म) सब ओर हाथ-पैरवाला, सब ओर नेत्र, सिर तथा मुखवाला, सब ओर कानवाला है, तथा सबको व्याप्त करते हुए स्थित है । इसे और ठीक से समझने के लिए इस अध्याय 13 का अगला श्लोक क्रमांक 14 देखें ।
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टिप्पणी :
इस श्लोक का तात्पर्य समझने के लिए हम सूर्य का उदाहरण ले सकते हैं । उपनिषद् में कहा है, : सूर्यो आत्मा जगतः । सूर्य की किरणों का विस्तार दिग्-दिगन्त तक है, किरणें जो सूर्य के हाथ, पैर, नेत्र एवम् कान भी हैं । भगवान् भास्कर सब को स्पर्श करते हैं, सब का अधिष्ठान हैं, सब को देखते हैं और अपने रश्मिरूपी श्रोत्रों / श्रुतियों से सब को सुनते भी हैं ।
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अध्याय 18, श्लोक 46,
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
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(यतः प्रवृत्तिः भूतानाम् येन सर्वम् इदं ततम् ।
स्वकर्मणा तम्-अभ्यर्च्य सिद्धिम् विन्दति मानवः ॥)
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भावार्थ :
जिस मूल तत्व से समस्त प्राणियों में प्रवृत्ति-विशेष का उद्भव होता है, (और जैसे बर्फ़ जल से व्याप्त होता है,) जिससे यह सब-कुछ व्याप्त है, अपने-अपने विशिष्ट स्वाभाविक कर्म (के आचरण) से उसकी आराधना करते हुए मनुष्य परम श्रेयस् की प्राप्ति कर लेता है ।
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’सर्वम्’ / ’sarvam’ - all, to all, whole, total,
Chapter 2, śloka 17,
avināśi tu tadviddhi
yena sarvamidaṃ tatam |
vināśamavyayāsya
na kaścitkartumarhati ||
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(avināśi tu tat viddhi
yena sarvam idam tatam |
vināśam avyayasya asya
na kaścit kartum arhati ||)
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Meaning :
Know that, That (brahman), Which is imperishable pervades all this universe. No one is capable to destroy this imperishable principle, (Brahman).
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Chapter 4, śloka 33,
śreyāndravyamayādya-
jñājjñānayajñaḥ parantapa |
sarvaṃ karmākhilaṃ pārtha
jñāne parisamāpyate ||
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(śreyān dravyamayāt yajñāt
jñānayajñaḥ parantapa |
sarvam karma akhilam pārtha
jñāne parisamāpyate ||)
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Meaning :
O (parantapa) arjun ! The sacrifice (yajña), where-in the offerings of the intellect is made in the Fire of wisdom (jñānayajña), where-in mind is offered into the Fire of Self, is superior to the sacrifices (yajña-s) where the offerings of materials are made into fire (dravyamaya yajña).
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Chapter 4, śloka 36,
api cedasi pāpebhyaḥ
sarvebhyaḥ pāpakṛttamaḥ |
sarvaṃ jñānaplavenaiva
vṛjinaṃ santariṣyasi ||
--
(api cet asi pāpebhyaḥ
sarvebhyaḥ pāpakṛttamaḥ |
sarvam jñānaplavena eva
vṛjinaṃ santariṣyasi ||)
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Meaning : (As said in the last 2 śloka of this chapter 4, one should go to wise and listen and follow their advice / instructions where-by one gains the wisdom supreme, and 'KNOWING THAT', one is never again deluded by ignorance, THAT wisdom that enables one to see the same SELF in all beings as well as in Me / one-self also. And then,...)
Even if you think, you are the greatest sinner among all those who have sinned, this boat of wisdom will take you across, over the ocean of all evils and sins.
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Chapter 6, śloka 30,
yo māṃ paśyati sarvatra
sarvaṃ ca mayi paśyati |
tasyāhaṃ na praṇaśyāmi
sa ca me na praṇaśyati ||
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(yaḥ mām paśyati sarvatra
sarvam ca mayi paśyati |
tasya ahaṃ na praṇaśyāmi
saḥ ca me na praṇaśyati ||)
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Meaning :
One who everywhere finds and sees Me, and likewise, everything in Me, is not lost sight of Me, nor I lose sight of him [is not lost to Me, nor I to him].
Chapter 7, śloka 7,
mattaḥ parataraṃ nānyat-
kiñcidasti dhanañjaya |
mayi sarvamidaṃ protaṃ
sūtre maṇigaṇā iva ||
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(mattaḥ parataram na anyat
kiñcit asti dhanañjaya |
mayi sarvam idam protam
sūtre maṇigaṇāḥ iva ||)
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Meaning :
O dhananjaya (arjuna)! There is nothing whatsoever, (Cause Supreme) that excels Me. Just as the pearls threaded in a string, This All manifest rests in Me.
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Chapter 7, śloka 13,
tribhirguṇamayairbhāvai-
rebhiḥ sarvamidaṃ jagat |
mohitaṃ nābhijānāti
māmebhyaḥ paramavyayam ||
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(tribhiḥ guṇamayaiḥ bhāvaiḥ
ebhiḥ sarvam idam jagat |
mohitam na abhijānāti
mām ebhyaḥ param avyayam ||)
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Meaning :
This whole world is the expression of the tendencies formed by the three aspects / attributes of prakṛti harmony (sattva), movement (rajas), and inertia (tamas). The one deluded by ignorance never knows Me, The Imperishable One, beyond these three aspects / attributes of prakṛti.
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Note :
Here we find an exact parallel of our this day 'Physics'.
What is (sattva), (rajas), (tamas) in ’sāṅkhya’, could be viewed as equivalents to light, movement and inertia respectively, in Physics.
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Chapter 7, śloka 19,
bahūnāṃ janmanāmante
jñānavānmāṃ prapadyate |
vāsudevaḥ sarvamiti
sa mahātmā sudurlabhaḥ ||
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(bahūnām janmanām-ante
jñānavān mām prapadyate |
vāsudevaḥ sarvam-iti saḥ
mahātmā sudurlabhaḥ ||)
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Meaning :
After many births (and rebirths) in the last birth, the jñānavān / jñānī (Man who has attained the wisdom and Me as well) realizes Me as vāsudeva, The Consciousness Supreme, who abides ever in the hearts of all beings.
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Chapter 8, śloka 22,
puruṣaḥ sa paraḥ pārtha
bhaktyā labhyastvananyayā |
yasyāntaḥsthāni bhūtāni
yena sarvamidaṃ tatam ||
--
(puruṣaḥ saḥ paraḥ pārtha
bhaktyā labhyaḥ tu ananyayā |
yasya antaḥsthāni bhūtāni
yena sarvam idam tatam ||)
--
Meaning :
O partha (arjuna)! The Supreme, wherein abides the whole existence, is all over and everywhere yet transcends all, and all beings are within Him.
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Chapter 8, śloka 28,
vedeṣu yajñeṣu tapaḥsu caiva
dāneṣu yatpuṇyaphalaṃ pradiṣṭam |
atyeti tatsarvamidaṃ viditvā
yogī paraṃ sthānamupaiti cādyam ||
--
(vedeṣu yajñeṣu tapaḥsu caiva
dāneṣu yat puṇyaphalam pradiṣṭam |
atyeti tat sarvam idam viditvā
yogī param sthānam upaiti ca ādyam ||)
--
Meaning :
The yogI who knows this abode of The Supreme Reality (as explained in shloka 8 of this chapter 8) transcends all fruits that are obtained through the study of veda-s, performing the sacrifices of all kinds, or doing austerities and penances, (because they are destroyed with their enjoyments) while by knowing the indestructible, begin-less Supreme abode of oneself, one merges into That.
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Chapter 9, śloka 4,
mayā tatamidaṃ sarvaṃ
jagadavyaktamūrtinā |
matsthāni sarvabhūtāni
na cāhaṃ teṣvasthitaḥ ||
--
(mayā tatam idam sarvam
jagat avyaktamūrtinā |
matsthāni sarvabhūtāni
na cāhaṃ teṣvasthitaḥ ||)
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Meaning :
This whole manifest expanse, all the world is pervaded by Me, The Immanent. All beings abide in Me, and not Me in them.
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Chapter 10, śloka 8,
ahaṃ sarvasya prabhavo
mattaḥ sarvaṃ pravartate |
iti matvā bhajante māṃ
budhā bhāvasamanvitāḥ ||
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(aham sarvasya prabhavaḥ
mattaḥ sarvam pravartate |
iti matvā bhajante mām
budhāḥ bhāvasamanvitāḥ ||)
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Meaning :
I AM The origin from where all everything comes into existence, and through Me, everything prospers. The wise are ever devoted to Me with this spirit of understanding Me.
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Chapter 10, śloka 14,
sarvametadṛtaṃ manye
yanmāṃ vadasi keśava |
na hi te bhagavanvyaktiṃ
vidurdevā na dānavāḥ ||)
--
(sarvam etat ṛtam manye
yat mām vadasi keśava |
na hi te bhagavan vyaktiṃ
viduḥ devāḥ na dānavāḥ ||)
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Meaning :
arjuna says ;
O keśava! ( śrīkṛṣṇa!), ; whatever you say and have told me so far, I take all this as Truth , O Lord! No doubt, neither the gods ( devatā) nor the demons (dānavā) know your manifestation (avatāra).
--
Note :
Here we come across the two approaches about the Truth / Reality of śrīkṛṣṇa. Accordingly, The principle That is śrīkṛṣṇa, is though Immanent is manifest as well. And there is nothing that can stop Him / The Lord of The Whole existence, from manifesting Himself in a human or any other form. This way, one can also worship Him in the form of an (avatāra), if this appeals to one's inclinations and orientation of the mind.
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Chapter 11, śloka 40,
namaḥ purastādatha pṛṣṭhataste
namo:'stu te sarvata eva sarva |
anantavīryāmitavikramastvaṃ
sarvaṃ samāpnoṣi tato:'si sarvaḥ ||
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namaḥ purastāt atha pṛṣṭhataḥ te
namaḥ astu te sarvataḥ eva sarva |
anantavīrya amitavikramaḥ tvam
sarvam samāpnoṣi tataḥ asi sarvaḥ ||
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Meaning :
Obeisance to You from the front, Obeisance to You from the back, obeisance to You from all the sides. You are Omnipresent, and All. O Supreme! You are valor infinite and strength infallible! You pervade All, ...You Are All!!
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Chapter 13, śloka 13,
sarvataḥpāṇipādaṃ tat-
sarvato:'kṣiśiromukham |
sarvataḥśrutimalloke
sarvamāvṛtya tiṣṭhati ||
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(sarvataḥpāṇipādam tat
sarvataḥ akṣiśiromukham |
sarvataḥśrutimat loke
sarvam āvṛtya tiṣṭhati ||
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(This brahman / tat) has His hands / arms, feet, eyes, ears, heads, and faces, envelopping the Whole existence. And in this way He is ever everywhere.
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Note :
We can see the example of the Sun. His rays reach everywhere, they are his hands / arms, feet, eyes, ears, heads, and faces, through which He touches, gives support to, looks at, listens to and shows Himself to everything and every being.
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Chapter 18, śloka 46,
yataḥ pravṛttirbhūtānāṃ
yena sarvamidaṃ tatam |
svakarmaṇā tamabhyarcya
siddhiṃ vindati mānavaḥ ||
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(yataḥ pravṛttiḥ bhūtānām
yena sarvam idaṃ tatam |
svakarmaṇā tam-abhyarcya
siddhim vindati mānavaḥ ||)
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Meaning :
Performing honestly and devotedly all the duties allotted to one, and worshiping in this way The One Supreme, Who is present in all beings, and Who is the Source, from where all the tendencies arise in the heart (of all beings), one attains perfection in one-self.
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