आज का श्लोक, ’संयम्य’ / ’ saṃyamya ’
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’संयम्य’ / ’saṃyamya’ - नियन्त्रण में रखते हुए,
अध्याय 2, श्लोक 61,
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तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
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(तानि सर्वाणि संयम्य युक्तः आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्य इन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥)
--
भावार्थ :
(श्लोक 58, 59,60 में कहा गया है कि किस प्रकार इन्द्रियों को भीतर की ओर अन्तर्मुख किया जाता है, और योगाभ्यास में संलग्न मनुष्य की इन्द्रियाँ विषयों से दूर रहने पर भी विषयों (के भोगों) के प्रति मन की राग-बुद्धि समाप्त नहीं होती, और इसलिए कैसे बुद्धिमान मनुष्य के मन को भी इन्द्रियाँ बलपूर्वक हर लेती हैं । और इस राग-बुद्धि की निवृत्ति तो परमेश्वर के साक्षात्कार से ही होती है । इसलिए,)
जो उन सभी इन्द्रियों को संयमित रखते हुए मुझमें समाहित चित्त हुआ, मुझमें अर्पित मन वाला होता है, उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित, सुस्थिर हो जाती है ।
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अध्याय 3, श्लोक 6,
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
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(कर्मेन्द्रियाणि संयम्य यः आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः सः उच्यते ॥)
--
भावार्थ :
जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक रोककर, उन्हें उनके विषयों से दूर रखते हुए भी, मन से इन्द्रियों के उन विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 14,
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प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥)
--
(प्रशान्तात्मा विगतभीः ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तः युक्तः आसीत् मत्परः ॥)
--
भावार्थ :
जिसकी वृत्तियाँ शान्त हों, जो भयरहित हो, ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थित हो, मन को बाह्य विषयों में जाने से रोककर मुझमें संलग्नचित्त होकर मेरे परायण होकर मुझमें
निमग्न रहे ।
--
अध्याय 8, श्लोक 12,
--
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥
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(सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्नि आधायात्मनः प्राणम् आस्थितः योगधारणम् ॥)
--
भावार्थ :
मन जिन इंद्रियों के मार्ग से बहिर्मुख होता है, उन सब रोककर मन को अंतर्मुख अर्थात् 'हृदय' में ठहराकर और पुनः उन मार्गों पर न जाने देकर (चित्त निरोध )। प्राणों को हृदय से मूर्ध्ना की दिशा में जानेवाली नाड़ी पर ले जाकर मस्तक में स्थिर (प्राण-निरोध) करते हुए साधक योगधारणा में प्रवृत्त होता है।
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’संयम्य’ / ’saṃyamya’ - having restrained, controlled,
Chapter 2, shloka 61,
tāni sarvāṇi saṃyamya
yukta āsīta matparaḥ |
vaśe hi yasyendriyāṇi
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||
--
(tāni sarvāṇi saṃyamya
yuktaḥ āsīta matparaḥ |
vaśe hi yasya indriyāṇi
tasyua prajñā pratiṣṭhitā ||)
--
Meaning :
[śloka 58, 59, 60 of this Chapter 2 describe that the aspirant though practices withdrawing the mind and senses inwards, the sense-organs keep attracting him forcefully towards the objects of enjoyments and the sense of pleasure from them remains intact. This sense of pleasure is lost only when one has seen the Supreme, The 'Self', Me (Divine). So, ... ]
Having restrained those sense-organs, One who keeps them under control, who is devoted to Me, such a man is said to have steady wisdom.
--
Chapter 3, shloka 6,
karmendriyāṇi saṃyamya
ya āste manasā smaran |
indriyārthānvimūḍhātmā
mithyācāraḥ sa ucyate ||
--
(karmendriyāṇi saṃyamya
yaḥ āste manasā smaran |
indriyārthān vimūḍhātmā
mithyācāraḥ saḥ ucyate ||)
--
Meaning :
One who though outwardly restraining the organs, keeps on indulging in the the thoughts of the objects and the pleasures that are enjoyed from them, is verily deluded and is a hypocrite.
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Chapter 6, shloka 14,
--
praśāntātmā vigatabhīr-
brahmacārivrate sthitaḥ |
manaḥ saṃyamya maccitto
yukta āsīta matparaḥ ||)
--
(praśāntātmā vigatabhīḥ
brahmacārivrate sthitaḥ |
manaḥ saṃyamya maccittaḥ
yuktaḥ āsīt matparaḥ ||)
--
--
Meaning :
One who has all the vRtti -s / (various modes of the mind) pacified, subsided, and thus has quiet in mind, who has no fear, one who dwells in the contemplation of 'Brahman', who is free from the complexities and obtuseness of mind, and thus has spontaneous control over the mind, who is devoted and absorbed in 'Me', One so having attained 'Me', ...
--
Chapter 8, shloka 12,
sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhnyādhāyātmanaḥ prāṇa-
māsthito yogadhāraṇām ||
--
(sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhni ādhāyātmanaḥ prāṇam
āsthitaḥ yogadhāraṇam ||)
--
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Meaning :
Controlling all the sense-organs where-from the attention strays away towards the objects, holding back the mind into the Heart, directing the vital energy (prANas) towards the cerebrum, abide in the contemplation of Yoga.
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’संयम्य’ / ’saṃyamya’ - नियन्त्रण में रखते हुए,
अध्याय 2, श्लोक 61,
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तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
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(तानि सर्वाणि संयम्य युक्तः आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्य इन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥)
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भावार्थ :
(श्लोक 58, 59,60 में कहा गया है कि किस प्रकार इन्द्रियों को भीतर की ओर अन्तर्मुख किया जाता है, और योगाभ्यास में संलग्न मनुष्य की इन्द्रियाँ विषयों से दूर रहने पर भी विषयों (के भोगों) के प्रति मन की राग-बुद्धि समाप्त नहीं होती, और इसलिए कैसे बुद्धिमान मनुष्य के मन को भी इन्द्रियाँ बलपूर्वक हर लेती हैं । और इस राग-बुद्धि की निवृत्ति तो परमेश्वर के साक्षात्कार से ही होती है । इसलिए,)
जो उन सभी इन्द्रियों को संयमित रखते हुए मुझमें समाहित चित्त हुआ, मुझमें अर्पित मन वाला होता है, उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित, सुस्थिर हो जाती है ।
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अध्याय 3, श्लोक 6,
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
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(कर्मेन्द्रियाणि संयम्य यः आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः सः उच्यते ॥)
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भावार्थ :
जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक रोककर, उन्हें उनके विषयों से दूर रखते हुए भी, मन से इन्द्रियों के उन विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 14,
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प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥)
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(प्रशान्तात्मा विगतभीः ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तः युक्तः आसीत् मत्परः ॥)
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भावार्थ :
जिसकी वृत्तियाँ शान्त हों, जो भयरहित हो, ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थित हो, मन को बाह्य विषयों में जाने से रोककर मुझमें संलग्नचित्त होकर मेरे परायण होकर मुझमें
निमग्न रहे ।
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अध्याय 8, श्लोक 12,
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सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥
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(सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्नि आधायात्मनः प्राणम् आस्थितः योगधारणम् ॥)
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भावार्थ :
मन जिन इंद्रियों के मार्ग से बहिर्मुख होता है, उन सब रोककर मन को अंतर्मुख अर्थात् 'हृदय' में ठहराकर और पुनः उन मार्गों पर न जाने देकर (चित्त निरोध )। प्राणों को हृदय से मूर्ध्ना की दिशा में जानेवाली नाड़ी पर ले जाकर मस्तक में स्थिर (प्राण-निरोध) करते हुए साधक योगधारणा में प्रवृत्त होता है।
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’संयम्य’ / ’saṃyamya’ - having restrained, controlled,
Chapter 2, shloka 61,
tāni sarvāṇi saṃyamya
yukta āsīta matparaḥ |
vaśe hi yasyendriyāṇi
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||
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(tāni sarvāṇi saṃyamya
yuktaḥ āsīta matparaḥ |
vaśe hi yasya indriyāṇi
tasyua prajñā pratiṣṭhitā ||)
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Meaning :
[śloka 58, 59, 60 of this Chapter 2 describe that the aspirant though practices withdrawing the mind and senses inwards, the sense-organs keep attracting him forcefully towards the objects of enjoyments and the sense of pleasure from them remains intact. This sense of pleasure is lost only when one has seen the Supreme, The 'Self', Me (Divine). So, ... ]
Having restrained those sense-organs, One who keeps them under control, who is devoted to Me, such a man is said to have steady wisdom.
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Chapter 3, shloka 6,
karmendriyāṇi saṃyamya
ya āste manasā smaran |
indriyārthānvimūḍhātmā
mithyācāraḥ sa ucyate ||
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(karmendriyāṇi saṃyamya
yaḥ āste manasā smaran |
indriyārthān vimūḍhātmā
mithyācāraḥ saḥ ucyate ||)
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Meaning :
One who though outwardly restraining the organs, keeps on indulging in the the thoughts of the objects and the pleasures that are enjoyed from them, is verily deluded and is a hypocrite.
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Chapter 6, shloka 14,
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praśāntātmā vigatabhīr-
brahmacārivrate sthitaḥ |
manaḥ saṃyamya maccitto
yukta āsīta matparaḥ ||)
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(praśāntātmā vigatabhīḥ
brahmacārivrate sthitaḥ |
manaḥ saṃyamya maccittaḥ
yuktaḥ āsīt matparaḥ ||)
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Meaning :
One who has all the vRtti -s / (various modes of the mind) pacified, subsided, and thus has quiet in mind, who has no fear, one who dwells in the contemplation of 'Brahman', who is free from the complexities and obtuseness of mind, and thus has spontaneous control over the mind, who is devoted and absorbed in 'Me', One so having attained 'Me', ...
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Chapter 8, shloka 12,
sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhnyādhāyātmanaḥ prāṇa-
māsthito yogadhāraṇām ||
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(sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhni ādhāyātmanaḥ prāṇam
āsthitaḥ yogadhāraṇam ||)
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Meaning :
Controlling all the sense-organs where-from the attention strays away towards the objects, holding back the mind into the Heart, directing the vital energy (prANas) towards the cerebrum, abide in the contemplation of Yoga.
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