Tuesday, June 24, 2014

आज का श्लोक, ’सर्वभृत्’ / ’sarvabhṛt’

आज का श्लोक, ’सर्वभृत्’ / ’sarvabhṛt’
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’सर्वभृत्’ / ’sarvabhṛt’ - सबका पालन-पोषण करनेवाला,

अध्याय 13, श्लोक 14,

सर्वेन्द्रियगुणाभासम्  सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥
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(सर्वेन्द्रियगुणाभासम्  सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तम् सर्वभृत् च एव निर्गुणम् गुणभोक्तृ च ॥)
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भावार्थ : इस अध्याय के प्रारंभिक श्लोकों में जिसे ’क्षेत्रज्ञ’ कहा गया वह आत्मा (अर्थात् ’मैं’ रूपी परमात्मा), यद्यपि सम्पूर्ण इन्द्रियों के गुणों (अर्थात् विषयों) को जाननेवाला है, किन्तु सर्वथा इन्द्रियविवर्जित है, -इन्द्रियरहित है । इसी तरह वह सर्वथा आसक्तिरहित भी है, किन्तु सबको पूर्णता प्रदान करनेवाला वह निर्गुण होते हुए भी इस रीति से गुणों का उपभोग भी करता है ।
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’सर्वभृत्’ / ’sarvabhṛt’ - One Who sustains and supports all beings.

Chapter 13, śloka 14,

sarvendriyaguṇābhāsam
sarvendriyavivarjitam |
asaktaṃ sarvabhṛccaiva
nirguṇaṃ guṇabhoktṛ ca ||
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(sarvendriyaguṇābhāsam
sarvendriyavivarjitam |
asaktam sarvabhṛt ca eva
nirguṇam guṇabhoktṛ ca ||)
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Meaning : Manifesting One-self in the form of all the senses and also The One, Who is the Only evidence of those senses and their respective objects, unattached to them yet sustaining them all, He (kṣetrajña, the One Who 'knows' only the kṣetra, without mediate-knowledge) is also the Only enjoyer of them, is attribute-less ( nirguṇa ) .  

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