आज का श्लोक, ’संनिविष्टः’ / ’saṃniviṣṭaḥ’
___________________________________
’संनिविष्टः’ / ’saṃniviṣṭaḥ’ - प्रविष्ट, अन्तःस्थित,
अध्याय 15, श्लोक 15,
--
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेवचाहम् ॥
--
(सर्वस्य च अहम् हृदि संनिविष्टः
मत्तः स्मृतिः ज्ञानम् अपोहनम् च ।
वेदैः सर्वैः अहम् एव वेद्यः
वेदान्तकृत्-वेदवित् एव च अहम् ॥)
--
भावार्थ :
'मैं' सबके हृदय में चेतना के रूप में सदा अवस्थित हूँ । मुझसे ही प्राणिमात्र में स्मृति, ज्ञान एवं उनका उद्गम, संकल्पों का उद्भव, विकल्प और विलोपन होता रहता है । पुनः समस्त वेदों में एकमात्र मुझे ही जानने योग्य कहा गया है । वेदान्त का प्रणेता, वेदार्थ का कर्ता और वेद को समझनेवाला भी मैं ही हूँ ।
--
’संनिविष्टः’ / ’saṃniviṣṭaḥ’ - dwell, situated at the core of heart,
Chapter 15, śloka 15,
--
sarvasya cāhaṃ hṛdi sanniviṣṭo
mattaḥ smṛtirjñānamapohanaṃ ca |
vedaiśca sarvairahameva vedyo
vedāntakṛdvedavidevacāham ||
--
(sarvasya ca aham hṛdi saṃniviṣṭaḥ
mattaḥ smṛtiḥ jñānam apohanam ca |
vedaiḥ sarvaiḥ aham eva vedyaḥ
vedāntakṛt-vedavit eva ca aham ||)
--
Meaning :
I am seated in the Hearts of all being. I am the source of memory, knowledge and forgetfulness also. From Me emerge all thought (vṛtti / saṃkalpa), choice and rejection, and also their dissolution. I am the principle all the Vedas speak of, and is learnt from. Alone I am the author and the One Who knows the veda.
--
___________________________________
’संनिविष्टः’ / ’saṃniviṣṭaḥ’ - प्रविष्ट, अन्तःस्थित,
अध्याय 15, श्लोक 15,
--
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेवचाहम् ॥
--
(सर्वस्य च अहम् हृदि संनिविष्टः
मत्तः स्मृतिः ज्ञानम् अपोहनम् च ।
वेदैः सर्वैः अहम् एव वेद्यः
वेदान्तकृत्-वेदवित् एव च अहम् ॥)
--
भावार्थ :
'मैं' सबके हृदय में चेतना के रूप में सदा अवस्थित हूँ । मुझसे ही प्राणिमात्र में स्मृति, ज्ञान एवं उनका उद्गम, संकल्पों का उद्भव, विकल्प और विलोपन होता रहता है । पुनः समस्त वेदों में एकमात्र मुझे ही जानने योग्य कहा गया है । वेदान्त का प्रणेता, वेदार्थ का कर्ता और वेद को समझनेवाला भी मैं ही हूँ ।
--
’संनिविष्टः’ / ’saṃniviṣṭaḥ’ - dwell, situated at the core of heart,
Chapter 15, śloka 15,
--
sarvasya cāhaṃ hṛdi sanniviṣṭo
mattaḥ smṛtirjñānamapohanaṃ ca |
vedaiśca sarvairahameva vedyo
vedāntakṛdvedavidevacāham ||
--
(sarvasya ca aham hṛdi saṃniviṣṭaḥ
mattaḥ smṛtiḥ jñānam apohanam ca |
vedaiḥ sarvaiḥ aham eva vedyaḥ
vedāntakṛt-vedavit eva ca aham ||)
--
Meaning :
I am seated in the Hearts of all being. I am the source of memory, knowledge and forgetfulness also. From Me emerge all thought (vṛtti / saṃkalpa), choice and rejection, and also their dissolution. I am the principle all the Vedas speak of, and is learnt from. Alone I am the author and the One Who knows the veda.
--
No comments:
Post a Comment