आज का श्लोक, ’संन्यस्य’ / ’saṃnyasya’,
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’संन्यस्य’ / ’saṃnyasya’, - अर्पित करते हुए, त्यागकर,
अध्याय 3, श्लोक 30,
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्यध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥
--
(मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्य-अध्यात्म-चेतसा ।
निराशीः निर्ममः भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥)
--
भावार्थ :
समस्त कर्मों को अध्यात्मबुद्धिपूर्वक मुझमें अर्पित करते हुए, आशा से और ममता से रहित होकर, संताप से मुक्त रहते हुए युद्ध करो ।
--
अध्याय 5, श्लोक 13,
सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥
--
(सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्य आस्ते सुखम् वशी ।
नवद्वारे पुरे देही न- एव कुर्वन् न कारयन् ॥)
--
भावार्थ :
नव-द्वारों (इन्द्रियों) वाले घर (पुर) में रहता हुआ (पुरुष) और अपने मन-बुद्धि को वश में कर लेनेवाला, मन की सहायता से ( विवेकपूर्वक अपनी कर्तृत्व-भावना का निरसन हो जाने से) कर्मों को न तो स्वयं करते हुए और न किसी और के माध्यम से करवाते हुए सुखपूर्वक अपनी आत्मा में स्थित हो जाता है ।
--
अध्याय 12, श्लोक 6,
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥
(ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्पराः ।
अनन्येन-एव योगेन माम् ध्यायन्तः उपासते ॥)
--
भावार्थ : किन्तु जो अपने सभी कर्मों को मुझ (सगुण) परमेश्वर में ही अर्पण करते हुए अनन्य (मुझसे अपनी अपृथकता के बोध) योग से मेरा ध्यान, जिज्ञासा तथा निरन्तर चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं ...।
[अगले श्लोक क्रमांक 7 में इसे विस्तारपूर्वक कहा गया है ।]
टिप्पणी : इसी अध्याय 12 के श्लोक 1 में अर्जुन द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए, श्लोकों 2, 3, 4 एवं 5 के अन्तर्गत, भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा बतलाया गया कि यद्यपि (मेरे) अक्षर अव्यक्त स्वरूप में नित्य एकीभूत भाव से संलग्न मन-बुद्धियुक्त श्रद्धायुक्त मनुष्य युक्ततम अर्थात् सर्वोत्तम योगी होते हैं और वे सभी सब भूतों का कल्याण करते हुए मुझे ही प्राप्त होकर मुझमें ही समाहित हो जाते हैं किन्तु, उनमें से कुछ मेरे केवल अव्यक्त-स्वरूप में ही आसक्त मन-बुद्धिवाले होने से क्लेश अर्थात् अत्यधिक परिश्रम करते हैं, ....)
--
अध्याय 18, श्लोक 57,
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥
--
(चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगम् उपाश्रित्य मच्चित्तः सततम् भव ॥)
--
भावार्थ :
निष्ठा और भावना सहित सभी कर्मों को मुझमें अर्पण करके मेरे परायण (मेरे में संलग्न) होकर, सांख्य-बुद्धि से प्राप्त विवेक द्वारा, मुझ पर ही आश्रित रहकर, निरन्तर मेरे ही प्रति लगावयुक्त चित्तवाले हो जाओ ।
--
’संन्यस्य’ / ’saṃnyasya’ - having surrendered, given up, dedicated,
Chapter 3, śloka 30,
mayi sarvāṇi karmāṇi
sannyasyadhyātmacetasā |
nirāśīrnirmamo bhūtvā
yudhyasva vigatajvaraḥ ||
--
(mayi sarvāṇi karmāṇi
sannyasya-adhyātma-cetasā |
nirāśīḥ nirmamaḥ bhūtvā
yudhyasva vigatajvaraḥ ||)
--
Meaning : With the conviction born of the mind aimed at the spiritual, having surrendered all your actions in Me, fight the war without hoping, without attachment, and with the mind free of agony.
--
Chapter 5, śloka 13
sarvakarmāṇi manasā
sannyasyāstē sukhaṁ vaśī |
navadvārē purē dēhī
naiva kurvanna kārayan ||
--
(sarvakarmāṇi manasā
sannyasya āstē sukham vaśī |
navadvārē purē dēhī
na- ēva kurvan na kārayan ||)
--
Meaning :
The consciousness (self) that lives in the body as its abode, with nine doors (2 eyes, 2 ears, 2 nostrils, a mouth and 2 organs of excretion), when by way of discrimination and self-enquiry, gets rid of the false notion 'I do / I don't do', and thus neither doing, nor getting done anything by some other agent of action, is freed from all actions, rests peacefully and happily there-after for ever.
--
Chapter 12, śloka 6,
ye tu sarvāṇi karmāṇi
mayi sannyasya matparāḥ |
ananyenaiva yogena
māṃ dhyāyanta upāsate ||
(ye tu sarvāṇi karmāṇi
mayi sannyasya matparāḥ |
ananyena-eva yogena
mām dhyāyantaḥ upāsate ||)
--
Meaning :
But those, who dedicate all their actions (karma) to Me, remembering Me and meditating of Me, ever devoted with indivisible love for Me, by such kind of yoga of oneness with Me,....
--
Chapter 18, śloka 57,
cetasā sarvakarmāṇi
mayi sannyasya matparaḥ |
buddhiyogamupāśritya
maccittaḥ satataṃ bhava ||
--
(cetasā sarvakarmāṇi
mayi sannyasya matparaḥ |
buddhiyogam upāśritya
maccittaḥ satatam bhava ||)
--
Meaning :
Having surrendered all your actions to Me, having devoted to Me, following Me, by means of the wisdom of sāṃkhya,(sāṃkhya-buddhi), constantly thinking of Me, Be absorbed in Me.
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’संन्यस्य’ / ’saṃnyasya’, - अर्पित करते हुए, त्यागकर,
अध्याय 3, श्लोक 30,
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्यध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥
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(मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्य-अध्यात्म-चेतसा ।
निराशीः निर्ममः भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥)
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भावार्थ :
समस्त कर्मों को अध्यात्मबुद्धिपूर्वक मुझमें अर्पित करते हुए, आशा से और ममता से रहित होकर, संताप से मुक्त रहते हुए युद्ध करो ।
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अध्याय 5, श्लोक 13,
सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥
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(सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्य आस्ते सुखम् वशी ।
नवद्वारे पुरे देही न- एव कुर्वन् न कारयन् ॥)
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भावार्थ :
नव-द्वारों (इन्द्रियों) वाले घर (पुर) में रहता हुआ (पुरुष) और अपने मन-बुद्धि को वश में कर लेनेवाला, मन की सहायता से ( विवेकपूर्वक अपनी कर्तृत्व-भावना का निरसन हो जाने से) कर्मों को न तो स्वयं करते हुए और न किसी और के माध्यम से करवाते हुए सुखपूर्वक अपनी आत्मा में स्थित हो जाता है ।
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अध्याय 12, श्लोक 6,
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥
(ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्पराः ।
अनन्येन-एव योगेन माम् ध्यायन्तः उपासते ॥)
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भावार्थ : किन्तु जो अपने सभी कर्मों को मुझ (सगुण) परमेश्वर में ही अर्पण करते हुए अनन्य (मुझसे अपनी अपृथकता के बोध) योग से मेरा ध्यान, जिज्ञासा तथा निरन्तर चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं ...।
[अगले श्लोक क्रमांक 7 में इसे विस्तारपूर्वक कहा गया है ।]
टिप्पणी : इसी अध्याय 12 के श्लोक 1 में अर्जुन द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए, श्लोकों 2, 3, 4 एवं 5 के अन्तर्गत, भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा बतलाया गया कि यद्यपि (मेरे) अक्षर अव्यक्त स्वरूप में नित्य एकीभूत भाव से संलग्न मन-बुद्धियुक्त श्रद्धायुक्त मनुष्य युक्ततम अर्थात् सर्वोत्तम योगी होते हैं और वे सभी सब भूतों का कल्याण करते हुए मुझे ही प्राप्त होकर मुझमें ही समाहित हो जाते हैं किन्तु, उनमें से कुछ मेरे केवल अव्यक्त-स्वरूप में ही आसक्त मन-बुद्धिवाले होने से क्लेश अर्थात् अत्यधिक परिश्रम करते हैं, ....)
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अध्याय 18, श्लोक 57,
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥
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(चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगम् उपाश्रित्य मच्चित्तः सततम् भव ॥)
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भावार्थ :
निष्ठा और भावना सहित सभी कर्मों को मुझमें अर्पण करके मेरे परायण (मेरे में संलग्न) होकर, सांख्य-बुद्धि से प्राप्त विवेक द्वारा, मुझ पर ही आश्रित रहकर, निरन्तर मेरे ही प्रति लगावयुक्त चित्तवाले हो जाओ ।
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’संन्यस्य’ / ’saṃnyasya’ - having surrendered, given up, dedicated,
Chapter 3, śloka 30,
mayi sarvāṇi karmāṇi
sannyasyadhyātmacetasā |
nirāśīrnirmamo bhūtvā
yudhyasva vigatajvaraḥ ||
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(mayi sarvāṇi karmāṇi
sannyasya-adhyātma-cetasā |
nirāśīḥ nirmamaḥ bhūtvā
yudhyasva vigatajvaraḥ ||)
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Meaning : With the conviction born of the mind aimed at the spiritual, having surrendered all your actions in Me, fight the war without hoping, without attachment, and with the mind free of agony.
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Chapter 5, śloka 13
sarvakarmāṇi manasā
sannyasyāstē sukhaṁ vaśī |
navadvārē purē dēhī
naiva kurvanna kārayan ||
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(sarvakarmāṇi manasā
sannyasya āstē sukham vaśī |
navadvārē purē dēhī
na- ēva kurvan na kārayan ||)
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Meaning :
The consciousness (self) that lives in the body as its abode, with nine doors (2 eyes, 2 ears, 2 nostrils, a mouth and 2 organs of excretion), when by way of discrimination and self-enquiry, gets rid of the false notion 'I do / I don't do', and thus neither doing, nor getting done anything by some other agent of action, is freed from all actions, rests peacefully and happily there-after for ever.
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Chapter 12, śloka 6,
ye tu sarvāṇi karmāṇi
mayi sannyasya matparāḥ |
ananyenaiva yogena
māṃ dhyāyanta upāsate ||
(ye tu sarvāṇi karmāṇi
mayi sannyasya matparāḥ |
ananyena-eva yogena
mām dhyāyantaḥ upāsate ||)
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Meaning :
But those, who dedicate all their actions (karma) to Me, remembering Me and meditating of Me, ever devoted with indivisible love for Me, by such kind of yoga of oneness with Me,....
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Chapter 18, śloka 57,
cetasā sarvakarmāṇi
mayi sannyasya matparaḥ |
buddhiyogamupāśritya
maccittaḥ satataṃ bhava ||
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(cetasā sarvakarmāṇi
mayi sannyasya matparaḥ |
buddhiyogam upāśritya
maccittaḥ satatam bhava ||)
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Meaning :
Having surrendered all your actions to Me, having devoted to Me, following Me, by means of the wisdom of sāṃkhya,(sāṃkhya-buddhi), constantly thinking of Me, Be absorbed in Me.
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