Sunday, May 18, 2014

आज का श्लोक, ’संपश्यन्’ / ’saṃpaśyan’,

आज का श्लोक, ’संपश्यन्’ / ’saṃpaśyan’,
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’संपश्यन्’ / ’saṃpaśyan’,  - को महत्वपूर्ण समझते हुए,

अध्याय 3, श्लोक 20,
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कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयाः ।
लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥
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(कर्मणा एव हि संसिद्धिम् आस्थिताः जनकादयः ।
लोकसङ्ग्रहम् एव अपि सम्पश्यन् कर्तुम् अर्हसि ॥)
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भावार्थ :
जनक और दूसरे ज्ञानी भी (निष्काम) कर्म करते हुए ही परम-सिद्धि को प्राप्त हुए / में सुस्थित हुए । संसार के कल्याण की दृष्टि से भी तुम्हारा कार्य करना उचित है ।
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’संपश्यन्’ / ’saṃpaśyan’,  - Keeping in mind, thinking of,

Chapter 3, shloka 20,

karmaṇaiva hi saṁsiddhim-
āsthitā janakādayāḥ |
lōkasaṅgrahamēvāpi
sampaśyankartumarhasi ||
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(karmaṇā ēva hi saṁsiddhim
āsthitāḥ janakādayaḥ |
lōkasaṅgraham ēva api
sampaśyan kartum arhasi ||)
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Meaning :
King Janaka and other such sages attained the Supreme state while performing their worldly duties (with a mind free from desire). Keeping the benefit of the world in mind, you too must do the same.
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